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हरियाणा:क्या जाटलैंड में नॉन-जाट पॉलिटिक्स की जड़ें जम चुकी हैं?  

चुनाव में लहराए भगवा झंडे ने इसी साल सितंबर-अक्टूबर में होने वाले विधानसभा चुनाव की दिशा भी तय कर दी है.

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वीडियो एडिटर: विशाल कुमार

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(नोट: 3:19 पर हमने बीरेंद्र सिंह के बेटे बृजेंद्र सिंह को हारा हुआ उम्मीदवार बता दिया है लेकिन वो हिसार से 6 लाख से ज्यादा वोट लेकर बीजेपी की टिकट पर जीते हैं. हमें गलती के लिए खेद है.)

कहते हैं यहां चौपाल के चूल्हों पर राजनीति की रोटियां सेकी जाती हैं और हुक्कों की गुड़गुड़ाहट पर उम्मीदवारों की तकदीर के फैसले होते हैं. उसी हरियाणा का फैसला है- फिर एक बार मोदी सरकार. क्लीन स्वीप. 10 में से 10 सीटें बीजेपी को.

हरियाणा के सियासी इतिहास को देखते हुए इसे अजूबा भी कह सकते हैं.

हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने करीब 35% वोट शेयर के साथ 7 सीट जीती थी लेकिन वो देश भर में चली मोदी लहर का असर था. उसी लहर के बूते हरियाणा में उसी साल हुए विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने सरकार बनाई. लेकिन उससे पहले बीजेपी का वहां कोई फुटप्रिंट नहीं था.

कुछ साल पहले तक हरियाणा में बीजेपी को जीटी रोड पार्टी कहा जाता था जिसे चंद जिलों के कुछ शहरी इलाकों में ही लोग वोट देते थे. 
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तो क्या मौजूदा चुनाव में लहराए भगवा झंडे ने इसी साल सितंबर-अक्टूबर में होने वाले विधानसभा चुनाव की दिशा भी तय कर दी है?

हरियाणा में एक वक्त नारा लगता था- हरियाणा तेरे तीन लाल, देवी, बंसी, भजनलाल.

चौधरी बंसीलाल तो कांग्रेस पार्टी से थे लेकिन देवीलाल और भजनलाल क्षेत्रीय क्षत्रप थे. उनकी चौथी पीढ़ी तक की सियासत उनकी विरासत पर चलती रही. पिछले चुनावों तक चौधरी देवीलाल और भजनलाल के परिवारों की पार्टियां राजनीति के मैदान में अपनी दावेदारी ठोंकती रहीं. लेकिन अब लगता है कि रीजनल पार्टियों के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है.

क्षेत्रीय पार्टियों के लिए अस्तित्व का संकट

सबसे पहले बात इंडियन नेशनल लोकदल यानी इनेलो की. देवीलाल परिवार का इनेलो, चाचा-भतीजे की महीनों चली तकरार के बाद पिछले साल दिसंबर में दो फाड़ हो गया और चौथी पीढ़ी के युवाओं यानी दुष्यंत और दिग्विजय चौटाला ने जननायक जनता पार्टी यानी जेजेपी(JJP) बनाई. जेजेपी ने इनेलो (INLD) के परंपरागत कैडर में सेंध लगाई लेकिन न खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम, न इधर के हुए न उधर के!

हाल में हुए जींद विधानसभा चुनाव गंवाने के बाद अब दुष्यंत चौटाला ने हिसार की अपनी लोकसभा सीट भी गंवा दी.

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अब बात करते हैं भजन लाल की विरासत की. भजन लाल जनता पार्टी से कांग्रेस में आए. फिर हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) पार्टी बनाई. भजन लाल तीन बार हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे. लेकिन उनके बेटे कुलदीप बिश्नोई पिता की विरासत संभाल नहीं पाए. पिछला चुनाव उन्होंने बीजेपी से मिलकर लड़ा. फिर पूरी पार्टी का ही कांग्रेस में विलय कर दिया. इस बार कांग्रेस की टिकट पर हाॅटसीट हिसार से लड़े भजन लाल के पोते भव्य बिश्नोई बुरी तरह से हार गए.

कांग्रेस का भी हाल-बेहाल

2 टर्म के मुख्यमंत्री और चार बार सांसद रहे भूपेंद्र हुडा हरियाणा में कांग्रेस की धुरी रहे. लेकिन  इस चुनाव में वो और उनके बेटे दीपेंद्र हुडा भी चुनाव हार गए. इन दो जाट दिग्गजों की हार बड़ी कहानी कहती है.

बीजेपी की जीत के 3 फैक्टर

पहला- जाट VS नॉन जाट

साल 2016 के जाट आंदोलन ने हरियाणा में जाट VS नॉन जाट की पॉलिटिक्स को एक अलग लेवल पर पहुंचा दिया. कारोबारियों-व्यापारियों की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी नॉन जाट वोट का कंसोलिडेशन अपनी तरफ करने में कामयाब रही. तो क्या जाटलैंड में नॉन-जाट पॉलिटिक्स की जड़ें जम चुकी हैं? और जाटों का दबदबा खत्म हो चुका है?

दूसरा - वंशवाद की राजनीति को ना!

कई दूसरे राज्यों की तरह हरियाणा भी वंशवाद की राजनीति का शिकार है. इस बार देवीलाल के 3 पड़पोते, बंसीलाल की एक पोती, भजन लाल का एक पोता, बीरेंद्र सिंह और भूपेंद्र हुडा के एक-एक बेटे चुनाव मैदान में थे. बीरेंद्र सिंह के बेटे बृजेंद्र सिंह को छोड़ लोगों ने सबको नकार दिया. बृजेंद्र सिंह ने पीएम मोदी के नाम पर वोट मांगे और हिसार से जीत भी हासिल की.

तीसरा- पीएम मोदी का चेहरा

या फिर ऐसा भी हो सकता है कि हरियाणा की राजनीति में जाटों का दबदबा भी है और राज्य ने वंशवाद की सियासत को ना भी नहीं कहा है. संभव है कि इन दोनों वजहों के बजाय मोदी फैक्टर ने काम किया है और दरअसल, हरियाणा ने फिर एक बार मोदी सरकार पर मुहर लगाई है.

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