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BCCI पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से क्या कुछ बदल गया है

सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के साथ ही भारतीय क्रिकेट की सबसे लंबी कथा की पूरी स्क्रिप्ट तैयार हो गई है

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सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के साथ ही भारतीय क्रिकेट की सबसे लंबी कथा की पूरी स्क्रिप्ट तैयार हो गई है. न्याय के नजरिये से सबसे अजीब बात ये है कि लोढ़ा कमेटी की दो प्रमुख सिफारिशों को हल्का बनाने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने खुद के सुधारों को कम कर दिया. ये खुद में एक त्रासदी ही थी क्योंकि ऐसा करने के साथ ही कोर्ट ने जस्टिस लोढ़ा और उनके पैनल की कड़ी मेहनत को पहले की स्थिति में ला दिया.

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जिन दो महत्वपूर्ण सिफारिशों को कमजोर किया गया वो वही चीजें हैं, जिन्हें बीसीसीआई के पुराने बॉस चाहते थे- पावर

जो एक बात तय थी वो ये कि एक राज्य एक वोट की सिफारिश बाकियों के मुकाबले बड़ौदा और मुंबई जैसे पुराने पावर हाउस के दबदबे को खत्म कर देगी. तथ्य यही है कि बीसीसीआई की बैठकों में जो एक चीज होने जा रही है वो सिर्फ वोट है. इससे ज्यादा कुछ नहीं और न ही कुछ भी इससे कम. अगर फंड पहले की तरह ही बांटना था और रणजी टीमों को पहले की तरह ही मैदान में रखा जाना था, तो फिर वोट के अधिकार में कमी का असल में कोई मतलब नहीं है. बीसीसीआई के पुराने संविधान के अनुसार महाराष्ट्र में चार सदस्य थे. रोटेशन के आधार पर वोट देने का प्रस्ताव था. दुर्भाग्यवश कुछ निहित स्वार्थों ने ऐसा माहौल बनाया कि जैसे इससे देश के कुछ हिस्सों में क्रिकेट की समृद्ध विरासत खत्म हो गई होती.

बीसीसीआई में बदलाव लाने की एक महत्वपूर्ण वजह ये थी कि उसके संविधान में कुछ अहम अधिकारियों के कार्यकाल से जुड़े नियमों को छोड़कर 1929 से कोई बदलाव नहीं हुआ था. बीसीसीआई का संविधान उस वक्त तैयार किया गया था जब क्रिकेट कुछ गिने-चुने बड़े शहरों और राज्यों तक केंद्रित था. महाराष्ट्र और गुजरात को मिला सात वोट का अधिकार ये दिखाता है कि पहले के सालों में इस खेल की संरचना किस तरह की बनाई गई थी अब जबकि क्रिकेट देश के दूसरे हिस्सों में भी फल-फूल रहा है, तो ये महत्वपूर्ण हो जाता है कि बीसीसीआई के संविधान में भी ये चीज नजर आए लेकिन इस बदलाव के सामने बड़े ही सफलतापूर्ण तरीके से अवरोध खड़ा कर दिया गया.

पीछे के सालों में यहां तक कि क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया (सीसीआई) और कोलकाता के नेशनल क्रिकेट क्लब जैसे जाने-माने क्लब भी सदस्य के दौर पर शामिल किए गए थे. ये बीसीसीआई के अनिवार्य रूप से सिर्फ दिखावे वाले वोटर हैं, जिनका इस्तेमाल अपने लिए क्रिकेट की शक्तियां करती हैं. सौभाग्य से आदेश का ये एकमात्र अच्छा हिस्सा अब जारी नहीं रहेगा, जिसके तहत इन दो क्लबों की सदस्यता खत्म कर दी थी.

जबकि रेलवे सर्विसेज और यूनिवर्सिटीज जैसे संस्थागत सदस्य वोटर की हैसियत में बरकरार रहेंगे. इसका साफ मतलब यही है कि उस वक्त जिसकी सत्ता होगी, पिछले दरवाजे से बीसीसीआई में उसकी दखल बरकरार रहेगी. रेलवे और सर्विसेज खिलाड़ियों को नौकरियां देने वाली बहुत बड़ी संस्थाएं हैं, लेकिन क्या ये जरूरी है कि इनके पास वोट देने का अधिकार हो?

ये दोनों लंबे समय से घरेलू क्रिकेट का हिस्सा हैं लेकिन वोट के अधिकार और लगातार ग्रांट मिलने के बावजूद इन्होंने खिलाड़ियों को दी जाने वाली सुविधाओं में कोई बदलाव नहीं किया है. ठीक इसी तरह यूनिवर्सिटीज की कोई भी टीम घरेलू क्रिकेट में नहीं है. सिर्फ एक इंटर-यूनिवर्सिटी मुकाबला है, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं. अपने हक में कुछ वोट जुटाने की ये एक और कोशिश है.

कूलिंग पीरियड के प्रस्ताव में संशोधन

एक मायने में सुप्रीम कोर्ट लोढ़ा कमेटी के सुधारों की मूल भावना को बनाए रखा है, लेकिन एक सुधार में संशोधन किया गया है. यह है अधिकारियों से जुड़ा कूलिंग पीरियड का मामला जबकि यही बीसीसीआई प्रशासन की समस्या का सार है.

जस्टिस लोढ़ा की सिफारिश के तहत किसी भी स्तर पर सेवा के एक टर्म के बाद कूलिंग का प्रावधान था, जबकि सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश के मुताबिक दो टर्म के बाद कूलिंग की ये शर्त लागू होगी. जस्टिस लोढ़ा के सुधारों के पीछे मंशा ये थी कि बीसीसीआई प्रशासन और इसी तर्ज पर सभी खेल फेडरेशन शुद्ध प्रोफेशनलिज्म की राह पर बढ़ें. कूलिंग पीरियड मानद अधिकारियों के लिए था, जिनकी भूमिका पूरी व्यवस्था में नाममात्र की थी. वास्तविक शक्ति तो प्रबंधन की उस टीम के हाथों होती जिसकी अगुवाई सीईओ और प्रोफेशनल्स की टीम कर रही होती. कूलिंग पीरियड के नियमों में संशोधन से उन उम्मीदों को झटका लगा है.

भारतीय क्रिकेट और देश का खेल प्रशासन सामान्य तौर पर एक समय चक्र में फंस गया है. जस्टिस लोढ़ा के सुधार इसे वर्तमान में आगे बढ़ा पाते.

राज्य संघों पर अब भार

नए आदेश में एकमात्र बड़ी बात ये है कि सभी राज्य क्रिकेट संघ अब एक तय समय सीमा के भीतर संविधान को लागू करने के लिए बाध्य होंगे और उम्मीद इसी बात की है अब इस पर सख्ती से अमल शुरू हो जाना चाहिए. बीसीसीआई के पुराने क्षत्रपों के तमाम दावों के बावजूद हम सबने यही देखा है कि अधिकतर राज्यों के संघ गड़बड़ियों के शिकार हैं और यही असली मुश्किल है.

जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, असम, गोवा, हैदराबाद, मुंबई जैसे कुछ एसोसिएशन हैं, जो संबंधित हाईकोर्ट्स से छानबीन की प्रक्रिया भी झेल रहे हैं. ये तथ्य कुछ और नहीं, बल्कि अपने आप में पुराने, अपारदर्शी और मनमानी व्यवस्था के संकेत हैं. अब जबकि पूरी कहानी खत्म हो गई है, तो हमें ये भी उम्मीद करनी चाहिए कि कुछ फर्जी पत्रकारों की ओर से न्यूज पेपर्स में दिए गए लेटर बमों का भी अंत हो जाएगा और पिछले 18 महीनों में की गई सभी नियुक्तियां और लिए गए फैसलों को आखिरकार छोड़ा नहीं जाएगा.

इस आदेश से केवल ये हासिल हुआ है कि बीसीसीआई अपने कामकाज को बदलने की प्रक्रिया में काफी लंबा सफर तय कर चुका है और यहां से चीजें सिर्फ आगे बढ़ सकती हैं, पीछे उस दौर में नहीं जाएंगी, जब जवाबदेही जैसी कोई चीज नहीं थी. जिन दो प्रावधानों में बदलाव किया गया था मुमकिन है कि वो पुराने अधिकारियों की हठपूर्ण रवैये को देखते हुए संभव हुआ हो, लेकिन कुल मिलाकर ये बदलाव और उसके पीछे की मंशा भले के लिए है. अब उम्मीद है कि ये कई स्पोर्ट्स फेडरेशन्स में बदलाव की लहर का कारण बन जाए, जो कि बदलाव के लिए आंसू बहाने की जरूरत जैसा ही है.

(चंद्रेश नारायण क्रिकेट राइटर के रूप में टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस के साथ जुड़े रहे हैं, साथ ही वो आईसीसी के पूर्व मीडिया ऑफिसर और डेल्ही डेयरडेविल्स के मौजूदा मीडिया मैनेजर हैं. वो वर्ल्ड कप हीरोज के लेखक, क्रिकेट संपादकीय सलाहकार, प्रोफेसर और क्रिकेट टीवी कमेंटेटर भी हैं.)

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