वीडियो- आशुतोष भारद्वाज
''क्या चुनाव ही परम सत्य है, बाकि सब मोह माया है. कोरोना तो आनी जानी है, राजनीति ही असली कहानी है." कोरोना अब बिहार में तूफान की रफ्तार से बढ़ रहा है. चुनाव की चिंता में डूबे नेताओं से लेकर अधिकारियों को भी कोरोना अपनी चपेट में ले चुका है. 20 जुलाई तक करीब 27500 से भी ज्यादा पॉजिटिव केस सामने आ चुके हैं. हाल ये है कि अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर मरीज अपने नंबर के आने का इंतजार कर रहा है. तो कहीं बिना कोरोना का टेस्ट किए ही रिपोर्ट बना दी जा रही है. टेस्टिंग की स्पीड पर नजर डालेंगे तो कछुए की चाल भी तेज नजर आएगी.
अब जब कोरोना के इस कोहराम के बीच टेस्टिंग नाम बराबर और अस्पताल बदहाल होंगे, लेकिन नेता लोग सोशल डिस्टेंसिंग का मंत्र भूल राजनीतिक जमावड़े, डिजिटल रैलियां, नुक्कड़ मुहल्ले में वोट के लिए मीटिंग करेंगे तो जनता पूछेगी जरूर, जनाब ऐसे कैसे?
कोरोना को हल्के में लेने की गलती कर बिहार अब भुगत रहा है. कोरोना को भारत में आए चार महीने बीत चुके हैं, मतलब तैयारी के लिए वक्त की कोई कमी नहीं, लेकिन फिर भी ना टेस्टिंग स्पीड पकड़ सकी और न ही तैयारी पूरी हुई. भावनाओं में नहीं आंकड़ों से समझते हैं बिहार में कोरोना की लड़ाई को.
बिहार में 30 जून को करीब 10 हजार कोरोना के केस थे, वहीं ये 20 दिनों में 170 फीसदी बढ़कर 27 हजार पहुंच गए. अगर एक्टिव केस की बात करें तो 30 जून को एक्टिव मरीजों की संख्या 2132 थी, जो 20 जुलाई को बढ़कर 9732 हो गई. मतलब करीब 5 गुना ज्यादा.
रिकवरी रेट में अब पिछड़ता बिहार
जिस रिकवरी रेट को लेकर बिहार सरकार सीना चौड़ा करके घूम रही थी उसका हाल भी जान लीजिए. जहां 30 जून तक बिहार में कोरोना मरीजों का रिकवरी रेट 77 फीसदी था, वो अब घटकर 63 फीसदी पर आ गया है.
एक जुलाई तक बिहार में कोरोना की वजह से 67 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी, लेकिन 20 जुलाई को ये आंकड़ा बढ़कर 187 हो गया. मतलब इन 20 दिनों में सिर्फ केस ही नहीं मरने वालों के नंबर भी दोगुने हुए हैं.
सबसे कम टेस्ट करने वाले राज्यों में बिहार का नाम
अब आप कहेंगे अरे दिल्ली और महाराष्ट्र के मुकाबले तो कम केस हैं, तो चलिए आपको इस कम केस की कहानी भी समझा दें. 12 करोड़ की आबादी वाले बिहार में 20 जुलाई तक सिर्फ 3 लाख 88 हजार टेस्ट हुए हैं. मतलब एक लाख लोगों में सिर्फ 300 लोगों का टेस्ट हो पा रहा है. जबकि 3 करोड़ की आबादी वाले दिल्ली में 8 लाख से ज्यादा टेस्ट हो चुके हैं.
दिल्ली में एक लाख की आबादी पर 4300 से ज्यादा टेस्ट हो रहे हैं. बिहार से 10 गुना से भी ज्यादा. महाराष्ट्र और बिहार की आबादी करीब-करीब एक है, लेकिन वहां भी 15 लाख से ज्यादा टेस्ट हो चुके हैं. सच तो ये है कि बिहार टेस्ट के मामले में सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है.
बिहार के डिप्टी सीएम सुशील मोदी कह रहे हैं,
“केंद्र और राज्य की सरकारें संक्रमण रोकने के लिए युद्ध स्तर पर संघर्ष कर रही हैं. रोजाना 20 हजार सैंपल जांच का लक्ष्य पूरा करने पर काम जारी है.”
लेकिन डिप्टी सीएम साहब से कोई पूछे कि कोरोना को भारत में एंट्री लिए 4 महीने का वक्त बीत गया, लेकिन एक दिन में 20 हजार टेस्ट तो दूर, पहली बार बिहार 14 जुलाई को 10 हजार टेस्ट का आंकड़ा छू पाया था.
ये तो सिर्फ टेस्ट की बात हुई अगर अस्पतालों में झाकेंगे तो सच्चाई और भी डरावनी दिखेगी. बिहार सरकार के गृह विभाग के पूर्व अंडर सेक्रेट्री उमेश रजक को एडमिट होने के लिए पटना एम्स के बाहर फुटपाथ पर घंटों इंतजार करना पड़ता है. बारिश होते ही अस्पताल डूब जा रहे हैं. रोहतास में मां और बेटे को बिना सैंपल लिए ही कोरोना पॉजिटिव बता दिया गया. कटिहार में टेस्ट नहीं बल्कि सिर्फ रजिस्ट्रेशन कराने पर ही निगेटिव रिपोर्ट का मैसेज मोबाइल पर आ गया.
बिहार के खोखले हेल्थ सिस्टम पर लिखने बैठेंगे तो पन्ने कम पड़ जाएंगे और कलम की स्याही सूख जाएगी. लेकिन इन सबके बीच सवाल ये है कि क्या बिहार सरकार ने बिहार की जनता को टेकेन फॉर ग्रांटेड ले लिया है? जब दुनिया कोरोना से लड़ने की तैयारी कर रही थी तो राजनीतिक पार्टियां क्या सिर्फ चुनावी तैयारियों की सोच रही थीं? बिहार में एक बार फिर लॉकडाउन लगाया गया है, लेकिन इसकी नौबत ही क्यों आई? टेस्ट करने में अब भी बिहार सबसे पीछे क्यों हैं? ‘चुनाव पर जोर और कोरोना पर कमजोर’, ऐसा होगा तो जनता पूछेगी जरूर जनाब ऐसे कैसे?
सोर्स- मैं मीडिया, बिहार सरकार, ETV भारत
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