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कोरोना के बहाने लुटियंस दिल्ली को आम लोगों से जोड़े सरकार

देश की सत्ता का केंद्र है लुटियंस दिल्ली

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अगस्त 1947 के बाद, तीन मूर्ति भवन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का आधिकारिक आवास था. भारत को आजादी मिलते ही, पंडित नेहरू फ्लैग स्टाफ हाउस में शिफ्ट हो गए, जो कि आजादी से पहले ब्रिटिश राज के कमांडर इन चीफ- फील्ड मार्शल का आवास हुआ करता था.

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इतिहास से परिचय!

1964 में, पंडित नेहरू के निधन के बाद, तीन मूर्ति भवन को नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में तब्दील कर दिया गया. अगर देखा जाए तो लुटियंस दिल्ली में रायसीना की पहाड़ी पर बने राष्ट्रपति भवन के बाद, 'तीन मूर्ति भवन' सबसे उत्कृष्ट इमारत है. निःसंदेह, आज तीन मूर्ति भवन आधुनिक भारत के इतिहास का प्रतिरूप ही नहीं, बल्कि खुद में ही बहुत बड़ा इतिहास और भारत की प्रमुख धरोहर है.

मेरा भी जाना हुआ नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में, बहुत ही भव्य भवन है. मेन बिल्डिंग के बाहर, एक सब्सिडी वाली सरकारी कैंटीन है, जो कि यहां आने-जाने वालों के लिए बहुत ही बेहतरीन चाय- जलपान की सेवा देती है.

तीन मूर्ति भवन मैं तौफीक किचलू जी के साथ जाने का अवसर मिला, उस वक्त वो एक किताब लिख रहे थे, "डायलेक्ट ऑफ पीस". उस वक्त नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी के निदेशक प्रोफेसर बिमल प्रसाद, जो पूर्व में पटना यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर, नेपाल के राजदूत और जेएनयू स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के डीन, रह चुके थे, उस वक्त जयप्रकाश नारायण पर किताब लिख रहे थे. बिमल जी से मिलने का अवसर हुआ.

निदेशक का जो कमरा था, वो पहले पंडित नेहरू का स्टडी रूम हुआ करता था. जब निदेशक के कमरे में मैंने प्रवेश किया, बहुत ही भव्य था, कुछ देर के लिए मैं दंग रह गया- एक बहुत बड़े- पुराने- महत्वपूर्ण इतिहास के साथ साक्षात्कार हो रहा था. जिस टेबल पर प्रोफेसर बिमल प्रसाद बैठे थे, वो पंडित नेहरू का स्टडी टेबल था. ऐसा स्टडी टेबल मैंने पहले कभी नहीं देखा था.

इसी टेबल पर पंडित नेहरू ने आधुनिक भारत के लिए न जाने कितने ही अहम फैसलों की नींव रखी होगी, कितने ही सपनों को बुना होगा. सब कुछ बहुत ही भव्य सा था. लुटियंस दिल्ली का ये छोटा सा प्रमुख हिस्सा, जो कि कई एकड़ में फैला हुआ है, अब लाइब्रेरी और म्यूजियम में तब्दील हो गया है.

देश की सत्ता का केंद्र

राजनीतिक और मीडिया के गलियारों में लुटियंस दिल्ली विचार-विमर्श का बहुचर्चित विषय रही है. आज वीआईपी कल्चर का प्रचलन निश्चित तौर पर कम हुआ है या इसमें बदलाव आया है. निश्चित तौर पर आजकल लाल बत्ती वाली गाड़ियां सड़कों पर कम नजर आती हैं. लेकिन गुलाबी शैंपेन और अंग्रेजी में सोचने वाले समाजवादी अब भी हैं. ये बदलाव बीते कुछ सालों में ही हुआ है.

अगर राजनीतिक विषेशज्ञों की मानें तो लुटियंस क्लब पिछले कई दशकों से "द राज (ब्रिटिश राज)’’ के बाद वाले भारत के सत्ता का केंद्र रहा है, जो कि आज भी आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर नजर आता है.

आज भी रायसीना की पहाड़ी और इसके आसपास के इलाके का हावभाव संघीय से ज्यादा राजसी लगता है. लुटियंस दिल्ली निश्चित तौर पर भारत की विरासत है और इसका रखरखाव भी अति आवश्यक है. लेकिन इसके इस्तेमाल के तरीकों में बदलाव होना भी जरूरी है.

आज लुटियंस बस देश की राजधानी तक ही सीमित नहीं है, इसने देश के हर राज्य की राजधानी, और बहुत सारे प्रमुख शहरों में उसी तौर तारीके से अपना शक्ति केंद्र स्थापित कर लिया है. कहते हैं इसका विरोधी भी, चाहे वो किसी भी विचारधारा का हो, इसके पास आने से इस क्लब का हिस्सा बन जाता है. मौजूदा केंद्र सरकार भी बहुत अथक प्रयास कर रही है, इस शक्ति के केंद्र को बदलने को. दोनों ओर से निरंतर एक दूसरे में खींचातानी चलती रहती है, कभी कोई हावी होता है तो कभी कोई पीछे होता है. ये तोड़मरोड़, उठापटक चलती रहेगी.

लुटियंस क्लब और आम आदमी की दूरी घटे

लेकिन इस बीच जो कोरोना की त्रासदी हुई है- वो ध्यान देने योग्य हैै. उसने हर किसी को सोचने को मजबूर कर दिया है. चाहे वो सत्ताधारी हो, या आम जनता, इसने सबको परेशान कर दिया है.

आम आदमी की हमेशा से ही महत्वाकांक्षा रही है, लुटियंस वाले क्षेत्र को नजदीक से देखने की. इस त्रासदी में जब हमें क्वारंटीन करने को जगह सीमित है, क्यों नहीं खाली पड़े हर राज्य के लुटियंस टाइप वाले बंगलों, बड़े-बड़े क्लबों को, सर्किट हाउस को अस्थायी क्वारंटीन सेंटर में तब्दील कर दें. इससे कई फायदे होंगे-

  • पहला- मरीज को स्वास्थ्य लाभ
  • दूसरा- मध्यम और निम्न वर्ग को अपनी सरकार में भरोसा
  • तीसरा- रायसीना की पहाड़ी / लुटियंस क्लब और आम आदमी के बीच की दूरी घटेगी
कोरोना त्रासदी के दौरान लाखों मजदूरों को पैदल ही सैंकड़ों मील अपने गांव जाने को मजबूर होना पड़ा. इसके कई कारण हो सकते हैं. इस विषय पर अभी चर्चा करना उतना उचित नहीं होगा. आज मजदूर वर्ग में कोरोना और अपने भविष्य को लेकर निराशा है. इस वक्त सरकार का हर कदम एक आशा की किरण की तरह प्रतीत होगा.

केंद्र और हर राज्य सरकार इस त्रासदी को लेकर अथक प्रयास कर रही है, कोरोना के प्रभाव को कम करने का. अगर महत्वपूर्ण शहर के सेंट्रल विस्टा में, जहां-जहां मुमकिन है, खाली पड़ी जगहों और क्लबों को अस्थायी क्वारंटीन में तब्दील कर दिया जाए तो, सरकार के पास लोगों को रखने के लिए जगह की कमी नहीं होगी.

आने वाले कल में ये मजदूर वर्ग, शहर में रहे या अपने गांव जाने का मन बना ले, लेकिन सरकार के इस तरह के छोटे-छोटे प्रयासों से एक सकारात्मक सोच का प्रवाह होगा.

(हेमंत झा स्वतंत्र पत्रकार हैं और समसामयिक विषयों पर लिखते हैं. लेख में उनके अपने विचार हैं जिनसे क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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