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उर्दूनामा: हमारी समझ अपनी जिंदगी को लेकर कितनी ‘मुकम्मल’ है?  

हिंदी फिल्मों के गानों में छिपी उर्दू को करीब से जानिए क्योंकि ये दूरियां तो गलतफहमियां बढ़ाती हैं.

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वीडियो एडिटर: प्रशांत चौहान

कैमरापर्सन: अभिषेक रंजन और शिव कुमार मौर्या

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उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'

हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है

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जिसे दाग देहलवी का ये शेर समझ आया है वो जरूर झूम-झूम कर वाह-वाह करेगा और जिसे नहीं समझ आया उस से हम मुखातिब हैं. इस शेर के जरिए शायर कह रहा है कि उर्दू जुबान ने पूरे हिंदोस्तान में अपनी खूबसूरती और नजाकत का लोहा मनवा दिया है. लेकिन शायर ने इस बात की तरफ भी इशारा कर दिया है कि उर्दू पर सिर्फ उर्दूदानों का ही नहीं बल्कि हर उस इंसान का राज है. हक है जो उर्दू अदब में शौक और यकीं रखता हो.

यानी भारत जैसे मुल्क में जहां 23 आधिकारिक भाषाएं हैं और 700 से ज्यादा बोलियां हैं. वहां उर्दू ने बाखूबी अपना डेरा जमा रखा है. यहां तक की हिंदी फिल्मों के गानों के बारे में ये कहना गलत होगा कि उन में उर्दू छिपी हुई है क्योंकि वो तो  बॉलीवुड के रोम-रोम में बसी हुई है. जाने-अंजाने में हम कोई गाना गाते हुए या डायलॉग मारते हुए उर्दू बोल ही जाते हैं. तो क्यों न जानकर और समझकर ये जुबान बोली जाए?

‘ फिर ले आया दिल मजबूर क्या कीजिए’

मुखड़े कि एक लाइन में गीतकार ने 'मुकम्मल' शब्द का इस्तेमाल किया है.

‘ फिर ले आया दिल मजबूर क्या कीजिए,

दिल कह रहा है,

उसे मुकम्मल कर भी आओ

वो जो अधूरी सी बात बाकी है’

यानी शायर एक ऐसे रिश्ते की ख्वाहिश कर रहा है जिसे वो आधा-अधूरा नहीं बल्कि पूरी तरह से जी-कर खत्म करके आगे बढ़े, पर ऐसा असली जिंदगी में कहां होता है? और इसका जवाब निदा फाजली के एक बहुत मशहूर शेर में है

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता

कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं,

ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता,

चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है

खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

और इन तमाम कमियों के बावजूद हम जीना तो बंद नहीं करते. वो इसलिए क्योंकि जो मुकम्मल तौर से ना मुकम्मल हो, उसी को जिंदगी कहते हैं.

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