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हाथों में iPhone लहराने वालों, भगवान माफ नहीं करेगा!

आईफोन को लेकर एक एंड्रॉयड वाले की भड़ास !

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दुनिया का पहला iPhone आया जून 2007 में. पहली नौकरी भी लगी जून 2007 में. बड़ा हल्ला. बड़ा शोर. अरे, गजब का फोन आ रहा है. ऐसा है. वैसा है. जाने कैसा है. आने से पहले ही भगवान का दर्जा हासिल. देखा किसी ने नहीं और चर्चा सबकी जुबान पर. हमने पूछा- ब्लूटूथ है? जवाब मिला-नहीं. फिर पूछा- कैमरा कितने मेगापिक्सेल का है. जवाब मिला- 2 मेगापिक्सेल. फिर पूछा- गाना सुन पाएंगे? जवाब मिला- हां, लेकिन हर ईयरफोन नहीं घुसेगा. हैं...तो दुनिया पागल काहे हो रही है?
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आईफोन खरीद के हमें चिढ़ाते हो !

फिर कुछ वक्त बाद आईफोन भारत आया. जब पइसे यानी कीमत यानी प्राइस पता लगा तो चकरा गए हम. मने, बेहोश हो गए एकदम. 20 हजार रुपये ! अमां, ये क्या है? इतने में तो साल भर का राशन आ जाता और फिर भी दो प्लेट छोले-भटूरे के पैसे बच जाते.

दफ्तर में कुछ बहुत पैसे वालों ने खरीद लिया आईफोन. कुछ ने बस कहीं से जुगाड़ करवा के मंगवा लिया. जब सफेद रंग का फोन जेब से निकलता तो हम जैसे नए रंगरूट ललचायी नजरों से ताकते. जैसे कहानियों में बंदर कैंडी से भरे जार को तकता है न. वैसे ही.

एक बार किसी सीनियर ने हाथ में ऐसे दिया जैसे अभी बच्चा बस पैदा हुआ है और पहली बार सीधा हमारे ही हाथ में थमा रहे हों. हमने भी उसी तरह हाथ में पकड़ा. खामख्वाह गिर-विर जाता तो हमें तो मकान-मालिक निकाल बाहर करता. नहीं, मतलब मकान-मालिक से डायरेक्ट कनेक्शन नहीं है पर उस महीने का किराया ही नहीं भर पाते तो निकालता न भाई. वैसे भी दिल्ली के मकान-मालिकों पर हमारा कोई खास ऐतबार नहीं !
आईफोन को लेकर एक एंड्रॉयड वाले की भड़ास !
भाई, ऐसी लाइन तो नोटबंदी में नहीं लगी जो विदेशी नोट खर्च करने में लगा रहे हैं
(फोटो: AP)
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बच्चों के पास आईफोन और हमारे पास ईंट !

खैर, तो जब पहली बार आईफोन हाथ में आया और चकमक स्क्रीन पर उंगली फिराई तो कसम कलकत्ते की...मजा आ गया. उंगली मक्खन की तरह सरकने लगी. उससे पहले जितने छूने वाले फोन यानी टचस्क्रीन आए वो बस नाम के ही टच थे. टच का फीचर चट था. सफा-चट.

बस...तय कर लिया कि सैलरी बढ़ते ही आईफोन खरीदना है. अब देश में सैलरी कहां इतनी जल्दी बढ़ती हैं. उस पर मंदी भी नहीं बल्कि महामंदी आ जाए तो क्या कीजिएगा. 2008 आया तो नया आईफोन भी आ गया. अबकी बार 3जी वाला. अमरीका में तो स्टोर के बाहर रातों रात लगी लाइन देखकर लगा ही नहीं कि कोई मंदी है. सब झूठ्ठे लग रहा था. 21 अगस्त की आधी रात हिंदुस्तान में लॉन्च हुआ तो खबर आई कि कोई 14 साल का बच्चा पहले ग्राहकों में से है. अब उमर खोलने का मन नहीं है, नहीं तो बता देते कि कित्ता दुख हुआ था उस दिन. छोटे-छोटे बच्चे 31 हजार का आईफोन लेकर स्कूल जाएंगे और हम ये टॉर्चलाइट वाला नोकिया 1100 की ईंट लेकर ऑफिस..सोचकर मन दुखी हो जाता था. बस अब एक ही उम्मीद थी कि अगले साल सैलरी बढ़े और आईफोन के दाम कम हो जाएं.

आईफोन को लेकर एक एंड्रॉयड वाले की भड़ास !
हां, लगे रहो उंगलियां घुमाने में, हमे चिढ़ाने में !
(फोटो: Reuters)
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iPhone, तुम हुए न हमारे...

हाय रे किस्मत ! वक्त बीतता रहा, आईफोन और हमारे बटुए के बीच तनातनी बढ़ती रही. लेकिन 2011 आते-आते हमने तय कर लिया कि किडनी बेच देंगे लेकिन इस आईफोन को लेके रहेंगे. अरे, जिसको देखो, लहरा के चलने लगा था. हम एंड्रॉयड पर भी ठीक से नहीं माइग्रेट हो पाए थे. कभी कोई ऑफिस में पूछ लेता कि चार्जर है, तो हम अपना चार्जर आगे बढ़ा देते. भाई, जान बूझकर आईफोन निकालता और कहता...अरे ये वाला नहीं, आईफोन का चार्जर. मन करता अभी पटक दें जमीन पे. बंदे को नहीं. आईफोन को !

फिर दोस्तों ने समझाया, किडनी रहने दो, हम कुछ मदद करेंगे. अब तक तो कितना जानदार हो गया था आईफोन. एप स्टोर से लेकर म्यूजिक तक, सब झमाझम. लालच बढ़ रहा था. जब दुकान पर खरीदने पहुंचे तो देखा दोस्त गायब हो चुके थे. उदास चेहरे के साथ घर लौट आए.

फिर तो हमारे और आईफोन के बीच एक रिश्ता सा कायम हो गया. पुल के दो सिरे जो कभी मिलते नहीं. हमने भी संतोष कर लिया था. आईफोन 5 आया, हम चुप रहे. फिर आईफोन 6 आया, हम खून के घूंट पीकर रह गए. उसके बाद आईफोन 7. रस्म अदायगी के लिए हमने कीमत पता की तो अचानक ब्लड प्रेशर चढ़ गया. मतलब अगर ज्यादा मेमोरी चाहिए तो 80 हजार से ज्यादा खर्च करना होगा. हम तो यही सोचते रह गए कि ये आसपास के लोगों का कालाधन पता करने के लिए मोदीजी यूं ही मेहनत कर रहे हैं. सबका आईफोन मॉडल चेक करें और जकड़ लें, पकड़ लें !

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