वीडियो एडिटर: दीप्ति रामदास
भारत के कई क्रांतिकारी कवियों की तरह ही फैज की कविताएं समय और हालात से परे फासीवाद के खिलाफ खड़ी नजर आईं. कुछ पीढ़ियों बाद भारत के युवा कवि भी कलम से क्रांति लिख रहे हैं.
विश्व कविता दिवस (World Poetry Day) पर मिलिए आज भारत में विरोध-प्रदर्शन की आवाज बन चुके इन युवा कवियों से.
जामिया में पुलिस की बर्बरता के खिलाफ आमिर अजीज की कविता ’सब याद रखा जाएगा’ काफी मशहूर हुआ. विदेश तक में इसका अंग्रेजी तर्जुमा पढ़ा गया.
तुम स्याहियों से झूठ लिखोगे हमें मालूम है
हो हमारे खून से ही हो सही, सच जरूर लिखा जाएगा
सब याद रखा जाएगा
मोबाइल, टेलीफोन, इंटरनेट भरी दोपहर में बंद करके
सर्द अंधेरी रात में पूरे शहर को नजरबंद करके
हथौड़ियां लेकर दफअतन मेरे घर में घुस आना
मेरा सर बदन मेरी मुख्तसर सी जिंदगी को तोड़ जाना
मेरे लख्त-ए-जिगर को बीच में चौराहे पर मार कर
यूं बेअंदाज खड़े होकर झुंड में तुम्हारा मुस्कुराना
सब याद रखा जाएगा
सब कुछ याद रखा जाएगा
दिन में मीठी-मीठी बातें करना सामने से
सब कुछ ठीक है हर जुबां में तुतलाना
रात होते ही हक मांग रहे लोगों पर लाठियां चलाना, गोलियां चलाना
हम ही पर हमला करके हम ही को हमलावर बताना
सब याद रखा जाएगा
मैं अपनी हड्डियों पर लिखकर रखूंगा ये सारे वारदात
तुम जो मांगते हो मुझसे मेरे होने के कागजात
अपनी हस्ती का तुमको सबूत जरूर दिया जाएगा
ये जंग तुम्हारी आखिरी सांस तक लड़ा जाएगा
सब याद रखा जाएगा
ये भी याद रखा जाएगा कि किस तरह तुमने वतन को तोड़ने की साजिशें की
ये भी याद रखा जाएगा कि किस जतन से हमने वतन को जोड़ने की ख्वाहिशें की
जब कभी भी जिक्र आएगा जहां में दौर-ए-बुजदिली का तुम्हारा काम याद रखा जाएगा
जब कभी भी जिक्र आएगा जहां में दौर-ए-जिंदगी का हमारा नाम याद रखा जाएगा
कि कुछ लोग थे जिनके इरादे टूटे नहीं थे लोहे की हथौड़ियों से
कि कुछ लोग थे जिनके जमीर बिके नहीं थे इजारदारों की कौड़ियों से
कि कुछ लोग थे जो टिके रहे थे तूफान-ए-नू के गुजर जाने के बाद तक
कि कुछ लोग थे जो जिंदा रहे थे अपने मौत की खबर आने के बाद तक
भले भूल जाए पलक आंखों को मूंदना
भले भूले जमीं अपनी धूरी पर घूमना
हमारे कटे परों की परवाज को
हमारे फटे गले की आवाज को
याद रखा जाएगा
तुम रात लिखो, हम चांद लिखेंगे
तुम जेल में डालो, हम दीवार फांद लिखेंगे
तुम FIR लिखो, हम तैयार लिखेंगे
तुम हमें कत्ल कर दो, हम बनके भूत लिखेंगे, तुम्हारी कत्ल के सारे सबूत लिखेंगे
तुम अदालतों से बैठकर चुटकुले लिखो
हम सड़कों, दीवारों पर इंसाफ लिखेंगे
बहरे भी सुन लें, इतनी जोर से बोलेंगे
अंधे भी पढ़ लें, इतना साफ लिखेंगे
तुम काला कमल लिखो
हम लाल गुलाब लिखेंगे
तुम जमीं पर जुल्म लिख दो
आसमां पर इंकलाब लिखा जाएगा
सब याद रखा जाएगा
सब कुछ याद रखा जाएगा
ताकि तुम्हारे नाम पर ताउम्र लानतें भेजी जा सके
ताकि तुम्हारे मुजस्समों पर कालिखें पोती जा सके
तुम्हारे नाम तुम्हारे मुजस्समों को आबाद रखा जाएगा
सब याद रखा जाएगा
सब कुछ याद रखा जाएगा
शाहीन बाग के ऐतिहासिक आंदोलन पर दरब फारूकी की लिखी ‘नाम शाहीन बाग है’ लोगों की जुबान पर चढ़ चुका है. वहीं नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली हिंसा पर अभिनव नागर की ’होली अबकी पूछ रही...’ हिंसा के दर्दनाक मंजर को लेकर सवाल खड़े करती है.
आपा की सुर्ख बिरयानी में
वो सैफरन साफ-साफ दिखता था
हरा-भरा कबाब शर्मा का
अक्सर, अनवर के तवे पे पकता था
मजहब में जब बांटा न था
हर रंग में देश रंगा था
होली अबकी पूछ रही
तेरा शहर क्यूं इतना बेरंगा था?
मोहल्ले के बच्चों ने वो दीवार जो मिलकर रंगी थी
किसी ने फूलों में रंग भरा था, उस पर डाली किसी की टंगी थी
भरकर एक दिन रंग अपना, कोई नफरत की पिचकारी मार गया
रंग पुराने बिखेर के कोई, नक्शा अपना उतार गया
पूछें बच्चे ये रंग कौन सा?
हमारी तो पहचान तिरंगा था
होली अबकी पूछ रही
तेरा शहर क्यूं इतना बेरंगा था?
गर्म-गर्म गुजियाओं से जब
सौहार्द का रस टपकता था
पिस्ता अफगानी या किशमिश देसी?
कहां किसी को कोई फर्क पड़ता था
नहाकर फिर गली में सबका
जब होली मिलन होता था
काला रंग जो छूटा नहीं
बस वही एक विलेन होता था
अबकी किसी ने सियासी गुब्बारों के निशाने ऐसे लगाए हैं
तन भिगोए नहीं पानी ने, जलते घर बुझाए हैं
जिस सड़क पे सब नाचते गाते
उसपे मौत का नाच क्यूं नंगा था?
होली अबकी पूछ रही
तेरा शहर क्यूं इतना बेरंगा था?
हां रिवाज है, होली पर, और मोहल्लों के लोग आते हैं
रंगों में जो चेहरा पोतकर, चुपके से रंग जाते हैं
पर अबकी होली से पहले, कुछ रंगों के कारोबारी आए
लाल नहीं जिन्हें लहू पसंद था, रिश्ते फूंके, घर जलाए
जब तक रंग उतरा मजहब का
समझे, कोई रंग नहीं वो दंगा था
होली अबकी पूछ रही
तेरा शहर क्यूं इतना बेरंगा था?
जातीय उत्पीड़न पर रोहित वेमुला की कविता ‘वन डे’
“एक दिन आप मुझे इतिहास में पाओगे
खराब रोशनी में, पीले पन्नों में
और आप सोचेंगे कि मैं बुद्धिमान था
लेकिन उस दिन की रातआप मुझे याद करेंगे, मुझे महसूस करेंगे
और आप मुस्कुराएंगे
और उस दिन, मैं फिर से जिंदा हो जाऊंगा”
मॉब लिंचिंग पर नवीन चौरे की कविता ‘वास्तविक कानून’
इक सड़क पे ख़ून है
तारीख़ कोई जून है
एक उँगली है पड़ी
और उसपे जो नाख़ून है
नाख़ून पे है इक निशां
अब कौन होगा हुक्मरां
जब चुन रही थीं उँगलियाँ
ये उँगली भी तब थी वहाँ
फिर क्यों पड़ी है ख़ून में?
जिस्म इसका है कहाँ ?
मर गया के था ही न?
कौन थे वो लोग जिनके हाथ में थी लाठियाँ ?
कोई अफ़सर था पुलिस का ?
न्यायाधीश आये थे क्या?
कौन करता था वक़ालत ?
फ़ैसला किसने दिया ?
या कोई धर्मात्मा था ?
धर्म के रक्षक थे क्या ?
धर्म का उपदेश क्या था ?
कौन थे वो देवता ?
न पुलिस न पत्रकार
नागरिक हूँ ज़िम्मेदार
सीधे-सीधे प्रश्न हैं
सीधा उत्तर दो मुझे
है सड़क ख़ून क्यों ?
वो लोग आख़िर कौन थे ?
आदमी छोटे हैं साहिब, हम का पड़ते बीच में
हम बचाने भी गए थे, तीन पड़ गए खींच के
मोटर साइकल लाये थे, रोड पे कर दी खड़ी
आठ-दस लौंडे- लपाड़े, लाठियाँ इत्ती बड़ी
गाली दे के पूछा, पेट में घूँसा दिया
अधमरा वो गिर पड़ा फिर दे दनादन लाठियाँ
पाँव की हड्डी मिटा दी, माँस की लुगदी बना दी
ख़ून तो इत्ता बहा के हमसे न देखा गया।
एक उनमें होश में था, जाने उसको क्या पड़ी
जेब से चाकू निकाला, उँगली उसकी काट ली
आख़िरी था वार जिसका, उनका वो सरदार था
उसने ही सबको बताया, जो मरा ग़द्दार था
"हक़ नहीं इनको हमारे देश के इक वोट पर
दीमकों को ना रखो ग़र जूतियों की नोंक पर
सर पे ये चढ़ जायेंगे, ये कई गुना बढ़ जायेंगे
हुक्मरां होगा इन्ही का, आग मूतेंगे सभी
पैर के नीचे कुचल दो, जीत होगी धर्म की"
हम तो ख़ुद डर गए थे साहिब, ख़ौफ़ उनको था नहीं
किस नसल के लोग थे वो कुछ समझ आया नहीं
न कोई इंसान उनमें, न कोई था आदमी
साथ मिल के शेर बन गए गीदड़ों की भीड़ थी
नोंच खाने की तलब थी, जानवर तासीर थी
हाथ में थीं लाठियाँ तो भैंस भी उनकी ही थी
और ये कोई जुमला नहीं है, वास्तविक कानून है
हमसे काहे पूछते हो, क्यों सड़क पे ख़ून है?
पूछो इस उँगली से तुम, क्या यहाँ घटना घटी?
ज़ुर्म इसने क्या किया था, जिस्म से ये क्यों कटी ?
मैं तो समझा मर चुकी है
उँगली में पर जान थी
स्याही उस नाख़ून पे, जो देश का सम्मान थी
बोली, अब क्या चाहिए, वोट था दे तो दिया
जी रहे थे क़ैद में, मौत दे दी, शुक्रिया
नाख़ून पे जम्हूरियत है,जम गया है ख़ून भी
आप ही तो हो अदालत, आप हो कानून भी
आप से कैसी शिकायत, आप तो हैं नींद में
आप जैसे सौ खड़े थे, जाहिलों की भीड़ में
सौ में से ग़र एक भी दे दे गवाही आपको
मैं ख़ुशी से मान लूँगा भीड़ के इंसाफ़ को
कीजिये इस पर बहस अब पैनलों में बैठकर
क्या हुआ मोहन का वादा? हैं कहाँ अंबेडकर?
सब बराबर हैं अगर तो बस मुझे ही क्यों चुना?
तुम बताओ कौन देगा घर को मेरे रोटियाँ?
असलियत से बेख़बर हो, शहरी हो, दिल्ली से हो
इक हिदायत दे रहा हूँ, सोच के बोला करो
तुम सवालों से भरे हो, क्या तुम्हें मालूम है?
भीड़ से कुछ पूछना भी जानलेवा ज़ुर्म है
तफ़्तीश करने आये हो, खुल के कर लो शौक़ से
फ़र्क पड़ता ही कहाँ है? एक-दो की मौत से
चार दिन चर्चा उठेगी, डेमोक्रेसी लायेंगे
पाँचवें दिन भूल के सब काम पे लग जायेंगे
काम से ही काम रखना
हाँ! मग़र ये याद रखना
कोई पूछे कौन थे
बस तुम्हें इतना है कहना
भीड़ थी कुछ लोग थे
फिर भी ग़र कोई ज़िद पकड़ ले
क्या हुआ किसने किया?
सोच के उँगली उठाना
कट रही हैं उंगलियाँ
बात को कुछ यूँ घुमाना
नफ़रतों का रोग थे
धर्म न कोई ज़ात उनकी
भीड़ थी कुछ लोग थे
रेप और महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर साबिका अब्बास नकवी की कविता ‘मेरी साड़ी’.
पूरी कविता सुनने के लिए क्लिक करें.
कलम की ताकत हमेशा तलवार से ज्यादा होती है!
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