हाल के दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार सीएम नीतीश कुमार के बीच रिश्ते में मिठास आने की चर्चा खूब जोर पकड़ रही थी. ऐसी अटकलें भी लगने लगीं कि आने वाले दौर में बीजेपी और जेडीयू के बीच गठबंधन हो सकता है. लेकिन अब 'सुशासन बाबू' ने एक झटके में ही ऐसी अटकलों पर ब्रेक लगाकर सियासी पंडितों को दूसरी दिशा में सोचने को मजबूर कर दिया है.
दरअसल, नीतीश कुमार ने समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) के बारे में नेशनल लॉ कमीशन की ओर से दिए गए सवालों को साफ तौर पर खारिज कर दिया है.
आयोग ने इस बारे में 16 सवाल तैयार किए हैं, जिन पर सभी संबंधित पक्षों से जवाब मांगे गए हैं. दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कई सवाल ऑब्जेक्टिव टाइप के हैं. इनके सामने कुछ विकल्प दिए गए हैं, जिनके जवाब 'हां' या 'ना' में देने हैं.
नीतीश कुमार और उनकी पार्टी की आगे की रणनीति क्या हो सकती है, इस पर चर्चा से पहले लॉ कमीशन के कुछ सवालों पर गौर करना जरूरी है. देखिए सवाल:
जाहिर है, ऐसे सवालों के जवाब के बाद यह पता करना मुश्किल नहीं रह जाएगा कि कोई राजनीतिक दल या शख्स किस समुदाय की मान्यताओं और परंपराओं के प्रति अपनी निष्ठा रखता है.
पेचीदा है समान नागरिक संहिता का मुद्दा
दरअसल, समान नागरिक संहिता बीजेपी के एजेंडे में शुरू से ही सबसे ऊपर रहा है. यह और बात है कि चुनाव और वोटों के गणित को देखते हुए वह इस मुद्दे को जोर-शोर से नहीं उठा पाती. पहले कई बार उसे 'अनुकूल अवसर' के इंतजार में इसे ठंडे बस्ते में डालना पड़ा है.
हाल के दिनों में 'तीन तलाक' के मुद्दे पर खूब बहस हो रही है. बीजेपी तीन तलाक के दोष गिनाकर और इससे जुड़े महिलाओं के समान अधिकार की बात उठाकर समान नागरिक संहिता के पक्ष में माहौल बनाने की पुरजोर कोशिश कर रही है.
इससे बीजेपी दो बड़े मकसद साधने की कोशिश करती नजर आ रही है:
1. समान संहिता की बात उठाकर बहुसंख्यक वोटों पर एकाधिकार पक्का करना.
2. 'तीन तलाक' के अमानवीय पक्ष को दिखाकर आधी आबादी (महिलाएं) को अपने पक्ष में करना.
हाल के घटनाक्रम के बाद बीजेपी को उम्मीद थी कि यूनिफॉर्म सिविल कोड के मसले पर उसे नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू का समर्थन मिल जाएगा. लेकिन लॉ कमीशन के सवालों को खारिज कर उन्होंने भविष्य में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की सपाट दिख रही पिच पर अपनी बॉल जानदार तरीके से टर्न करा दी है.
नीतीश ने जता दिया है कि वे न तो कॉमन सिविल कोड पर अपनी पार्टी के पुराने स्टैंड से हटने के लिए तैयार हैं, न ही वे मोदी या बीजेपी की मूल विचारधारा के प्रति कोई नरमी दिखाने को तैयार हैं.
तो क्या हो सकती है नीतीश की रणनीति
नीतीश कुमार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है. भले ही वे खुद न बोलते हों, पर यह साफ है कि वे प्रदेश की राजनीति के जरिए प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी हासिल करना चाहते हैं. यह तभी मुमकिन है, जब बीजेपी के खिलाफ गोलबंद होने वाली तमाम पार्टियां या कथित 'तीसरा मोर्चा' उनकी दावेदारी पर एकमत हो.
अगला लोकसभा चुनाव 2019 में होना है. लेकिन आज के हालात में नीतीश की पीएम दावेदारी को कड़ी चुनौती मिल रही है. ममता बनर्जी नोटबंदी की पुरजोर मुखालफत कर बीजेपी की 'दुश्मन नंबर वन' दिखना चाहती हैं. दूसरी ओर उम्र के इस पड़ाव पर मुलायम सिंह यादव भी शायद मोर्चे के मुखिया का दर्जा आसानी से छोड़ना न चाहें. ऐसे में नीतीश के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वे इन दिग्गजों को साफ मेसेज दें.
पहले नीतीश ने अन्य विरोधी पार्टियों के स्टैंड से अलग हटकर पीएम मोदी की नोटबंदी स्कीम को उचित ठहराया. इसके बाद पटना में गुरु गोविंद सिंहजी की 350वीं जयंती पर दोनों सियासी दिग्गजों ने एक-दूसरे की जमकर तारीफ की.
हाल के इस ‘भाईचारे’ का सीधा-सपाट मतलब यह निकाला गया कि बीजेपी और जेडीयू भविष्य में एक ही छाते के नीचे आ सकते हैं. लेकिन राजनीति में ‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशान’ वाला पुराना दांव हर दौर में कारगर देखा गया है.
बहुत मुमकिन है कि नीतीश मोदी के खिलाफ गोलबंद होने वाली तमाम पार्टियों को ये मेसेज देना चाह रहे हों कि अगर उनकी जगह किसी अन्य कद्दावर नेता को पीएम उम्मीदवार बनने का चांस दिया गया, तो वे उस महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनेंगे. ऐसी हालत में मोदी विरोध की हवा निकल सकती है.
कहने का मतलब यह कि नीतीश अपनी छवि पर आंच आए बिना फिलहाल दोनों ही हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं. वैसे 2019 का आम चुनाव आते-आते नीतीश किस हाथ के लड्डू का स्वाद लेंगे, यह देखना बेहद दिलचस्प होगा.
ये भी पढ़ें
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)