क्या आप मच्छरों से परेशान रहते हैं? क्या मच्छर आपके रातों की नींद हराम कर देते हैं? अगर आप मच्छरों से होने वाली बीमारियों से खौफजदा रहते हैं, तो आपके लिए अच्छी खबर है. गूगल की पेरेंट कंपनी अल्फाबेट इंक ने दुनियाभर से मच्छरों के सफाया करने का एक नायाब तरीका खोज निकाला है.
कैलिफोर्निया में वैज्ञानिकों ने दुनिया से मच्छरों के खात्मे को लेकर तैयारी शुरू कर दी है. यह पहला मौका होगा, जब गूगल की पेरेंट कंपनी अल्फाबेट इंक दुनियाभर में मच्छरों से होने वाली बीमारी के खात्मे को लेकर काम कर रही है.
अल्फाबेट के लाइफ साइंस विभाग के दो साइंटिस्ट कैथलीन पार्क और जैकॉव आपस में बात करते हुए कहते हैं कि सड़कों पर मच्छरों का झुंड है, जिसे साफ देखा जा सकता है. जैकॉब अपनी सहयोगी से मॉस्कीटो कंट्रोल सिस्टम पर बात करते हुए कहते हैं कि यह जो चारों तरफ मच्छर है, यह दक्षिण सैन फ्रांसिस्को से 200 मील दूर, वेरिली में एक खास तरह के परिवेश में पैदा हुए थे.
ये सभी मच्छर बैक्टीरिया वोलबाचिया से संक्रमित थे. ये 80,000 संक्रमित अपने फीमेल पार्टनर से मिले, जिसका विनाशकारी परिणाम हमारे सामने है. इनकी तादाद बढ़ती ही जा रही है.
गूगल ने एक्जीक्यूटिव नियुक्त किया
मच्छरों से होने वाली बीमारी को खत्म करना अल्फाबेट के लिए चैलेंजिंग काम है. हालांकि इसको लेकर लाइफ साइंस से जुड़ी कई कंपनियां भी काम कर रही हैं. अल्फाबेट एक स्मार्ट कॉन्टेक्ट लेंस की मदद और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एप्लीकेशन की मदद से मच्छरों के खात्मे की तैयारी में है. इसके लिए गूगल ने इसी महीने एक हेल्थ चीफ एक्जीक्यूटिव को हायर किया है, जो इस काम पर नजर बनाए हुए है.
इस काम के लिए तकनीक तो उपलब्ध है, लेकिन कोशिश इस बात की हो रही है कि मॉस्कीटो कंट्रोल को लेकर आसान और सस्ती तकनीक बनाई जा सके, जो काफी हद तक फायदेमंद भी हो. दुनियाभर में कई सरकारें और बिजनेसमैन मच्छरों से होने वाली समस्या की रोकथाम के लिए मदद को भी तैयार हैं.
हर साल हजारों लोग होते हैं मच्छरों के शिकार
मच्छरों की प्रजातियां दुनियाभर में घातक बन चुकी हैं. डेंगू-चिकुनगुनिया जैसी बीमारियां एक चुनौती बन चुकी हैं. इन बीमारियों से दुनियाभर में हर साल हजारों लोग मर रहे हैं और लाखों लोग इससे प्रभावित हो रहे हैं. मॉस्कीटो और उससे फैलने वाली बीमारी को जल्द से जल्द खत्म करना अब एक चुनौती बन गई है.
कितनी कारगर है यह तकनीक
मच्छरों के खात्मे के लिए जो प्लान बनाय गया है, अगर वह आकार ले पाया, तो इस मॉस्कीटो सेशन (अप्रैल से नवंबर के बीच) में जल्द ही प्रयोग में लाया जा सकेगा. सारे इंसेक्ट की तादाद का पता लगाकर लेजर की मदद से इन सबको खत्म करने का काम शुरू किया जाएगा.
मच्छरों से होने वाली बीमारी के खात्मे को लेकर जो प्रयास हो रहे हैं, उनमें अब तक थोड़ी सफलता मिली है. बिल गेट्स ने भी मच्छरों से होने वाली बीमारी को खत्म करने के लिए एक बिलियन डॉलर की सहायता दी.
मच्छरों के मरने का वातावरण पर प्रभाव
मच्छर तो मर जाएंगे, उससे होने वाली बीमारी का खौफ भी खत्म हो जाएगा, लेकिन क्या आपने सोचा कि वातावरण पर इसका क्या असर पड़ेगा? अभी तक इस बात पर कोई डिबेट नहीं हुई है कि बीमारी पैदा करने वाले सारे मच्छर अगर दुनिया से खत्म हो जाएंगे, तो इसका वातावरण पर क्या असर पड़ेगा.
मच्छरों का वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस बात पर अभी तक स्टडी ही नहीं की गई है. कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि इस मसले पर भी जल्द सोच लिया जाएगा. क्या वैज्ञानिकों ने इस बात पर अब तक कुछ सोचा कि कैसे मच्छर कम समय में इतनी तेजी से फैल जाते हैं. साथ ही इनकी गैर-मौजूदगी का वातावरण पर क्या असर पड़ेगा?
फ्रेस्नो संस्था के वैज्ञानिक जोडी होलमैन ने बताया कि तकनीक को सफल बनाने के बाद मच्छरों को बचाना भी एक बड़ी चुनौती हो जाएगी. कई देश ऐसे हैं, जहां एक वक्त मच्छर नहीं हुआ करते थे, लेकिन आज वहां लोग अपनी बालकनी में भी जाने से डरते हैं, क्योंकि अब वहां मच्छरों का अंबार लग चुका है.
कितना सफल होगा यह प्रयोग
वेरिली संस्था के मुताबिक, 2017 में मच्छरों की आबादी में दो-तिहाई कमी आई है. 95 फीसदी मच्छरों की आबादी को खत्म करने के प्लान को इस साल रोका दिया गया है. इसी साल जून में ऑस्ट्रेलिया में पाया गया कि मच्छरों की आबादी में 80 फीसदी कमी आई है. लेकिन इस तकनीक को प्रयोग में लाने से पहले ही अगले एक साल के लिए रोक दिया गया है.
क्या है यह तकनीक
इस तकनीक में आप देखेंगे कि साइंटिस्ट एक ट्यूब में मच्छर को लेकर खास तरीके से रिसाव करते हैं. इसके बाद इसे रिलीज वैन में रखते हैं. इसमें एक सॉप्टवेयर लगा होता है, जो आइडेंटिफाई करता है उन इलाकों का, जहां रोग पैदा करने वाले मच्छर ज्यादा पाए जाते हैं. उसके बाद इसे उन इलाकों में छोड़ा जा सके.
वेरिली हेडकॉर्टर में आप देखंगे कि कैसे एक मच्छर के अंडे को रोबोट की निगरानी में बड़ा किया जाता है. इसके बाद एक कंटेनर में इसकी पैकेजिंग की जाती है, जिसमें हवा-पानी का इंतजाम रहता है. इसके बाद जीपीएस की निगरानी में इसे रिलीज किया जाता है.
इस तकनीक का इस्तेमाल इसी साल होना था, लेकिन इसे एक साल के लिए आगे बढ़ा दिया गया है. इस तकनीक पर कितना खर्च आएगा, ये अभी तय नहीं है, लेकिन अनुमान लगाया जा रहा है कि ये काफी महंगी होगी.
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