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केरल को मदद की है दरकार तो फिर विदेशी फंडिंग से क्यों है इनकार? 

विदेशों से उठने वाले मदद के हाथों को सरकार अपने हाथ हिलाकर, बाय-बाय करने में क्यों लगी है?

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वीडियो एडिटर: पूर्णेन्दु प्रीतम और आशुतोष भारद्वाज

कैमरापर्सन: शिव कुमार मौर्या

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केरल बाढ़ के लिए विदेशों से उठने वाले मदद के हाथों को सरकार अपने हाथ हिलाकर, बाय-बाय करने में क्यों लगी है? और क्या वो ऐसा करके सही कर रही है?

मेरा एक सवाल है. इस सवाल का जवाब पीएम मोदी दे सकते हैं लेकिन इसकी शुरुआत होती है मनमोहन सिंह से. जब उन्होंने 2004 में सुनामी के लिए विदेशी सरकारों की ओर से आने वाली मदद को मना कर दिया था.

इसके पीछे सरकार का तर्क देखते हैं.

पहला तर्क- आपदा से निपटने में भारत सक्षम

पहला तर्क कहता है कि इस तरह की आपदा से निपटने में भारत सक्षम है. जमीन पर काम करने वाले शिकायत कर सकते हैं कि फंड के बेहतर एलोकेशन की जरूरत है. लेकिन ये एक ऐसी मुश्किल है जिसको केंद्र और राज्य सरकारें आपस में सुलझा सकती हैं वो भी बिना किसी विदेशी मदद के.

हमारा सवाल-

  • केरल को करीब 21 हजार करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ा है.
  • 10 हजार किलोमीटर के हाईवे बर्बाद हो चुके हैं.
  • 1 लाख घर और इमारतें टूट-फूट चुकी हैं.
  • लाखों हेक्टेयर फसल खत्म हो गई है.

राज्य सरकार ने केंद्र से 2600 करोड़ रूपए के राहत पैकेज की मांग की लेकिन केंद्र ने अब तक सिर्फ 600 करोड़ की ग्रांट ही दी है. केरल इस बात से काफी नाखुश है. बाकी राज्यों ने मिलकर करीब 200 करोड़ की मदद की है लेकिन जाहिर है और मदद की जरूरत है. तो वो कौन सी चीज है जो इस मदद को लेने से रोक रही है? मदद से क्या केरल के राहत और पुनर्वास की कोशिशों को कोई नुकसान पहुंचेगा? जवाब है- नहीं.

दूसरा तर्क- भारत की बढ़ती आर्थिक ताकत

विदेशी मदद को इन्कार करने के लिए भारत की बढ़ती आर्थिक ताकत को वजह बताते हुए कहा गया, "नहीं, धन्यवाद”

शायद ये तर्क इस बात पर टिका है कि अब हम गरीब देश नहीं हैं. हम आर्थिक रूप से इतने ताकतवर जरूर हैं कि अपने नागरिकों की मदद कर सकें.

बीते कुछ वक्त में भारत एक 'डोनर कंट्री' बनकर उभरा है जो प्राकृतिक आपदा होने पर दूसरे देशों की मदद करता है.

2004 सुनामी के बाद भारत ने श्रीलंका, इंडोनेशिया और थाइलैंड को करीब 135 करोड़ की मदद की थी.

2005 में तूफान कटरीना के बाद भारत ने अमेरिकन रेड क्रॉस को 25 करोड़ की मदद की पेशकश की. इंडियन एयरफोर्स के एयरक्राफ्ट ने अमेरिका तक 25 टन की राहत सामग्री भी भेजीं. ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे.

जो कहते हैं, “मदद का हाथ बढ़ाने वाला देश मदद मांग कैसे सकता है?", उनके लिए ये रहा हमारा सवाल

दुनिया में अमेरिका वो देश है जो सबसे ज्यादा मदद देता है. लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि कटरीना तूफान के बाद दुनिया भर से आने वाली मदद से अमेरिका ने इनकार कर दिया हो. क्या इंसानियत के नाते आने वाली मदद लेकर आप गरीब देश हो जाते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं.

तीसरा तर्क- कूटनीतिक मुश्किलें

इंडियन एक्सप्रेस को एक सरकारी सोर्स ने बताया कि अगर मदद ली जाती है तो इसके कूटनीतिक मायने भी हो सकते हैं. सोर्स के मुताबिक “अगर किसी एक सरकार से मदद ली जाती है तो इससे मदद के दूसरे दरवाजे भी खुल सकते हैं. अब मुश्किल ये है कि किसी एक देश से मदद लेना और दूसरे को मना करने में दिक्कत होगी"

हमारा सवाल

हम ये समझते हैं कि भारत कुछ दूसरे देशों से मदद नहीं ले सकता. जैसे, 2005 में पीओके में आए भूकंप के लिए भारत ने पाकिस्तान को करीब सवा सौ करोड़ की मदद की पेशकश की, जिसे पाकिस्तान ने लेने से इनकार कर दिया था. इसलिए, पाकिस्तान से मदद लेने की उम्मीद भी काफी कम है. वैसे भी पाक के साथ हमारे राजनीतिक रिश्ते अच्छे नहीं.

लेकिन कुछ को "ना" और कुछ को "हां" कहने की कूटनीतिक दिक्कत को दूर करना इतना भी मुश्किल नहीं. आखिरकार डिप्लोमैट तो इसी के लिए होते हैं.

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मोदी सरकार का मदद न लेने का फैसला, दिसंबर 2004 में तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की डिजास्टर एड पॉलिसी की तरह ही है. उस साल सुनामी के बाद, मनमोहन सिंह ने कहा था, "हमें लगता है कि हम खुद हालात का सामना कर सकते हैं." तब तक, भारत ने खुशी-खुशी विदेशी सरकारों से मदद ली थी. ये सब बिहार बाढ़ यानी जुलाई 2004 तक चला.

  • उत्तरकाशी भूंकप(1991)
  • लातूर भूकंप (1993)
  • गुजरात भूकंप (2001)
  • बंगाल में चक्रवाती तूफान (2002)
  • बिहार बाढ़ (जुलाई 2004)

लेकिन सुनामी के बाद यूपीए सरकार के फैसले ने इसे बदल दिया. पिछले 14 सालों में, हमने 2004 के सुनामी, 2005 के कश्मीर भूकंप, 2013 उत्तराखंड बाढ़ और 2014 कश्मीर बाढ़ के बाद मदद को हमेशा 'न' किया है.

इसलिए तर्क ये है कि-

14 साल से जो नीति है उसे बीजेपी सरकार को क्यों पलटना चाहिए?

हमारा सवाल

पहला, ये अच्छी नीति हो ही नहीं सकती. उदाहरण के लिए, मालदीव से मदद लेकर हम अपने राजनीतिक रिश्तों में सुधार कर सकते हैं. भले 34 लाख की रकम छोटी दिखती हो लेकिन इसे लेकर हम अपनी पॉलिटिकल गुडविल का बड़ा दिल जरूर दिखा सकते हैं.

और आखिर में- कुछ बारीक बातें...

भारत के नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान के मुताबिक, "अगर कोई देश अपनी तरफ से आपदा पीड़ितों की मदद के लिए एक भलमनसाहत के साथ आगे आता है तो तो केंद्र सरकार प्रस्ताव को स्वीकार कर सकती है."

तो ऐसा क्यों न किया जाए?

विदेश मंत्रालय ने ये भी कहा है कि पीएम और सीएम रिलीफ फंड में अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से योगदान लिया जा सकता है. इसलिए यूएई की कोई फाउंडेशन, चाहे वो यूएई सरकार की तरफ से फंडेड हो, पीएम रिलीफ फंड में दान कर सकती है.

केरल से आने वाले केंद्रीय मंत्री केजे अल्फोंस अपनी ही सरकार से मदद स्वीकार करने की अपील कर रहे हैं. अल्फोंस ने कहा, "मैं अपने राज्य के लिए अपील कर रहा हूं क्योंकि मैंने वो दुख देखे हैं. हमें पैसे की जरूरत है."

इन सभी तर्क-बहस को देखते हुए मेरा सवाल है कि क्या मोदी सरकार बदले में ज्यादा कुछ हासिल किए बिना ही विदेशी मदद को इनकार करती जा रही है?

केरल को सरकार की इस पॉलिसी की वजह से नुकसान हो रहा है.

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