ADVERTISEMENTREMOVE AD

नागराज मंजुले की 'झुंड' बताती है कि दलित-बहुजन पर फिल्में कैसे बनाई जानी चाहिए

Jhund फिल्म हिंदी सिनेमा के तमाम फिल्मकारों के लिए एक उदाहरण है कि बहुजन की कहानी को परदे पर कैसे उतारा जा सकता है

Updated
ब्लॉग
4 min read
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

कई साल पहले एक फिल्म प्रोडक्शन हाउस ने फेसबुक पर कास्टिंग कॉल को शेयर किया था जिसमें वह लोग ‘ऐसे एक्टर की तलाश कर रहे थे जो दलित जैसा दिखता हो.’ अब ‘दलित जैसा दिखना’ क्या होता है, यह पूछा जा सकता है. इसका जवाब फिल्म वाले खुद ही दे देते हैं. 2021 की फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ का पोस्टर इस सवाल का जवाब ही लगता है. पोस्टर में रिचा चड्ढा मैली कुचैली हालत में झाड़ू पकड़े दिखाई गई थीं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

यह फिल्म मायावती (Mayawati) की जिंदगी से प्रेरित बताई गई थी. हिंदी सिनेमा वालों के लिए दलित बहुजन की तथाकथित इमेज यही है. पीड़ित, दबी-कुचली, एक आयामी. लेकिन एक फिल्म ऐसी है जो फन फिल्म है. जिंदगी का सेलिब्रेशन. उम्मीदों से भरी हुई. नागराज मंजुले की नई फिल्म ‘झुंड’, नाम से अलहदा. झुंड से अलग. हिंदी की उनकी पहली फिल्म. कहानी दलित बहुजन की जरूर है लेकिन उसमें कैरेक्टर्स कैरिकेचर्स नहीं. अपने विक्टिमहुड में डूबे हुए नहीं.

दलित रिप्रेंजेटेशन है ही नहीं

यूं मुख्यधारा का हिंदी सिनेमा में दलित बहुजन का रिप्रेजेंटेशन है ही नहीं. न फिल्मों में, न कैरेक्टर्स में और न ही कोई ऐक्टर. पिछले करीब 105 साल की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अब तक कोई दलित स्टार नहीं है. 2015 में द हिंदू की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि 2013 और 2014 की करीब 300 बॉलिवुड फिल्मों में बैकवर्ड क्लास के सिर्फ छह मुख्य किरदार थे. आदिवासी किरदार इन दो सालों में सिर्फ दो थे. दूसरी तरफ अपर कास्ट हिंदू किरदार 131 थे.

इसका एक दूसरा पहलू भी है. ज्यादातर हिंदी सिनेमा में दलित बहुजन किरदारों में अपर कास्ट के अभिनेता ही छाए रहते हैं.
0

जैसे 2011 की ‘आरक्षण’ में दीपक कुमार के रोल में सैफ अली, 2015 की ‘माझी’ में दशरथ माझी के रोल में नवाजुद्दीन सिद्दीकी, 2017 की ‘मुक्काबाज’ में संजय कुमर के कैरेक्टर में रवि किशन, 2019 की ‘आर्टिकल 15’ में निशाद के रोल में जीशान अय्यूब और अभी हाल ही में ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ में तारा रूपराम के रोल में रिचा चड्ढा.

अब यह कहने की खास जरूरत नहीं कि इनमें से किसी भी रोल के लिए किसी दलित अभिनेता को कास्ट करने की कोई जरूरत महसूस नहीं की गई. दरअसल हिंदी सिनेमा में दलित ऐक्टर्स लगभग नदारद हैं. सिवाय, कुछेक मामलों में, जिनमें कलाकारों को कोई खास पहचान नहीं मिल पाई है. यानी सवर्ण फिल्मकार जिस जागरूकता का ढिंढोरा पीटा करते हैं, उसकी पोल पट्टी खुल जाती है. उनके लिए प्रतिनिधित्व की बात कोई मायने नहीं रखती.

बहुजन कैरेक्टर्स एक आयामी, दबे-कुचले ही

और, जिन किरदारों को सिनेमा के परदे पर रचा भी जाता है, उनमें फिल्मकार की अपर कास्ट गेज ही बनी रहती है.

यानी सवर्ण का अपना नजरिया ही किरदारों को गढ़ता है. इसीलिए दलित नरेटिव उत्पीड़न और संघर्ष तक ही सीमित रहते हैं. हिंदी सिनेमा में शुरुआत से ही. जैसे 1936 की ‘अछूत कन्या’ और 1940 की ‘अछूत’. इसके बाद दलित बहुजन की छवि स्टीरियोटिपिकल ही रही.

1970-1980 में समानांतर और प्रगतिशील सिनेमा में दलित बहुजन समाज की दयनीयता और क्रूर सामाजिक परिस्थितियां फिल्मों के नेरेटिव्स पर हावी रहे.

जैसे ‘आक्रोश’ (1980) का लहनया भीखू अपनी तकलीफों से निजात पाने का एक ही रास्ता तलाशता है, खुद का विनाश. ‘सदगति’ (1981) का दुखी भूख, लाचारी और थकान से मर जाता है लेकिन जमींदार के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाता. ‘पार’ (1984) का नौरंगिया गांव की मुश्किल जिंदगी को छोड़कर जाना भी चाहे तो नहीं जा सकता.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘झुंड’ जिंदगी का जश्न है

यही वजह है कि नागराज मंजुले की फिल्म ‘झुंड’ एक बेहतरीन फिल्म बनकर उभरती है. मेनस्ट्रीम हिंदी कमर्शियल सिनेमा का उनका यह प्रयोग बहुत खूबसूरती से एंटी कास्ट एस्थेटिक्स रचता है. यह फिल्म हिंदी सिनेमा के तमाम फिल्मकारों के लिए एक उदाहरण है कि बहुजन की कहानी को परदे पर कैसे उतारा जा सकता है. चूंकि फिल्म के बहुजन कैरेक्टर्स समाज में हाशिए पर पड़े जरूर हैं लेकिन बेरंग या बदरंग नहीं. फिल्म उन्हें डीह्यूमनाइज नहीं करती. उसमें झोपड़पट्टी तो है लेकिन कैमरा का काम वहां पसरी गंदगी को दिखाना नहीं है.

वहां पसरे रंग दिखाना है, कैरेक्टर्स के रंग. कोई कपड़े धो रहा है, कोई बैंड की बेसुरी धुन पर गा रहा है, नाई अपना काम कर रहा है. जिंदगी जैसी है, वैसी है. फिल्मकार किसी कैरेक्टर के लिए सेवियर का काम नहीं करता कि देखो, इनकी जिंदगी बदलने का बीड़ा हमने उठाया है. उसकी एजेंसी छीनने की उसकी कोई कोशिश नहीं है. न ही वह कहीं भाषण देता है. सिनेमा में नुमाइंदिगी यही होती है.

खास बात यह है कि अमिताभ बच्चन जैसे सितारे की हेरारकी फिल्म की कहानी को दो हिस्सों में नहीं बांटती. बल्कि हेरारकी तोड़ती है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

अमिताभ बच्चन की आदमकद छवि कहानी में घुली-मिली है, झोपड़ पट्टी के दलित लड़के-लड़कियों के झुंड में घुला मिला हैं. जब हम जिंदगी के जश्न की बात करते हैं तो फिल्म का वह सीन याद आता है, जहां अंबेडकर जयंती पर जुलूस निकल रहा है. वह फिल्म का बेहतरीन हिस्सा है. अंबेडकर को जो कम्यूनिटी ओन करती है, वह अपनी तरह से उनका जन्मदिन मना रही है. फिर जुलूस में अंबेडकर की तस्वीर के आगे विजय बोराडे बने अमिताभ बच्चन नतमस्तक होते हैं. किसी मेनस्ट्रीम फिल्म में ऐसा सीन देखने को नहीं मिलता.

दरअसल बहुजन समाज भारत के पॉपुलर कल्चर में कभी ठीक से अटता नहीं. अगर कभी अटाया भी जाता है तो अपनी सैद्धांतिक विचारधारा को पुख्ता करने के लिए जोकि ब्राह्मणवादी और जातिवादी है. और जब ‘झुंड’ या इससे पहले ‘काला’ जैसी फिल्में बनाई जाती हैं तो उस समाज की सामाजिक राजनैतिक एजेंसी को स्पष्ट करती हैं.

पब्लिक स्पेस में उनकी मौजूदगी को साबित करती हैं. और इससे कला और सिनेमा में हमारी आस्था बनी रहती है. हां, डर इस बात का है कि इंडस्ट्री कहीं इसे फार्मूला न बना दे. यह एक सुविधाजनक फॉर्मूला है. जैसे अमेरिकी सीरिज़ डियर व्हाइट पीपुल के कई सीजन्स आ चुके हैं. यह नस्लभेद की बात करता है लेकिन धीरे धीरे फार्मूला बना दिया गया है. नागराज मंजुले की पॉपुलर फिल्म ‘सैराट’ पर करण जौहर ‘धड़क’ बनाते हैं और उसे फील-गुड कंज्यूमर प्रोडक्ट बना देते हैं. पर झुंड जैसी फिल्में कमर्शियल प्रोडक्ट नहीं, आइना है. उस भारत का आइना, जिसके बारे में ‘झुंड’ का एक कैरेक्टर पूछता है, भारत मतलब? एक भारत वह भी है जिसका आइना झुंड खुद है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×