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हरियाणा में हुड्डा ने बदली हवा, BJP को धकेल कांग्रेस में फूंकी जान

हरियाणा में दांव पर लगी थी भूपेंद्र सिंह हुड्डा की साख

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हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा एक बार फिर कांग्रेस के भरोसे पर खरे उतरे हैं. राज्य विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की मजबूत वापसी ने सिर्फ पार्टी ही नहीं, बल्कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सियासी साख बचा ली है. बीजेपी के ‘75 पार’ के कॉन्फिडेंस को पीछे धकेलकर भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने साबित कर दिया है कि वे हरियाणा की राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं.

आइए जानते हैं कि करीब दस साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहने के बाद हुड्डा कैसे हरियाणा की राजनीति में हाशिए पर धकेल दिए गए? और कैसे राज्य में पटरी से उतर चुकी कांग्रेस को खड़ा कर उन्होंने बीजेपी को मजबूत टक्कर दी?

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हरियाणा की राजनीति में कैसे हुआ हुड्डा का उदय

साल 2005 में हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और 67 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत हासिल किया. लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने अचानक बड़ा फैसला लेते हुए 42 विधायकों का समर्थन हासिल करने वाले मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार माने जा रहे भजनलाल को किनारे करते हुए जाट नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा को हरियाणा का मुख्यमंत्री घोषित कर दिया. भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने मार्च 2005 में हरियाणा के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

इसके बाद भजनलाल ने सत्ता पाने के लिए पार्टी आलाकमान से तमाम कोशिशें कीं लेकिन नाकाम रहे. थक हार कर भजनलाल ने साल 2007 में कांग्रेस से अलग होकर हरियाणा जनहित कांग्रेस पार्टी बना ली.

इसके बाद साल 2009 का विधानसभा चुनाव भूपेंद्र सिंह हुड्डा की अगुवाई में लड़ा गया. इस बार कांग्रेस बहुमत साबित करने में नाकाम रही. लेकिन हुड्डा सियासी चतुराई का इस्तेमाल कर सरकार बनाने में कामयाब रहे.

दरअसल, 2009 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 35, INLD को 31, हरियाणा जनहित पार्टी को 6, बीजेपी को 4 और बीएसपी, अकाली दल को एक-एक सीट मिली. इसके अलावा 7 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज कराई. कांग्रेस ने निर्दलीय उम्मीदवारों के साथ मिलकर सरकार बनाई और भूपेंद्र सिंह हुड्डा एक बार फिर हरियाणा के मुख्यमंत्री बने.
  • भूपेंद्र सिंह हुड्डा साल 1991, 1996,1998 और 2004 में लगातार चार बार लोकसभा के सदस्य बने.
  • साल 1996 से साल 2001 तक वह हरियाणा कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे.
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2014 और 2019 की हार के बाद हाशिए पर चले गए हुड्डा

साल 2014 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के हिस्से सिर्फ 15 सीटें आई थीं. इस करारी हार के बाद हरियाणा में हुड्डा का सियासी कद कम हो गया. इसके बाद कांग्रेस आलाकमान ने 2019 के लोकसभा चुनावों में एक बार फिर हुड्डा के चेहरे पर चुनाव लड़ा. लेकिन हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे अशोक तंवर के साथ अंदरूनी कलह की वजह से पार्टी को बुरी हार मिली. यहां तक कि खुद भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा भी चुनाव हार गए.

हरियाणा में दांव पर लगी थी भूपेंद्र सिंह हुड्डा की साख

इसके बाद राहुल गांधी के करीबी और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर खेमा हुड्डा परिवार पर हावी हो गया और हार का ठीकरा भी हुड्डा के सिर फोड़ दिया गया. राज्य की सियासत में जब हुड्डा को एकदम हाशिए पर धकेल दिया गया, तब उन्होंने विद्रोही तेवर दिखाए. इसके बाद कांग्रेस आलाकमान को हुड्डा के आगे झुकना पड़ा. हुड्डा की मांगों को मानते हुए आलाकमान ने अशोक तंवर को हटाकर प्रदेश कार्यकारिणी की जिम्मेदारी कुमारी शैलजा को सौंपी.

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दांव पर लगी थी हुड्डा की साख

हरियाणा विधानसभा चुनाव सिर्फ कांग्रेस पार्टी के लिए ही नहीं, बल्कि करीब दस साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे भूपेंद्र सिंह हुड्डा के लिए भी नाक का सवाल बन गया था. 2014 से 2019 के बीच तंवर और हुड्डा के बीच चली अदावत ने हरियाणा में कांग्रेस को कमजोर कर दिया था.

विधानसभा चुनावों के ठीक पहले तक कांग्रेस में कलह जारी रही. बाद में सोनिया गांधी ने एक बार फिर हुड्डा पर भरोसा जताते हुए, उन्हें राज्य में पार्टी का चेहरा बनाया. चुनावों में लगातार मिल रही हार से निराश कांग्रेस के साथ ही इस चुनाव में हुड्डा की सियासी साख भी दांव पर लगी थी.

कांग्रेस आलाकमान ने विधानसभा चुनाव के ऐलान से महज 15 दिन पहले भूपेंद्र सिंह हुड्डा को हरियाणा में पार्टी का चेहरा बनाने का ऐलान किया था. ऐसे में कहा तो ये भी जा रहा है कि अगर कांग्रेस आलाकमान हुड्डा पर भरोसा जताने में इतनी देर ना करता तो नतीजे कुछ और हो सकते थे.

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हरियाणा में दांव पर लगी थी भूपेंद्र सिंह हुड्डा की साख

हुड्डा के हक में क्या था?

हुड्डा ने पार्टी के भीतर मची अंदरूनी कलह और कम वक्त में कमजोर कांग्रेस को मजबूत स्थिति में लाने का करिश्मा कर दिखाया. इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है भूपेंद्र सिंह हुड्डा की जमीनी नेता की छवि.

इस चुनाव में हुड्डा पिता-पुत्र ने अपने समर्थकों को जिताने के लिए पूरी ताकत झोंक दी. चूंकि, कांग्रेस आलाकमान ने टिकट बंटवारे में हुड्डा को वॉकओवर दे दिया था, इसलिए उन पर अपने ज्यादा से ज्यादा समर्थकों को जिताने का दवाब था. यही वजह रही कि पिता-पुत्र ने दिन-रात कांग्रेस प्रत्याशियों के समर्थन में प्रचार किया.

हरियाणा में दांव पर लगी थी भूपेंद्र सिंह हुड्डा की साख

इसके अलावा हुड्डा को जाट बिरादरी में मजबूत पकड़ का भी फायदा मिला. हुड्डा ने हरियाणा में बीजेपी द्वारा तैयार किए गए जाट और नॉन जाट पॉलिटिक्स के फॉर्मूले का भी लाभ उठाया. इस चुनाव में बीजेपी जहां आर्टिकल 370 और पाकिस्तान के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही थी. वहीं, हुड्डा ने हरियाणा में सबसे मजबूत जाट वोट बैंक को अपने पाले में लाने की कोशिश की. हुड्डा को INLD के बिखराव का भी फायदा मिला.

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