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WTC Final: वाह रे शास्त्री, वाह रे कोहली-चित भी मेरी, पट भी मेरी

Virat Kohli और Ravi Shastri ने हार के बाद विनम्र होने का एक और मौका गंवा दिया

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भारत (India) की आबादी करीब सवा अरब. न्यूजीलैंड (New Zealand) की आबादी करीब पचास लाख. मतलब, भारत के किसी छोटे शहर में ही पूरा न्यूजीलैंड समा जाए. क्रिकेट सुविधाओं की भी बात करें तो अकेले सिर्फ पश्चिमी दिल्ली, ना कि पूरी दिल्ली में, जितनी क्रिकेट की अकेडमी हैं उससे भी आधी पूरे न्यूजीलैंड में नहीं हैं.

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अपनी टेस्ट टीम बनाने के लिए भारत के पास पांच सौ भी से ज्यादा फर्स्ट क्लास खिलाड़ियों की उपलब्धता हमेशा होती है. वहीं न्यूजीलैंड के पास करीब पचास. इसके बावजूद जब टेस्ट इतिहास का पहला वर्ल्ड कप फाइनल खेला गया तो जीत उस टीम ने हासिल की जिसे अपने खेल से ज्यादा अक्सर तारीफ अपने विनम्र रवैये के लिए मिलती रही है.

मैच से पहले तमाम जानकारों को अगर आपने सुना होगा या फिर लेख पढ़ें होंगे तो आपको ऐसा आभास हुआ होगा कि भारत के लिए जीत मुश्किल नहीं. टीम इंडिया इतनी आश्वस्त थी कि हमेशा की तरह बड़बोले कोच रवि शास्त्री ने ऐलान कर दिया कि साउथम्पटन में खेला जाने वाला फाइनल क्रिकेट इतिहास का सबसे बड़ा फाइनल है.
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शास्त्री की दलील थी कि वो खुद 1983 वर्ल्ड कप जीतने वाली टीम का हिस्सा रह चुके हैं और ना जाने कितने वर्ल्ड कप में कमेंटेटर या कोच की तरह भी जुड़े रहे चुके हैं लेकिन इससे बड़ा फाइनल कुछ और नहीं. मतलब, रणनीति साफ थी कि अगर टीम इंडिया जीतती तो इस मौजूदा टीम को क्रिकेट इतिहास की महानतम टीम का तमगा देने में वो एक पल की देरी भी नहीं लगाते.

आपको याद है ना कि कैसे 2019 में पहली बार ऑस्ट्रेलिया में टेस्ट सीरीज जीतने के कमाल को उन्होंने भारतीय इतिहास का सबसे महानतम पल गिना दिया था जिसकी बाद में खूब आलोचना भी हुई थी और मजाक उड़ाया गया था. लेकिन, कोच शास्त्री की तुलना में कप्तान कोहली इस महान मैच को लेकर ज्यादा यथार्थवादी थे. उन्होंने पिछले दो सालों में न्यूजीलैंड के खिलाफ अहम और निर्णायक मैचों में हार का दर्द झेला था और उन्हें पता था कि ऐसा इस मैच में भी हो सकता है और इसलिए उन्होंने मैच से पहले ये कहकर पल्ला झाड़ लिया कि इस फाइनल में जीत या हार के नतीजे से उन पर कोई बहुत असर नहीं पड़ेगा.

कहने का मतलब ये था कि ठीक है अगर जीते तो अच्छी बात लेकिन हारें तो कोई परेशानी नहीं. लेकिन, ये सिर्फ कहने के लिए ही था. ठीक वैसा ही जब इंग्लैंड सीरीज से पहले भारत का इस फाइनल में पहुंचना खतरे में दिख रहा था तो कोहली ने कहा था उन्हें ऐसी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन जैसे ही इंग्लैंड को हराकर वो फाइनल मं पहुंचे तो उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेस में माना कि टीम हर हाल में फाइनल में पहुंचना चाहती थी. कोहली के इस स्टैंड को समझना आसान था और है क्योंकि कप्तान के तौर पर आप पहले से ही खुद को जीत का दावेदार बताकर अतिरिक्त दबाव क्यों बनाना चाहेंगे?

मगर कोच शास्त्री ने दूसरा पासा भी फेंका था. कुल मिलाकर चित भी मेरी और पट भी मेरी वाला पासा. अगर फाइनल जीतते तो ये टेस्ट इतिहास की महानतम जीत होती और अब जब हार गए तो ठीक है, ये कोई जीवन-मरण वाली बात नहीं. और इस लिए मैच हारने के बाद ये तर्क देना कि आगे से फाइनल तीन मैचों की सीरीज का होना चाहिए गले से नहीं उतरता है.

क्रिकेट इतिहास या फिर खेलों का इतिहास इस बात का गवाह है कि फाइनल एक ही होता है और इसमें चमत्कार और उलटफेर की गुंजाइश होती है. इसलिए 1983 में इकलौते फाइनल में भारत ने, 1996 में श्रीलंका ने जीत हासिल की, वरना तीन मैचों की बेस्ट ऑफ फाइनल्स में मजबूत टीम ही जीतती जो ये दोनों टीमें नहीं थीं. और दूर क्यों जाएं.. पिछले वन-डे वर्ल्ड कप में न्यूजीलैंड तो हारा भी नहीं था लेकिन उन्होंने हमेशा इस बात को माना कि चैंपियन इंग्लैंड है. कोहली और शास्त्री ने हार के बाद विनम्र होने का एक और मौका गंवा दिया.

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