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मुलायम बनाम अखिलेश: यह महज बाप-बेटे की लड़ाई नहीं है

पिता मुलायम की राजनीति और अखिलेश की राजनीति में बड़ा फर्क है और कहीं ये फर्क कलह की वजह तो नहीं?

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लखनऊ के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के दूसरे शहरों में अलग साइकिल ट्रैक का दिखना सुखद एहसास था. भीड़ वाले इलाकों में कोई साइकिल चलाने वालों का भी ध्यान रख रहा है, यह सोचकर अच्छा लगा. लेकिन यह देख कर अजीब लगा कि कोई भी साइकिल चालक उस ट्रैक का उपयोग नहीं कर रहा है. कुछ शहरों में तो साइकिल ट्रैक पर गायें बंधी थी. कहीं खोमचा लगा था तो कहीं-कहीं दुकानदारों ने ट्रैक पर अपना कब्जा कर रखा था.

पिता मुलायम की राजनीति और अखिलेश की राजनीति में बड़ा फर्क है और कहीं ये फर्क कलह की वजह तो नहीं?
(फोटो: The Quint)

अब उसके बारे में सोचिए जिसने राज्य के शहरों में साइकिल ट्रैक लाने की सोची. उसके फ्रस्ट्रेशन के बारे में सोचिए. सोचा कि यूपी को बदलेंगे या कम से कम इसकी शुरुआत करेंगे. लेकिन हुआ क्या- योजना के अमली जामा पहनाने में लापरवाही की वजह से गाली ज्यादा मिल रही है.

राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव यूरोप यात्रा पर गए. वहां साइकिल ट्रैक पसंद आया. वापस आकर इसे अमल में लाने की कोशिश हुई. सोचा कि अच्छी पहल की सराहना होगी. उसपर से बोनस यह कि साइकिल उनकी समाजवादी पार्टी का इलेक्शन सिंबल भी है. लेकिन सराहना तो दूर साइकिल ट्रैक मजाक का आइटम बन गया. और विपक्षियों के लिए उनकी अलोचना करने का एक और मुद्दा.

अखिलेश का कार्यकाल ही बना मजाक!

दरअसल अखिलेश का कार्यकाल कुछ इसी तरह का रहा है. हर अच्छी पहल को ऐसे अमली जामा पहनाया गया कि वो मजाक बन जाता है. आइडिया उनका या उनके खास सलाहकारों का होता है लेकिन उसे लागू करने की जिम्मेदारी उनके मंत्रियों की होती है.

लागू करने में इनपुट कौन दे रहा है- उनकी पार्टी के लोग. और पार्टी कौन चला रहा है- उनके पापा-चाचा और उनके सहयोगी. ऐसे में हर नई पहल को बेमानी से लागू किया गया और उसका मजाक उड़ाया गया. अखिलेश की फ्रस्ट्रेशन बढ़ी और उनके पिताजी इन फैसलों से चिढ़ते गए.

पापा- बेटे की राजनीति में बड़ा अंतर

पिता मुलायम की राजनीति और अखिलेश की राजनीति में बड़ा फर्क है और कहीं ये फर्क कलह की वजह तो नहीं?
सैफई महोत्सव में मुलायम सिंह यादव. (साल 2015 की फोटो)

अखिलेश और उनके पिताजी मुलायम सिंह यादव की राजनीति में भारी अंतर है. मुलायम सिंह यादव जब राजनीति में आए और आगे बढ़े उस समय की राजनीति या प्रशासन जुगाड़ के अलावा कुछ नहीं था.

  • बंद अर्थव्यवस्था में हर चीज का अभाव था.
  • टेलीफोन कनेक्शन से लेकर इंजीनियरिंग कॉलेज में नामांकन तक- सब कुछ पैरवी से.
  • सत्ता मतलब जुगाड़ में हाथ ऊंचा होना था.
  • नेता से वही जुड़ते थे जिन्हें जुगाड़ में हिस्सा चाहिए होता था या फिर जो खुद बहुत जुगाड़ू होते थे.

मुलायम ने इस राजनीति में महारथ हासिल की और उनके इर्द गिर्द वही लोग जुड़े जो महारथी का रुतबा बनाए रखें. आइडेंटिटि पॉलिटिक्स उस महारथ को बनाए रखने का हथियार था. चूंकि मुलायम और उनके समकक्षी काफी सफल रहे इसीलिए उन्हें लगता है कि उनका ही रास्ता सही है.

अखिलेश की राजनीति अलग

इससे अलग जब अखिलेश ने अपनी राजनीति शुरू की उस समय देश बदलने लगा था. अभाव की अर्थव्यवस्था के खत्म होने की वजह से जुगाड़ की जरूरत कम होने लगी थी. राजनीति में पारदर्शिता आने लगी. सड़क-बिजली के नाम पर चुनाव जीते-हारे जाने लगे. गवर्नेंस से ज्यादा रेगुलेशन की महत्ता बढ़ने लगी. लोगों की आकांक्षाएं बदलने लगी और नेताओं से उनकी अपेक्षाएं भी. चूंकि अखिलेश इस जमाने के नेता हैं इसीलिए वो शायद इस बात को आसानी से समझ पाते हैं.

जेनेरेशन गैप का शिकार यादव परिवार

लेकिन वो नई राजनीति शायद अखिलेश अपने पिताजी को कभी समझा नहीं पाए. अखिलेश का एप्रोच पारदर्शिता पर जोर देता है जबकि उनके पिताजी की राजनीति के केंद्र में सिक्रेसी है. अखिलेश फन लविंग, छुट्टी मनाने वाले नेता की तरह दिखते हैं तो मुलायम सीरियस नेता का इमेज पेश करना चाहते हैं जो करे कुछ भी लेकिन दिखे सब सीरियस.

अब मुलायम अपने जमाने में बहुत सफल रहे इसलिए उनको यह समझना मुश्किल हो रहा है कि देश बदल गया है और उसकी राजनीति भी. उनके हिसाब से शायद अखिलेश उनके जैसे नहीं हैं इसीलिए उनकी विरासत आगे नहीं बढ़ा पाएंगे. अब मुलायम को कौन समझाए की हर चीज की तरह राजनीति का भी एक एक्सपाइरी डेट होता है. वो तो स्मार्टफोन के जमाने में टेलीग्राम करने में लगे हैं. अपने ही घर के नए स्मार्टफोन मॉडल को आजमाने के लिए तैयार ही नहीं है.

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