वीडियो एडिटर: मोहम्मद इरशाद आलम
बीजेपी के धुआंधार चुनावी जगरनॉट के बावजूद दिल्ली में आम आदमी पार्टी की शानदार जीत और अरविंद केजरीवाल तीसरी बार CM, इसका मतलब साफ है कि दिल्ली में बीजेपी को हिंदुओं ने ही हराया है!
दिल्ली के हिंदू वोटरों ने बीजेपी की ध्रुवीकरण की राजनीति और नई स्ट्रैटेजी को पूरी तरह रिजेक्ट कर दिया है. हमारी नजर में तो ये चुनाव एक मामूली चुनाव था. दिल्ली हाफ स्टेट है, या कहिए कि ग्लॉरिफायड म्यूनिसिपैलिटी है. लेकिन बीजेपी ने इस लोकल चुनाव को अपने लिए रेफेरेंडम बना दिया. नागरिकता कानून- CAA- के बाद ये पहला चुनाव था. रेफेरेंडम ये था कि CAA पर वोटर का ठप्पा लग जाए, कौन देशभक्त और कौन गद्दार ये तय हो जाए, बस अब ये साबित हो जाए कि ओखला का शहीन बाग पाकिस्तान में है. यानी ध्रुवीकरण हर कीमत पर. लेकिन दिल्ली है कि बेदिल है, बेमुरव्वत है, दनिशमंद है. बीजेपी की ज़ुबान में कहें तो उसने गद्दारों का साथ दे दिया.
बीजेपी को उम्मीद थी कि दिल्ली ने विभाजन और शरणार्थियों का बेहद दर्द भरा इतिहास देखा है और अब हम CAA/NPR/NRC पर बहस से उन तकलीफ भरी यादों को भुनाएंगे. लेकिन गद्दार, बिरयानी, गोली मारने तक की बेशुमार बदजुबानियों के बावजूद बीजेपी दिल्ली के वोटर को अपने मुद्दे की तरफ नहीं ला पायी और आम आदमी पार्टी ने अपने काम बिजली सड़क पानी अस्पताल के मुद्दे पर चुनाव को पकड़ कर रखा.
बीजेपी के लिए दिल्ली का दांव उलटा पड़ना मामूली घटना नहीं है. कितना कर्कश कैम्पेन किया ये तो एक बात है. दूसरी बात पर नजर डालिए वो है कैंपेन. इसकी लंबाई चौड़ाई गहराई देखिए- बीजेपी ने 650 से ज्यादा पब्लिक मीटिंग, रोड शो किए. अमित शाह ने 52, जेपी नड्डा ने 41, राजनाथ सिंह ने 12, पीएम मोदी ने 2 और योगी आदित्यनाथ ने 2 रैलियां की.
देशभर के बीजेपी नेता डोर टू डोर कैम्पेन के लिए लाए गए. बीजेपी की इनविसिबल इलेक्शन मशीन की सारी तिकड़मों के बावजूद AAP अपना वोट शेयर बनाए रखने में कामयाब रही. उसे एक पर्सेंट कम वोट मिले. कांग्रेस और हाशिए पर चली गयी. इसलिए बीजेपी का वोट शेयर जरूर 5-6% बढ़ा और सीटें भी बढ़ीं लेकिन चुनाव में कोई सांत्वना पुरस्कार नहीं होता.
बीजेपी के लिए ये सेटबैक अहम इसलिए है कि एक ट्रेंड बन गया है. दिल्ली के पहले झारखंड में बीजेपी हारी. हरियाणा में गठजोड़ का साथ मिला तो सरकार बन पायी. महाराष्ट्र में सत्ता से बाहर हो गयी. लोकसभा चुनाव के पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ की हार एक अलग किस्सा है.
दिल्ली के नतीजों से नीतीश कुमार मन ही मन खुश होंगे. बीजेपी अब JDU से बारगेन करने की हालत में नहीं रहेगी. नीतीश कुमार को ये अंदेशा था अगले साल विधानसभा चुनाव में ज्यादा सीटें मांगेगी. कहीं वो अलग लड़ने की ना सोच रही हो. दिल्ली के नतीजे अलग लड़ने या बिहार में सीनियर पार्टनर बनने का प्लान बिगड़ सकता है.
हालंकि हम मानते हैं कि बीजेपी के लिए राज्यों के चुनाव अलग हैं और जब मोदी का PM वाला का चुनाव होता है वो एक अलग गेम है. दिल्ली के नतीजों से ऐसा कोई मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि 2024 में क्या होगा, लेकिन उसके पहले बीजेपी का बाकी राज्यों के चुनावों में क्या होगा ये सवाल उठना अब लाजमी है. मोदी जी पर ओवर डिपेंडेन्स बीजेपी को राज्यों में मदद नहीं कर पा रहा है. और ये बात बीजेपी को और RSS को भी बेचैन कर रही है. भैय्या जी जोशी ने दिल्ली नतीजों के एक दिन पहले जो कहा है, उसकी बीजेपी में बड़ी चर्चा है. उन्होंने कहा की हिंदू और बीजेपी एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं. बीजेपी का विरोध हिंदुओं का विरोध नहीं है. क्या ये अरविंद केजरीवाल का एंडॉर्स्मेंट है?
अब सवाल कई उठेंगे-
- दिल्ली में CM का चेहरा नहीं देना गलती थी क्या?
- हर्षवर्धन और विजय गोयल जैसे हाउस्होल्ड नामों को इग्नोर करके मनोज तिवारी को सिर्फ सेलिब्रिटी फैक्टर के करण अध्यक्ष बनाना, लोगों को हजम हुआ क्या?
- बीजेपी में लीडरशीप का सेंट्रलाइजेशन क्या इसमें कोर्स करेक्शन की जरूरत है?
- बीजेपी में अब पार्टी स्ट्रक्चर और कैबिनेट में रीस्ट्रक्चर की चर्चा चलेगी
- मूल सवाल हिंदुत्व की हेट पॉलिटिक्स से लोग थक गए है क्या?
- ये गेम अब लॉ ऑफ डिमिनिशिंग का शिकार हो गया है क्या?
भारतीय राजनीति में किसी सवाल का फाइनल जवाब नहीं होता, इसलिए इंतजार कीजिए, अगले चुनावों का और बीजेपी की लर्निंग और आगे रेस्पॉन्स का.
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