पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में चुनाव बाद सरकार बदलने की परंपरा रही है. पिछले 32 सालों में हुए सभी विधानसभा चुनावों में ऐसा ही हुआ है. हर बार सत्ताधारी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है. ऐसे में 2017 के चुनाव में जहां बीजेपी इस परंपरा को कायम रखने की उम्मीद में है, वहीं सत्ताधारी कांग्रेस इस इतिहास को बदलने के लिए जी-जान से जुटी है.
बीजेपी और कांग्रेस का जीत का सपना
कांग्रेस या बीजेपी के लिए लगातार दो बार इस पहाड़ी राज्य को फतह करना किसी सपने से कम नहीं. 1985 के बाद किसी भी पार्टी की सरकार दोबारा सत्ता में वापसी करने में सफल नहीं हो पाई है. 1985 में कांग्रेस की सरकार बनी तो 1990 में बीजेपी की. 1993 में कांग्रेस ने बीजेपी को बाहर का रास्ता दिखाया, तो 1998 में एक बार फिर से बीजेपी सत्ता पर काबिज हुई और कांग्रेस विपक्ष में.
2003 में कांग्रेस विपक्ष से सत्ता में आ गई, लेकिन 2007 के चुनाव में सत्ता बचाने में कामयाब नहीं हो सकी. 2007 में बीजेपी सत्ता पर काबिज तो हुई, लेकिन 2012 के चुनाव में एक बार फिर हिमाचल की परंपरा कायम रही और बीजेपी की जगह कांग्रेस सरकार बनाने में सफल हुई. अब 18 दिसंबर को पता चलेगा कि इस पहाड़ी राज्य की परंपरा कायम रहने वाली है या कांग्रेस नया इतिहास बनाएगी.
1977 से पहले तक हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज था. लेकिन 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने पहली बार कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया. हालांकि जोरदार वापसी करते हुए कांग्रेस 1982 और 1985, लगातार दोनों चुनावों में सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हो गई. लेकिन उसके बाद से कांग्रेस का यह ख्वाब कभी हकीकत नहीं बन सका.
कांग्रेस के लिए परंपरा बदलना आसान नहीं
अभी भी राज्य में कांग्रेस की सरकार है. ऐसे में चुनाव बाद सरकार बदलने की यहां की परंपरा को बदलना उसके लिए बड़ी चुनौती साबित हो रही है. कांग्रेस इस परंपरा को बदलने के लिए पूरा जोर लगा रही है. लेकिन वर्तमान सीएम वीरभद्र सिंह पर भ्रष्टाचार के आरोप, सीबीआई और ईडी की जांच, सीनियर लीडर विद्या स्टोक्स का चुनाव से बाहर होना और कई स्थानीय कांग्रेस लीडर का पार्टी को छोड़ना कांग्रेस की जीत की राह में रोड़ा अटका सकता है.
बेरोजगारी और ट्रांसपोर्ट की समस्या हार का कारण
इस बार चुनाव में भ्रष्टाचार और बेरोजगारी प्रमुख मुद्दा है. 2012 और 2007 के चुनावों में भी इस राज्य में बेरोजगारी बड़ा मुद्दा रहा. हिमाचल की करीब आधी आबादी युवाओं की है. राज्य में बड़ी संख्या में युवा या तो बेरोजगार हैं या उन्हें पलायन करना पड़ता है.
इस पहाड़ी राज्य में यातायात भी एक बड़ी समस्या है. रेल की पहुंच तो नाममात्र की ही है, सुदूर क्षेत्रों तक सड़क मार्ग से भी पहुंचना काफी परेशानियों भरा है. बिजली, पानी, सड़क-परिवहन जैसी मूलभूत सुविधाओं का भी इस पहाड़ी राज्य में अभाव है.
परंपरा को दरकिनार कर जी-जान से जुटे हैं प्रत्याशी
हिमाचल की परंपरा जो भी रही हो. पिछले 7 विधानसभा चुनावों में भले ही सत्ता पक्ष वापसी करने में कभी सफल न हो पाया है. बावजूद इसके चुनावी मैदान में उतरी दोनों बड़ी पार्टियों के साथ करीब 500 उम्मीदवार जीत के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं. 68 विधानसभा सीटों के लिए इन सभी उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला 18 दिसंबर को होगा. उस समय ही साफ होगा कि हिमाचल की जनता जनार्दन अपनी परंपरा को कायम रखती है या इस बार एक नया इतिहास रचती है.
ये भी पढ़ें- हिमाचल चुनाव: महिलाएं वोट की कतार में आगे, टिकट की कतार में पीछे
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)