झारखंड में इन दिनों मानसिक स्वास्थ्य की समस्या कोरोना संकट से भी बदतर हो गई है. ऐसे तो पिछले कुछ सालों से ही सूबे में सुसाइड का ग्राफ बढ़ा है, लेकिन कोरोनाकाल में अब तक राज्य में 1253 लोगों की आत्महत्या करने की रिपोर्ट है. पिछले साल हर दिन राज्य में आत्महत्या की दर 4.5 थी. चालू वर्ष में यह दर 7 पार कर गई है. पिछले साल प्रतिमाह ऐसी घटनाओं में 137 लोगों की जान जा रही थी. इस बार अभी तक के आंकड़ों के मुताबिक प्रतिमाह औसतन 210 लोग ऐसी अप्रिय घटनाओं के शिकार हो रहे हैं.
मनोचिकित्सकों की मानें तो ऐसी घटनाओं के पीछे गृह कलह के अलावा आर्थिक तंगी भी बड़ी वजह है. कोरोनाकाल में रोजगार की समस्या बड़ा फैक्टर बनकर सामने आई है. खनिज सम्पदा से घिरे औद्योगिक जिले धनबाद, जमशेदपुर, बोकारो और रांची में इन चंद महीनों में आर्थिक तंगी के कारण खुदकुशी की घटनाएं बढ़ी हैं.
धनबाद को लोग कोयले की राजधानी के रूप में जानते हैं. राज्य के विभिन्न इलाकों एवं देश के अन्य प्रांतों से लोग यहां रोजगार के लिए आते हैं. सरकारी आंकड़ों पर नजर दौड़ाए तो राज्य के चार औद्योगिक शहरों धनबाद, जमशेदपुर, बोकारो एवं राजधानी रांची में लॉकडाउन के पहला 118 दिनों में 336 लोगों की मौत हुई हैं. इनमें कोयला नगरी धनबाद में सर्वाधिक 113, इस्पात नगरी जमशेदपुर में 97, स्टील सिटी बोकारो में 45 और राज्य की राजधानी रांची में 81 लोग शामिल हैं. आर्थिक तंगी के कारण धनबाद में 49 प्रतिशत, जबकि जमशेदपुर में 25 प्रतिशत लोग ऐसी घटनाओं के शिकार हुए हैं.
रांची में दस प्रतिशत मौत के मामलों में आर्थिक कारण रहे. पिछले साल आर्थिक वजह से खुदकुशी की घटनाएं जहां 16 प्रतिशत रही वही इस वर्ष यह दर दुगुनी हो गई है. धनबाद कोलबेल्ट में तो यह 49 प्रतिशत से अधिक है. कोरोनाकाल में औद्योगिक और शहरी क्षेत्रों में ऐसी घटनाएं जब बढ़ी हैं, तब ग्रामीण और आदिवासी जिलों में अपेक्षाकृत कम मामले दर्ज हुए हैं, जो राहत की खबर है. गुमला, लोहरदगा और सिमडेगा जैसे ट्राइबल जिलों में कोरोनाकाल के पहला तीन माह में ऐसी घटनाएं 13, 16 और 12 ही घटित हुई हैं.
दरअसल, कोरोना अवधि में झारखंड में हुई ऐसी घटनाओं ने लोगों को सकते में डाल दिया है. वर्ष 2018 में राज्य में 1317 लोगों ने खुदकुशी की थी. साल 2019 में यह ग्राफ बढ़कर 1646 हो गया और चालू वर्ष में यह आंकड़ा तेजी से बढ़ रहा है. अब तक के छह माह में 1253 लोग ऐसी अप्रिय घटनाओं के शिकार हो चुके हैं. पिछले चार माह में अर्थात अप्रैल से जुलाई के बीच राज्य में 40 साल से कम उम्र के 450 लोग ऐसी त्रासदपूर्ण घटनाओं के शिकार हुए हैं. इस उम्र के मरनेवालों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है.
मशहूर मनोचिकित्सक न्यूरोसाइकियाट्री के डॉ ए चक्रवर्ती का मानना है कि युवा वर्ग विशेष कर 40 साल से कम उम्र के लोग रोजगार के लिए एंग्जायटी के शिकार हैं. भविष्य को लेकर सशंकित यह पीढ़ी ऐसी राह तलाश रही है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है. हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि गृह कलह भी इसके लिए एक बड़ा फैक्टर है.
आत्महत्या की घटनाएं
आत्महत्या की कुछ घटनाओं पर नजर दौड़ाने पर पता चलता है कि हर वर्ग के लोग इस सूची में शामिल हैं. धनबाद में जहां एक बीजेपी नेत्री ने सेनिटाइजर और मोबिल पीकर जान दे दी, वहीं जमशेदपुर में पिता-पुत्र ने ट्रेन से कूदकर अपना जीवन खत्म कर दिया. रांची में जहां 28 वर्षीय पिता ने दो बच्चों के साथ कुंए में कूदकर आत्महत्या कर ली, वहीं जमशेदपुर में एक पुलिस अधिकारी ने खुद को गोली मार ली. जान देने की इस होड़ की भयावहता से रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
कुछ दिन पहले धनबाद जिले के जोड़ापोखर क्षेत्र के एक परिवार के गृहस्वामी ने अपनी पत्नी और तेरह माह की बच्ची की हत्या कर खुद भी जान दे दी. इसी जिले के बनियाहीर इलाके में एक 32 वर्षीया विवाहिता फांसी पर लटक गई. बगल में उसकी 12 साल की बेटी का शव पड़ा था. कतरास कोयलांचल के भगत मुहल्ला में पहले पति ने आर्थिक तंगी के कारण खुदकुशी कर ली. मृतक की तेरहवीं के दिन पति की राह पर पत्नी भी चल पड़ी. रामगढ़ में विजया बैंक की असिस्टेंट मैनेजर भी अपने ही आवास में लटकती पाई गई. पूर्व में घटित हजारीबाग में आधा दर्जन लोगों की सनसनीखेज आत्महत्या और तोपचांची में पुलिस इंस्पेक्टर की खुदकुशी भी झारखंड शासन के लिए कभी चुनौती बन चुकी है, लेकिन कोरोनाकाल ने ये सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.
सूबे में लगातार बढ़ रही आत्महत्या के कारणों पर मंथन चल रहा है. सोनोत ट्राइबल नामक संस्था का मानना है कि कम आयवालों में आत्महत्या की प्रवृत्ति अधिक देखी जा रही है. कोरोना के दौर में लॉकडाउन के कारण जब लोगों का रोजगार जाने लगा तब ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं. झारखंड के आठ लाख के आसपास युवा देश के अन्य प्रांतों में काम करते हैं. लॉकडाउन के कारण वे यहां लौट आए हैं. लॉकडाउन ने उन्हें सीधे बेरोजगार बना दिया है.
रांची स्थित केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान के डॉ एसके मंडल का कहना है कि लॉकडाउन के कारण लंबे समय तक लोग एकसाथ रहे, इसलिए कलह बढ़ा. खुदकुशी के पीछे यह भी एक वजह है. राजेन्द्र चिकित्सा विज्ञान संस्थान के साइकियाट्री प्रमुख डॉ एके बखला का मानना है कि युवा भविष्य को लेकर अत्यधिक संवेदनशील हो गए हैं. यह भी एक बड़ा फैक्टर है.
बेरोजगारी बड़ी समस्या; 8.5 लाख रजिस्ट्रर्ड बेरोजगारों में पीएचडी और इंजीनियर भी
राज्य सरकार लोगों को रोजगार देने के लिए लगातार मुहिम चला रही है. कृषि सेक्टर पर खास ध्यान दिया जा रहा है. इसके अलावा बेरोजगारों को पंजीकृत कर उन्हें रोजगार देने की कोशिश भी चल रही है.
अभी हाल में सूबे के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने स्टील ऑथोरिटी के अध्यक्ष से मुलाकात के समय उनसे आग्रह किया था कि कम्पनी ऐसी व्यवस्था करें कि स्थानीय बेरोजगारों को रोजगार मिले. श्रम विभाग ने तो बाकायदा इसके लिए एक पोर्टल खोल दिया है.
राज्य सरकार के श्रम विभाग के आंकड़ों पर भरोसा करें तो अभी हाल के दिनों में राज्य में 8,40,225 लोगों ने बेरोजगार होने का रजिस्ट्रेशन सरकारी पोर्टल पर कराया है. चालू वर्ष के कोविड के प्रभाव के समय अर्थात अप्रैल से सितंबर अब तक के बीच 1,02,552 बेरोजगारों ने अपना निबंधन कराया है तथा तुरंत रोजगार मुहैया कराने की गुजारिश की है. इसमें पीएचडी, पीजी और तकनीकी डिग्रीधारी अभ्यर्थी भी शामिल हैं.
अप्रैल में 12,832 लोगों ने रोजगार पोर्टल की ओर रूख किया, जिसमें 7,655 पुरुष और 5,177 महिला हैं. सितंबर में अब तक छह हजार बेरोजगार सूचीबद्ध हो चुके हैं, जिसमें 4,379 पुरूष व 2,287 महिलाएं भी हैं.
मुश्किलों से मुकाबला करने वाले राज्य में खुदुकशी
झारखंड का यह इलाका कभी चैन और सुकून देता था. देश-दुनिया के लोग यहां मानसिक-राहत के लिए पहुंचते थे. आजादी के पहले ईटी मैक्लुस्की साहब पहुंचे तो मैक्लुस्कीगंज नगर को ही बसा दिया. पांच सौ से अधिक एंग्लो इंडियन परिवार की यह कॉलोनी 'मिनी लंदन' के रूप में मशहूर हुई. झारखंड आदिवासी बहुल राज्य है. सन 2000 के पहले यह इलाका अविभाजित बिहार का हिस्सा था. अंग्रेजों के समय से विदेशों से भी लोग राहत और चैन के लिए इस इलाके में आकर ठहरते थे. जब पत्नी , बेटी और एकमात्र बेटे की असामयिक मौत से कविगुरू रबींद्रनाथ टैगोर को मानसिक आघात पहुंचा तब वे भी रांची के ही मोहराबादी इलाके में कुछ समय बिताए थे, ताकि सुकून मिल सके. यही वजह है कि मोहराबादी पहाड़ का नामकरण भी बाद में टैगोर हिल पड़ गया.
चैन और सुकून का इलाका समझकर ही अंग्रेजों ने वर्ष 1918 में यहां रांची के कांके में मनोचिकित्सा अस्पताल की स्थापना की. मानसिक शांति और नई ऊर्जा के लिए लोग कांके हिल की ओर रूख करते थे. उस समय इसका नाम यूरोपियन लूनाटिक अल्जाइम था. बाद में यह केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान अर्थात सीआईपी बना. उर्दू के मशहूर शायर मज़ाज़ और बांग्लादेश के राष्ट्रकवि काजी नजरूल इस्लाम भी इस संस्थान में सुकूं की तलाश में रह चुके हैं. वर्ष 1925 से 1929 के बीच अंग्रेजों द्वारा आयोजित खेलकूद प्रतियोगिताओं की 29 ट्रॉफियां कभी सीआईपी ने अपने खाते में कर ली थी. मानसिक शांति की तलाश में आए लोगों की बदौलत संस्थान ने यह उपलब्धि हासिल की थी.
आज चैन और राहत की इस धरती पर जिंदगी ही बड़ा सवाल बन गई है, यह न सिर्फ दुःखद बल्कि दुर्भाग्यपूर्ण है. सीआईपी का दावा है कि कोरोना अवधि में तकरीबन बारह हजार लोग मौत की राह से बचने के लिए मनोचिकित्सा संस्थान से परामर्श मांग चुके हैं. हजारों लोग अभी भी ऑनलाइन परामर्श मांग रहे हैं. यह आंकड़ा रोज बढ़ रहा है. चैन और मानसिक राहत की धरती की यह बदली हुई तस्वीर डरावनी तो है ही साथ ही कई सवाल भी खड़ी करती है. सरकार, समाज और जिम्मेवार लोगों को सवालों का जवाब तलाशना होगा. आखिर सुकून की धरती पर अजीब सी बेचैनी क्यों?
आंकड़े: पुलिस विभाग, झारखंड, सीआईपी, रांची, रिनपास, रांची
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