आप अगर इसे किस्मत का फर्क समझते हैं, तो ठहरिए. ये किस्मत का नहीं, टीम का फर्क है. ये टीमों के प्रदर्शन का फर्क है, जिसकी बदौलत हिट कप्तान की टीम चारों खाने चित पड़ी है और चित कप्तान की टीम सुपरहिट साबित हुई है. पांच टेस्ट मैचों में 593 रन बनाने के बाद भी विराट कोहली की टीम को हार का सामना करना पड़ा. इंग्लैंड के कप्तान जो रूट ने पूरी सीरीज में रन तो बनाए 319, लेकिन उनकी टीम सीरीज पर कब्जा करने में कामयाब रही.
ओवल टेस्ट में इंग्लैंड ने भारत को 118 रनों से हराकर सीरीज को 4-1 से अपने कब्जे में कर लिया. आखिरी टेस्ट मैच में जो रूट के 125 रन निकाल दिए जाए, तो पूरी सीरीज में उनका बल्ला बुरी तरह खामोश रहा, जबकि विराट कोहली 10 में से सिर्फ 3 पारियों में बल्ले से नाकाम रहे. वरना उन्होंने सीरीज में 2 शतक लगाए, 3 अर्धशतक लगाए. दो बार चालीस से ज्यादा रन बनाए. बावजूद इसके उन्हें सीरीज गंवानी पड़ी.
पांच टेस्ट मैचों की सीरीज में दो बार भारतीय टीम जीत के करीब पहुंची, लेकिन वहीं पर टीम के बाकी खिलाड़ियों का फर्क आड़े आ गया. एक बार फिर ये बात साबित हुई कि महान कप्तान बनने के लिए एक अच्छी टीम का साथ होना जरूरी है.
बतौर कप्तान आप अपना रोल तो निभा सकते हैं, लेकिन जीत-हार का फैसला टीम के प्रदर्शन से तय होता है. जैसा विराट कोहली के साथ हुआ.
बल्लेबाज बने जीत हार का फर्क
इस सीरीज में कुछ गिने चुने मौकों को छोड़ दिया जाए, तो गेंदबाजी में मुकाबला बराबरी का था. इंग्लैंड की टीम के गेंदबाज अपनी घरेलू पिचों पर जो कमाल दिखा रहे थे, वैसा ही कमाल भारतीय गेंदबाजों ने भी करके दिखाया. साउथैंप्टन में आर अश्विन की खराब गेंदबाजी को छोड़ दिया जाए, तो बाकी चारों टेस्ट मैचों में भारतीय गेंदबाजों ने इंग्लैंड के गेंदबाजों से उन्नीस गेंदबाजी नहीं की.
दरअसल इस सीरीज में जीत हार का फैसला बल्लेबाजी से तय हुआ. इंग्लैंड की टीम के बल्लेबाजों ने अपने विकेट की कीमत को समझा. आखिरी मैच से पहले तक कुक और रूट को ज्यादातर मौकों पर अच्छी शुरुआत ही नहीं मिली. इससे उलट भारतीय टीम के बल्लेबाज अच्छी शुरुआत के बाद भी अपना विकेट गंवाकर पवेलियन लौट गए. जिस सीरीज के दो टेस्ट मैचों में हार-जीत का अंतर 100 से कम रनों का रहा हो, वहां छोटी छोटी साझेदारियों का रहा.
देखा जाए तो पांच टेस्ट मैचों की सीरीज में भारत की तरफ से 5 शतक और 10 अर्धशतक लगे. इंग्लैंड की तरफ से 4 शतक और 10 अर्धशतक ही लगे. लेकिन जीत हार का फर्क लोवर मिडिल ऑर्डर और लोवर ऑर्डर के बल्ले से निकले 20 से 30 रनों ने किया.
भारतीय क्रिकेट में ऐसा पहली बार नहीं हुआ
भारतीय क्रिकेट का इतिहास पलटकर देखेंगे तो ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. याद कीजिए सचिन तेंदुलकर की कप्तानी का दौर. जब टीम एक के बाद एक मैच हार रही थी. उस समय भी सचिन तेंदुलकर का खुद का प्रदर्शन शानदार था. उन्होंने बतौर कप्तान 7 शतक लगाए थे. उनका बल्लेबाजी औसत 50 से ज्यादा रनों का था. लेकिन टीम हार रही थी.
सौरव गांगुली इस मामले में काफी हद तक भाग्यशाली रहे. उनकी कप्तानी में वीरेंद्र सहवाग, जहीर खान, हरभजन सिंह जैसे खिलाड़ियों ने कंधे से कंधा मिलाकर विरोधी टीमों का सामना किया. भारत के सबसे सफल कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को भी ऐसे दिन देखने पड़े, जब उनकी टीम लगातार हार रही थी.
2014 में धोनी की कप्तानी में टीम इंडिया एक के बाद एक कई सीरीज हारी थी. यही वो वक्त था जब इस बात की सुगबुगाहट हुई थी कि क्या धोनी पर ‘वर्कलोड’ ज्यादा है. खैर कुछ समय बाद ही धोनी ने टेस्ट क्रिकेट से संन्यास ले लिया था.
कुछ कुछ वैसी ही स्थिति अब विराट कोहली के साथ हो रही है. इसी साल के अंत में विराट कोहली की कप्तानी में टीम इंडिया को ऑस्ट्रेलिया का भी दौरा करना है. कंगारुओं ने इंग्लैंड के खिलाफ इस सीरीज के एक एक मैच पर नजर रखी होगी. आज से करीब तीन महीने बाद शुरू होने वाली सीरीज के लिए विराट कोहली को अभी से पसीना बहाना होगा. पसीना अपनी बल्लेबाजी पर नहीं बल्कि इस बात पर कि वो टीम के बाकि खिलाड़ियों को जीतने के लिए प्रेरित कर सकें. अंग्रेजी की ये कहावत यूं ही नहीं कही जाती कि-A Captain is only as good as his team.
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