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मोदी से दोस्‍ती, लालू से कुश्‍ती नीतीश की भूल या मास्टरस्ट्रोक? 

हारकर भी जीतने वाले ‘बाजीगर’ हैं नीतीश कुमार

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जहां एक ओर राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश कुमार को पीएम नरेंद्र मोदी के तगड़े प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा जा रहा था, वहीं अचानक नीतीश ने महागठबंधन का दामन छोड़कर बीजेपी का हाथ थाम सबको हैरान कर दिया है. अब नीतीश का ये फैसला उनके लिए मास्टर स्ट्रोक साबित होता है या कोई कोई बड़ी भूल, हम इसे समझने की कोशिश करते हैं.

वैसे अगर नीतीश के अतीत पर नजर डालें, तो उन्होंने ऐसे कई फैसले लिए हैं, जिसे उनका मास्टर स्ट्रोक भी माना जा सकता है या ये भी कहा जा सकता है कि नीतीश ने अपने हाथ से कई बड़े मौके गंवा दिए.

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नीतीश कुमार और लालू प्रसाद राजनीति में साथ आए, लेकिन ये दो दोस्त आपस में भी सियासत करने से नहीं चूके. बात 1994 की हो या 2015 की, नीतीश ने सत्ता में आने के लिए लालू का हाथ थामा और बाद में सत्ता में अपने कद को और ऊंचा करने के लिए लालू का साथ छोड़ दिया. 

जब पहली बार छोड़ा था लालू का साथ

लालू प्रसाद और नीतीश कुमार कॉलेज के दिनों से ही समाजवादी आंदोलन के साथी रहे थे. 1990 में लालू प्रसाद जब पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तब सरकार बनाने में नीतीश कुमार की अहम भूमिका भी थी. यही नहीं पार्टी में नीतीश नंबर दो की पोजिशन पर थे. लेकिन 1994 तक हालात बिल्कुल बदल गए थे. नीतीश ने लालू के कामकाज के तरीकों से नाराज होकर उनका साथ छोड़ दिया था. अक्टूबर 1994 में नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिलकर समता पार्टी बनाई थी. समता पार्टी के जरिए ही नीतीश की बीजेपी के साथ दोस्ती हुई.

हालांकि नीतीश के पार्टी छोड़ने के कुछ वक्त बाद ही लालू के ऊपर करप्शन के कई आरोप लगने लगे. वो चारा घोटाले में अभियुक्त थे, उन पर जनता दल के एक धड़े ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने का भी दबाव बनाया. अगर उस वक्त नीतीश पार्टी में होते, तो शायद मुख्यमंत्री का ताज उन्हें ही मिलता, लेकिन नीतीश ने तो लालू और उनकी पार्टी से रिश्ता तोड़ लिया था.

लालू ने गिरफ्तारी तय हो जाने के बाद सीएम पद से इस्तीफा दे दिया और अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया. हो सकता था अगर नीतीश लालू के साथ होते, तो लालू राबड़ी देवी की जगह उन्हें ही अपनी कुर्सी सौंपते.

हारकर भी जीतने वाले ‘बाजीगर’ हैं नीतीश कुमार
जब लालू और नीतीश बिहार में आए साथ-साथ
(फोटो: पीटीआई)
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2013 में छोड़ा था एनडीए का साथ

2013 में नीतीश कुमार ने एक झटके में एनडीए के साथ अपना 17 साल पुराना रिश्ता खत्म कर लिया. 2013 में जब एनडीए ने नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान की कमान थमाई, तो नीतीश ने काफी विरोध किया और उन्होंने 17 सालों का साथ एक झटके में छोड़ दिया.

एनडीए का साथ छोड़ने के बाद नीतीश को 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा. यही नहीं नीतीश ने नैतिकता के नाम पर हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया. उन्‍हें सीएम का ताज अपने विश्वासपात्र रहे जीतनराम मांझी को सौंपना पड़ा.

हालांकि नीतीश कुमार का ये फैसला उनके लिए कई मुश्किलें लेकर आया. सीएम बनने के बाद जीतनराम मांझी ने बगावती तेवर अपना लिए. मांझी को सीएम के पद से हटाने के लिए नीतीश को राष्ट्रपति के सामने अपने विधायकों की परेड तक करवानी पड़ी, तब जाकर उन्हें बिहार के सीएम की कुर्सी हासिल हुई.

नाराज जीतन राम मांझी को अपनी कुर्सी तो गंवानी ही पड़ी, साथ ही वे पार्टी से भी बाहर हो गए.

नीतीश कुमार अटल सरकार से ही एनडीए में अहम भूमिका निभाते रहे हैं. 2001 से लेकर 2004 तक एनडीए सरकार में रेलमंत्री बने. यही नहीं 2005 में बीजेपी के साथ की वजह से ही वो बिहार में 15 सालों से राज कर रहे लालू प्रसाद को परास्त करने में कामयाब हो पाए थे. हो सकता है, अगर वो एनडीए के साथ होते, तो मोदी सरकार में भी उनकी कोई बड़ी भूमिका होती, लेकिन ऐन लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश ने एनडीए का साथ छोड़ दिया. अब इसे नीतीश कुमार का मास्टर स्ट्रोक कहे या उनकी बड़ी भूल?

हारकर भी जीतने वाले ‘बाजीगर’ हैं नीतीश कुमार
मोदी के पीएम उम्मीदवार बनाए जाने का नीतीश ने किया था विरोध
(फोटो: क्विंट)
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लालू के साथ आकर सबको चौंकाया

एनडीए से अलग होने से भी ज्यादा चौंकाने वाला फैसला था नीतीश का लालू प्रसाद के साथ आना. लालू ने बिहार ने 15 सालों तक राज किया था, जिसमें नीतीश ने 10 साल उनको हटाने में लगा दिए. ऐसे में नीतीश और लालू के साथ आने के इस फैसले की वजह से उन्हें आलोचना का शिकार भी होना पड़ा. भ्रष्टाचार के आरोप में घिरे लालू कुनबे से उनकी नजदीकियां उनके इगो का ही परिणाम थीं, जो नरेंद्र मोदी के कद से टकरा रहे थे.

करप्शन के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाने वाले नीतीश का भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे लालू के साथ आने पर कई राजनीतिक पंडितों ने यही भविष्यवाणी की थी कि नीतीश का ये फैसला उनके लिए घातक साबित होगा.

तमाम आलोचना के बीच नीतीश ने आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ बिहार में मोर्चा खोल दिया. नीतीश ने बिहार विधानसभा चुनाव जीत के बाद ये साबित कर दिया कि वो वाकई सियासत के बड़े खिलाड़ी हैं.

हारकर भी जीतने वाले ‘बाजीगर’ हैं नीतीश कुमार
बिहार चुनाव में हुआ महागठबंधन का गठन
(फोटो: द क्विंट)
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महागठबंधन से अलग होना भूल या मास्टरस्ट्रोक?

देशभर में छाई बीजेपी की लहर और बढ़ते मोदी के कद के सामने धाराशायी होते विपक्ष के बीच नीतीश कुमार ने अपने फैसले से व्यक्तिगत राजनीति को बचाने की भरपूर कोशिश की है. जहां एक तरफ महागठबंधन एनडीए खिलाफ एकजुट हो रहा था और 2019 लोकसभा चुनाव के लिए नीतीश को पीएम पद के दावेदार बनाने के संभावनाओं पर चर्चा चल रही थी, ऐसे वक्त पर नीतीश ने महागठबंधन का साथ छोड़ दिया.

क्या नीतीश ने एक बार फिर अपने हाथ से एक बड़ा मौका गंवा दिया या उनका ये फैसला आने वाले वक्त में एक मास्टर स्ट्रोक साबित होगा?

खैर, महज दो दिन के अंदर बिहार का ये सियासी ड्रामा लालू के प्रति सहानुभूति तो पैदा कर जाएगा, लेकिन नीतीश और उनकी पार्टी को इस कदम से नुकसान हो सकता है.

एक तरह से नीतीश ने अपनी ही सोशल इंजीनियरिंग पर चोट कर दी है. पहले अन्‍य वर्गों के अलावा महादलित, अत्‍यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) और पसमांदा मुसलमान के भी ज्‍यादा वोट पाने की उनकी कोशिश होती थी, पर बीजेपी के साथ आने के बाद अब ये तबका जेडीयू से दूरी बना सकता है.

इतना ही नहीं, नीतीश के इस कदम से उनके PM बनने की महत्‍वाकांक्षा पर भी विराम लगता नजर आ रहा है. उन्‍हें तात्‍कालिक फायदा ये मिला कि बिहार में उनकी कुर्सी बची रह गई. उनकी पार्टी के दो नेताओं को केंद्र में मंत्री बनाए जाने की खबरें भी आ रही हैं. लेकिन पहली नजर में तो यही लगता है कि नीतीश ने पाया कम, खोया ज्‍यादा है.

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