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मोदी-शाह के कोविंद कार्ड की काट ढूंढना विपक्ष के लिए आसान नहीं

मोदी और शाह की बिसात पर क्या विपक्ष हो गया चारों खाने चित्त?

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सोमवार दोपहर को तकरीबन 12 बजे जब बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक शुरू हुई तो किसी को अंदाजा नहीं था कि अगले एक घंटे में बीजेपी राष्ट्रपति के नाम की औपचारिक घोषणा कर देगी .सब मानकर चल रहे थे कि बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक में पार्टी प्रधानमंत्री को अंतिम फैसले लेने के लिए अधिकृत कर देगी और मंगलवार को देर शाम तक नाम की घोषणा की जाएगी .उससे पहले कुछ बैठकों का दौर चलेगा, मिलने मिलाने का सिलसिला होगा.

मोदी और शाह की बिसात पर क्या विपक्ष हो गया चारों खाने चित्त?
19 जून की दोपहर कैबिनेट बैठक में हिस्सा लेते पीएम मोदी और बीजेपी नेता. (फोटो: PTI)

बैठक खत्म होने से पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और नितिन गडकरी बैठक से बाहर आ गए तो वहां मौजूद पत्रकारों को थोड़ा कहानी में रोमांच आता लगा लेकिन पता चला वे मंत्रालय की पूर्व निर्धारित बैठक के लिए बाहर गए हैं न कि आडवाणी जोशी से मिलने .

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने बैठक खत्म होते ही बिना लाग लपेट के बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा राष्ट्रपति पद के लिए कर दी .

महज एक दिन पहले ही मुंबई में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह  शिवसेना प्रमुख उद्भव ठाकरे से राष्ट्रपति चुनाव को लेकर आम सहमति के लिए मुलाकात की थी लेकिन मुलाकात में बीजेपी अध्यक्ष ने उद्वव से नाम पर चर्चा नहीं की . राष्ट्रपति चुनाव पर आम सहमति बनाने के बनी तीन सदस्यीय कमेटी ने जब विपक्ष के नेताओं के साथ मुलाकात की थी तब भी नाम पर स्सपेंस बनाकर रखा गया था . अब सवाल है कि कोविंद को ही क्यूं चुना गया तब जबकि न वाजपेयी की तरह जिताने के लिए मारामारी है न सरकार बनाए रखने की जद्दोजहद .

शायद इसलिए क्योंकि मोदी का यही स्टाइल है .

दलित के बीच स्वाभाविक पार्टी बनाने का राजनीतिक कार्ड

मोदी और शाह की बिसात पर क्या विपक्ष हो गया चारों खाने चित्त?
पटना से दिल्ली के लिए रवाना होते रामनाथ कोविंद. (फोटो: PTI)

कोरी समाज के रामनाथ कोविंद की जगह बीजेपी अगर द्रौपदी मुर्मू को भी राष्ट्रपति पद के लिए चुनती तब भी प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष की मंशा और संदेश में अंतर नहीं आता क्योंकि अमित शाह बीजेपी को वंचितों-दलितों और आदिवासियों के बीच एक नेचुरल पसंद के रूप में विकसित करना चाहते हैं.

हाल के यूपी चुनाव में दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग ने रोहित वेमुला की आत्महत्या और ऊना में दलितों के उत्पीड़न के बाद भी मोदी में विश्वास बनाए रखा और बीजेपी को 14 साल के वनवास से निकालकर सत्ता तक पहुंचाया . बीजेपी दलित वंचितों के उस वर्ग में कांशीराम की तरह पैठ जमाना चाहती है. कोविंद को राष्ट्रपति बनाने के बाद कांशीराम को अगर भारत रत्न मिल जाए तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए.

अमित शाह को लगता है बीजेपी  के सामाजिक फुटप्रिंट में अगडडी जातियों के साथ दलितों का अगर मायावती मार्का समर्थन मिल जाए तो बीजेपी के लिए 2019! निकालना बेहद आसान होगा . सिर्फ मान लीजिये यूपी में योगी का कट्टर हिन्दुत्ववाद और दलित चेहरों के सहारे दलितों का 20 प्रतिशत  वोट बीजेपी में जुड़ जाए तो 2014 दोहराना क्या मुश्किल होगा ?

ऐसा नहीं है इससे पहले दलित राष्ट्रपति नहीं हुए हैं. कांग्रेस ने नारायणन को राष्ट्रपति बनाकर जाति समीकरण साधे थे अब बीजेपी की बारी है .

विपक्षी एकता में सेंध की कोशिश

मोदी और शाह की बिसात पर क्या विपक्ष हो गया चारों खाने चित्त?
सोनिया के निमंत्रण पर विपक्षी दलों की बैठक. (फाइल फोटो: PTI)

सालभर से कम समय में गुजरात ,कर्नाटक , हिमाचल, मध्यप्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और अगले साल से 2019 के लोकसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी . ऐसे में किसी भी पार्टी का दलित उम्मीदवार का विरोध करना टाइम बम का बटन दबाने जैसा होगा.

यूपी से आनेवाले दलित मिलनसार रामनाथ कोविंद का विरोध करना यूपी में राजनीति कर रहे मायावती,मुलायम के लिए मुश्किल तो होगा ही, बिहार के राज्यपाल के पद पर विराजमान कोविंद का विरोध करना नीतीश के लिए उतना ही मुश्किल होगा. वो भी तब जब नीतीश और रामनाथ कोविंद के संबंध अच्छे हैं चाहे वो शराबबंदी के कठोर विधेयक को मंजूरी देने का मसला हो या कुलपतियों की नियुक्ति का मसला.

मोदी और शाह की बिसात पर क्या विपक्ष हो गया चारों खाने चित्त?
रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाए जाने के बाद बधाई देते बिहार के सीएम नीतीश कुमार. (फोटो: PTI)

नीतीश की सख्त शराबबंदी नीति पर बीजेपी के रूख से उलट राज्यपाल रामनाथ कोविंद ने नीतीश से टकराव नहीं किया इसलिए नीतीश के सामने कोविंद को समर्थन न करना सांप छछुंदर वाली स्थिति हो जाएगी . लालू नीतीश में चौड़ी होती खाई को और बढ़ाने का यह मास्टरस्ट्रोक हो सकता है. वहीं कांग्रेस और वामपंथी दलों को अलग थलग करने का मोदी शाह का ये राजनीतिक स्ट्रोक कामयाब हुआ तो बनने से पहले महागठबंधन के टूटने की कहानी शुरू हो जाएगी. वाजपेयी ने विपक्षी एकता तोड़ने के लिए कलाम को राष्ट्रपति बनवाया था.

संगठन का पहला राष्ट्रपति

मोदी और शाह की बिसात पर क्या विपक्ष हो गया चारों खाने चित्त?
ग्राफिक्स सौजन्य- पीटीआई

रामनाथ कोविंद के चुने जाने की कई सारी वजहों में उनका बीजेपी संगठन से सीधे निकलना भी है . 1998 से 2002 तक दलित मोर्चे के प्रमुख के तौर पर या सांसद के तौर संघ के दलित समाज की परिकल्पना को व्यापक बनाने में वे काफी सालों से सक्रिय रहे थे . लेकिन मोटी बात ये है कि दलितों के बीच उनकी छवि एक मिलनसार ,मददगार सुसंकृत पढ़े लिखे नेता की रही है जो बीजेपी और संघ की दलित वर्ग में पैठ बनाने की रणनीति में फिट बैठती है . वे कानून के जानकार हैं तो राष्ट्रपति के रूप में संवैधानिक मसलों पर विशेषज्ञता उनकी योग्यता का हिस्सा है. चुने जाने की अनिवार्यता नहीं. उनका लो प्रोफाइल रहना विनम्र होना और असहिष्णुता की राजनीति से बचना, उनके चुने जाने की कई वजहों में रही है पर पूरी नहीं.

मोदी-शाह को बड़ी लकीर नहीं खींचना बल्कि राजनीतिक फुटप्रिंट बढ़ाना है

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कैबिनेट मीटिंग में जाने से पहले कैमरे के लिए पोज करते पीएम मोदी और अमित शाह. (फोटो: PTI)

एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार कोविंद के नाम के ऐलान के पहले पार्टी के अंदर और बाहर लोगों को लगता था मोदी सुषमा स्वराज के रूप में स्वीकार्य ,भीष्म पितामह आडवाणी के रूप में दिग्गज संगठनकर्ता या कलाम की तरह नारायणमूर्ति या श्रीधरण को चुनकर बड़ी लकीर खींच सकते थे पर मोदी अमित शाह को जानने वाले कहते हैं उन्हें लकीर नही खींचना बल्कि बीजेपी का फुटप्रिंट इतना बढ़ाना है जिससे केंद्र और राज्यों में अगले दशक तक बीजेपी सत्ता में बनी रहे.

इसलिए नए राष्ट्रपति के रूप में कोविंद की उम्मीदवारी से कुछ आलोचक नाराज हो सकते हैं पर मोदी-अमित शाह के चिंतन कक्ष में इसकी ज्यादा जगह नहीं है.

(शंकर अर्निमेष जाने-माने पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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