वीडियो एडिटर: मो. इब्राहिम, आशुतोष भारद्वाज
हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव तो निपट गए, अब दिल्ली की बारी है. दोनों राज्यों में बीजेपी के नतीजे उम्मीद से कम रहे. राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टी के लिए ये एक झटका है साथ ही एक सबक भी, कि राज्य चुनाव में क्या करना चाहिए और क्या नहीं.
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक बार फिर आम आदमी पार्टी के माथे पर जीत का सेहरा बांध सकते हैं लेकिन ये तभी मुमकिन है जब वो महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी के समान गलतियां न करें और सही मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर चुनाव लड़ें.
अगर केजरीवाल एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होना चाहते हैं तो उनके लिए ये 4 सबक जरूरी हैं:
सबक 1: वोट शेयर मायने रखता है
हरियाणा के विधानसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 2019 लोकसभा चुनाव के मुकाबले करीब 22 फीसदी कम रहा. बीजेपी का वोट शेयर 58.2 फीसदी से गिरकर 36.5 फीसदी पर पहुंच गया. 2014 लोकसभा चुनाव के 9 महीने बाद 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए थे, उस समय भी बीजेपी के वोट शेयर में लोकसभा चुनाव की तुलना में 14 फीसदी की गिरावट आई थी.
वोट शेयर कम तो हुआ, लेकिन बीजेपी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई. लोकसभा चुनाव के नतीजों से ये स्पष्ट है. लेकिन राष्ट्रवाद और आर्टिकल 370 को हटाने जैसे मुद्दे हरियाणा और महाराष्ट्र में बीजेपी की लोकप्रियता को वोटों में नहीं बदल सके. आम आदमी पार्टी के लिए यही उम्मीद है. दिल्ली के वोटर भी पार्टी के काम के आधार पर अपना वोट तय कर सकते हैं.
सबक 2: तीसरी पार्टी होने के फायदे
राज्य में पिछले दो विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट शेयर नहीं बढ़ा. जबकि छोटी पार्टियों और निर्दलीयों का वोट शेयर 6.1 फीसदी से बढ़कर 17.4 फीसदी पहुंच गया. इसका मतलब है कि कांग्रेस पार्टी को फायदा नहीं हुआ. बल्कि लगता है कि जाट, मुस्लिम और कुछ दलित वोट उन उम्मीदवारों को पड़े, जिनमें उन्होंने बीजेपी को हराने की काबिलियत देखी.
इसी कारण सीटों की संख्या को लेकर कांग्रेस को निराशा हाथ लगी. क्योंकि कम्पिटीशन बीजेपी और एक तीसरी पार्टी के उम्मीदवार के बीच था. दिल्ली की कई सीटों पर मुस्लिम वोटरों में वोटिंग का ये रुझान देखने को मिला है.
2013 के विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मुस्लिम वोट पड़े. लेकिन 2014 लोकसभा चुनावों और 2015 के विधानसभा चुनावों में उनका वोट आम आदमी पार्टी को गया. इससे लगता है कि हरियाणा के वोटिंग पैटर्न की झलक दिल्ली में भी देखने को मिल सकती है. यहां भी सबसे मजबूत गैर-बीजेपी उम्मीदवार को भारी वोट पड़ सकते हैं.
सबक 3: मुद्दों का सावधानी से चुनाव
बीजेपी-शिवसेना गठजोड़ को महाराष्ट्र के शहरी इलाकों में करीब 80 फीसदी और हरियाणा के शहरी इलाकों में करीब 90 फीसदी सीट मिले. लेकिन दोनों राज्यों के ग्रामीण इलाकों की हालत खस्ता रही. हरियाणा में तो बीजेपी को बमुश्किल एक-तिहाई सीट मिल सके.
हो सकता है कि शहरी इलाकों में राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे और मोदी की लोकप्रियता गांवों के मुकाबले ज्यादा मायने रखते हों. दिल्ली मुख्य रूप से शहरी और अर्धशहरी क्षेत्र है, लिहाजा आप और कांग्रेस के लिए बीजेपी का मुकाबला करना ज्यादा कठिन हो सकता है. हरियाणा और महाराष्ट्र में बीजेपी को एंटी-इन्कम्बेंसी फैक्टर का भा सामना करना पड़ा था, लेकिन दिल्ली की सत्ता पर आप विराजमान है. लिहाजा दिल्ली में जीत का एक ही उपाय है – अरविंद केजरीवाल सरकार पर एंटी-इन्मकम्बेंसी का असर न पड़ना.
सबक 4: इतिहास से सबक लें
दिल्ली का इतिहास है कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में वोटिंग पैटर्न अलग होते हैं. पीछे मुड़कर देखें, तो 1998 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली ने शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस को सत्ता पर बिठाया. लेकिन इसके एक साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में बीजेपी को सभी 7 सीटों पर जीत मिली.
2014 में बीजेपी को सभी 7 लोकसभा सीटों पर हासिल हुई, लेकिन मुश्किल से 8 महीने बाद केजरीवाल ने विधानसभा की 70 में से 67 सीटों पर कब्जा कर दिल्ली में मजबूती के साथ सरकार बनाया.
लोकनीति-CSDS ने लोकसभा चुनाव के बाद सर्वे किया था, जिसमें बीजेपी और कांग्रेस के 4 में से 1 वोटर का कहना था कि वो विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को वोट देंगे. आप के सिर्फ 7 फीसदी वोटरों का कहना था कि वो असेम्बली चुनाव में बीजेपी या कांग्रेस के पक्ष में वोट डालेंगे.
सर्वे के अनुमानों के मुताबिक अगर बीजेपी या कांग्रेस के 4 में से 1 समर्थक का रुझान भी आप की ओर गया, तो पार्टी को विधानसभा चुनाव में करीब 20 प्रतिशत ज्यादा वोट मिलेंगे.
महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव नतीजों के देखते हुए एक बात साफ है कि राज्य स्तर के चुनाव राष्ट्र स्तर के मुद्दों की बदौलत नहीं जीते जा सकते. हालांकि केजरीवाल सरकार ने जमीनी स्तर पर काफी काम किया है, फिर भी उसके लिए दिल्ली में सत्ता की कुर्सी फिर से हासिल करना आसान नहीं होगा.
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