हमारे अंदर का बच्चा बड़ा नहीं होता है. बचपन मे खुद पर बीती बात को हम भूल नहीं पाते और वही कड़वी, अच्छी और कई संवेदनाओं से जुड़ी बातें हमारा निर्माण करती हैं, या अगर यूं कहें कि यही यादें या घटनाएं हम पर हावी रहती हैं. अगर बचपन की यादों में कड़वाहट, घिनौनापन या किसी अन्य प्रकार की भी नकारात्मक बातें हों तो... वो हमें विक्टिमहुड की ओर लेकर जाती हैं. अगर सुनहरी,रंगीन और बेहद हसीन याद हो तो नॉस्टेलिजिक बना देती है.
दोंनो ही परिस्थितियों में जो हमें होना चाहिए वो नहीं होते हैं. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है...ये विक्टिमहुड ही वो सीढ़ी है जिससे होकर हम पूर्णता की ओर जाते हैं. इन दोनों ही अवस्थाओं में हम एक अलग तरीके की बेचैनी से गुजरते हैं, एक बदहवासी में खुद को खोने लगते हैं, लेकिन ये बदहवासी कोई मामूली चीज नहीं होती है. ये बदहवासी एक "इल्हामी दस्तक" होती है, बशर्ते कि इसको पहचानने की हमारी ताकत हो . मैंने इसे “इल्हामी दस्तक” इसलिए कहा क्योंकि इस दोहे पर ध्यान गया-
मोको कहां ढूंढे रे बन्दे ,मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ मे ना मूरत में ,ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में ,ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बन्दे ,मैं तो तेरे पास में
ना मैं जप में ना मैं तप में ,ना मैं बरत उपास में
ना मैं किरिया करम में रहता, नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में ,ना ब्रह्याण्ड आकाश में
ना मैं प्रकुति प्रवार गुफा में ,नहिं स्वांसों की स्वांस में
खोजि होए तुरत मिल जाऊं ,इक पल की तालास में
कहत कबीर सुनो भई साधो ,मैं तो हूं विश्वास में
इसकी आखिरी पंक्ति सारी बेचैनी का पटाक्षेप कर देती है, यहां ईश्वर को विश्वास में बताया गया है. ईश्वर इंसान के भीतर है और भीतर की सच्चाई श्वास है. वो श्वास जो हम विश्वास के साथ लेते हैं, इसीलिए इसे विश्वास कहते हैं. यही श्वास ईश्वर है. जब हम खुद को विक्टिम समझते हैं तब एक मानसिक हिंसा स्वयं पर करते हैं और दूसरा अपने आस-पास के समाज पर. लेकिन अगर किसी इंसान के पास संवेदनशीलता का धन है तो इल्हाम की उत्पति होती है. मुझे ऐसा लगता है विक्टिमहुड का ही दूसरा पहलू इल्हाम है, जिससे संबंधित व्यक्ति को गुजरना ही होता है. ज्यों ही हम इल्हाम की ओर गमन करते हैं, तभी हमारी श्वास में विश्वास का आगमन होता है तो उस विक्टिमहुड का खात्मा होता है और हमें सामने वाले की तकलीफ का एहसास होता है. इसी विश्वास के संचार के साथ त्रिभंग अपनी यात्रा पूर्ण कर लेती है.
नोट: (इल्हाम एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ देववाणी, ईश्वरीय वाणी,आत्मा की आवाज या अंतर्दृष्टि से लिया जाता है.)
त्रिभंग को मैं सिर्फ एक मूवी या चलचित्र या कुछ और नहीं मानती बल्कि मैं इसे एक धारा मानती हूं जो भी इसे देखे उसके अंदर ये खुद बहने लगे.
कहानी की हल्की सी झलक
दरअसल ये कहानी अस्थिर से स्थिर होने की कहानी है. अज्ञात से ज्ञात को प्राप्त करने की कहानी है. ये भी कह सकते हैं कि अपूर्ण से पूर्ण बनने की भी कहानी है. ये लक्ष्य ये फिल्म तीन बिल्कुल अलग महिलाओं के जरिए प्राप्त करती है. इन तीन महिलाओं में पहला क्रम आता है नयनतारा आप्टे का जिसका रोल तन्वी आजमी ने किया है, दूसरी हैं अनुराधा आप्टे जो कि नयनतारा आप्टे की बेटी है और इसे प्ले किया है काजोल ने, तीसरी हैं अनुराधा आप्टे की बेटी माशा जिसे मिथिला पालकर ने निभाया है.
नयनतारा आप्टे को प्रख्यात लेखिका के रूप में पेश किया गया है. अपने लिखने के पैशन की वजह से नयनतारा को जीवन मे भारी उतार-चढ़ाव से गुजरना पड़ता है. इसमें नयन का विवाह टूटना, विवाह के बाद कई ओपन रिलेशनशिप में होना और इन सारी परिस्थितियों के कारण विवाह से पैदा हुए बच्चों के नजर में एक खलनायिका बन जाना शामिल है.
जब फिल्म शुरू होती है तो नयनतारा अपनी आत्मकथा लिखवा रही होती हैं. आत्मकथा के दौरान अपने जीवन से जुड़ी हर घटना का वर्णन विस्तार से करती हैं. घटना के साथ-साथ अपने बच्चों द्वारा उन्हें अपने जीवन से निकाल देने की पीड़ा का भाव आता है और इस पीड़ा को बयां करते समय कुछ संवाद पर हमारी सीख ठहर जाती है जैसे- वो कहती है कि,
“कभी कभी मैं सोचती हूं कि काश ये (अर्थात इनके बच्चे अनु और रॉबिन्द्रों) मेरे किरदार होते तो मैं इन्हें अपनी मनचाही दिशा में ले जाती. फिर वो मुझसे प्यार करते, काश कि मैं आपसी रिश्तों की कड़वाहट भुला सकती.”
अपनी आत्मकथा में अपने बच्चों को भी अपने बारे में विचार रखने का मौका देते हुए वो कहती है जो कि काफी जरूरी है-
हमारी याददाश्त कितनी सेलेक्टिव होती है न… हमारे ऐब छिपाती है और हमारी अच्छाइयों को लार्जर दैन लाइफ बना देती हैं. इसलिए मैं अपनी आत्मकथा में अपने बच्चों को भी मौका देना चाहती हूं, मुझे जी भर के कोसने के लिए.
अनुराधा के जरिए कहानी कहती है पूरी बात
ये कहानी जरूर तीन पीढ़ियों की है, लेकिन सच ये है कि ये कहानी अपनी पूरी बात अनुराधा के जरिए कहती है. अनुराधा आप्टे जिसका रोल काजोल कर रही हैं वो चरित्र ऐसा है कि एंट्री के साथ ही पूरी कहानी का नेतृत्व अपने हाथों में ले लेती है और मैं यहां ये विशेष तौर पर मेंशन करना चाहूंगी कि सिर्फ नेतृत्व नहीं लेती बल्कि पूरी तरह योग्यतम उद्घोष के साथ नेतृत्व ले चुकी होती है. जो बाकी चरित्र है वो इस कैरेक्टर को डिफाइन करने के लिए है. अगर नयनतारा आप्टे नहीं होती तो अनुराधा आप्टे जो कि अपनी मां से नफरत करती है और बहुत ही मुखर है वो नहीं बन पाती और अगर… माशा अनुराधा की बेटी नहीं होती तो फिर अनुराधा का चरित्र परिभाषित नहीं हो पाता, क्योंकि माशा ने अपने लिए एक सामान्य जीवन को चुना. इस सामान्य जीवन को चुनने का कारण उनकी मां की असमान्य जीवन था. जिसके कारण जब माशा स्कूल में थी तो उसे अपने शिक्षक और स्कूल के छात्रों के सामने शर्मिंदा होना पड़ता था.
मैं फिर से अनुराधा के चरित्र पर आती हूं. अनुराधा अपने जीवन मे होने वाले हर बुरी चीज के लिए अपनी मां नयन को जिम्मेदार मानती हैं जो कि एक हद तक सही भी है.
मैंने शुरुआत में ही इस बात को कहा है कि अपनी मां से नफरत करने वाली इस चरित्र की बेचैनी, गुस्सा और बदहवासी ही वो इल्हामी दस्तक है, ज्ञान और एहसास की वो सीढ़ी है जिस पर चढ़कर कोई भी इंसान अपने जीवन को पूरे तरीके से और भरपूर जी सकता है. मैंने इसे इल्हामी इसलिए कहा क्योंकि इल्हाम वो ज्ञान है जो अत्यंत रूहानी और ईश्वर के करीब है…और हमारा ज्ञान और एहसास उस वक्त इल्हामी हो जाता है जब हम अपने तकलीफ से निकलकर दूसरे की तकलीफ को महसूस करना शुरू कर देते हैं. अनु के लिए इस इल्हामी यात्रा को तय करने का जरिया बनता है ओडिसी नृत्य और इससे उसका परिचय करवाने वाले भाष्कर रैना नामक एक बुद्धिजीवी कलाकार...इन भाष्कर रैना की वजह से दो नए लोगों का जन्म होता है एक अनुराधा आप्टे और दूसरा अनुराधा का भाई रौबीन्द्रो. रौबिन्द्रो ने बिना कोई पाखण्ड या ताम-झाम के आध्यात्मिक दुनिया को अपना लिया. इस बात का जिक्र करते हुए फिल्म में अनुराधा कहती है..
रैना हमें कला प्रदर्शनियों और संगीत के कार्यक्रम में ले जाते थे. एक दिन हम केलुचरण मोहपात्रा के ओडिसी नृत्य को देखने गए. इतना सुंदर नृत्य कर रहे थे कि हम स्तब्ध रह गए. रौबीन्द्रो को उसके कृष्ण भगवान मिल गए और मैं कृष्ण प्रेमी बन गई... राधा की तरह.
रौबीन्द्रो का जीवन के उतार-चढ़ाव के कारण आध्यात्मिक दुनिया को अपनाना और अनुराधा का ओडिसी के प्रति समर्पण कमोबेश उसी इल्हामी दस्तक का परिणाम था. रौबिन्द्रो का किरदार वैभव तत्ववादी ने बखूबी निभाया है.
गौर करेंगे तो समझ मे आएगा कि जिस किरदार में गुस्सा, खीज हो उसमें एक अलग ही प्रकार की गतिशीलता होती है और उसकी यही गतिशीलता जाने कौन-कौन सी नई और अलग दुनिया से परिचय करवा दे, अनुराधा के किरदार के साथ इस बात का एहसास होता है.
अनुराधा ने तीनों औरतों के चरित्र को बड़ी ही आसान और कलात्मक भाषा में समझा दिया है...इस संवाद के माध्यम से…
मुझे लगता है कि नयन सोचती है, लेकिन किसी के बारे में नहीं, अपने किरदारों को लेकर वो सोचती है. वो अभंग की तरह है... अजीब है, पर जीनियस है तो अजीब होगी ही… मेरी माशा समभंग, पूरी तरह संतुलित और मैं टेढ़ी-मेढ़ी, क्रेजी त्रिभंगम.
अभंग मुद्रा- अभंग नृत्य की मुद्रा में शरीर का एक हिस्सा एक तरफ झुका होता है.
समभंग मुद्रा - समभंग मुद्रा में शरीर एकाकार रूप में संतुलित रहता है
त्रिभंग मुद्रा- त्रिभंग मुद्रा में शरीर के तीन अंगों को तीन दिशाओं में ले जाते हुए मुद्रा बनाया जाता है.
पता नहीं क्यों लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि तन्वी आजमी की आंखें, त्रिभंग की नयनतारा और उसका किरदार कहीं-कहीं-कहीं एक दूसरे से जुड़े हैं. वृद्ध नयनतारा की आंखें दर्शकों से सबसे ज्यादा बातें करती हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि लगभग प्रत्येक व्यक्ति इससे सहमत होगा कि तन्वी आजमी की आंखे अपने हर किरदार में बोलती हैं, लेकिन इस किरदार के लिए इस बात को विशेष तौर पर रेखांकित करना एकदम से जरूरी हो जाता है.
मैं यहां कुणाल रॉय कपूर के बारे में बताना चाहूंगी, जिन्होंने मिलन उपाध्याय का चरित्र निभाया है. इस किरदार को बिल्कुल अनुराधा के किरदार के सामने लाकर खड़ा कर दिया है. ये दोनों आमने-सामने थे, इसलिए इन दोनों का किरदार पूरी मजबूती के साथ उभरकर दर्शकों के सामने आता है.
शानदार प्रस्तुति,अद्भुत प्रवाह,सटीक कास्टिंग,सुंदर छायांकन के साथ यह फिल्म जबरदस्त है. रेणुका शहाणे का लेखन और निर्देशन कमाल का है. सारी बारीकियों का ध्यान रखा गया है. रेणुका शहाणे को इस नीले रंग में लिपटी हुई कहानी के लिए सैल्यूट करती हूं. निर्देशन और लेखन की दुनिया में उनका भव्य स्वागत है.
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