वीडियो एडिटर- विवेक गुप्ता
कोटातला गांव में 90 साल की बूढ़ी महाराष्ट्रियन महिला पंचु बाई जिसे पूरा कोटातला गांव प्यार से मौसी कहकर बुलाता था उनके गांव छोड़कर जाने के गम में पूरे गांव की आंखें नम हैं. दरअसल पंचूबाई दिमागी तौर पर अस्थिर हैंं. वो 43 साल पहले भटकते हुए इस गांव में आ गईं तो इसरार खान के पिता ने उन्हें अपने मुस्लिम बहुल गांव में शरण दे दी.
कुछ दिन पहले ही पंचू बाई की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल कराई गईं जिसके बाद ये तस्वीरें नागपुर में रहने वाले पृथ्वी कुमार शिन्दे पृथ्वी कुमार शिन्दे को मिलीं.
ये पता चलते ही पृथ्वी कुमार शिन्दे अपनी पत्नी के साथ अपनी दादी को वापस लाने नागपुर से मध्य प्रदेश के दमोह चले आए. लेकिन जब वो वापस जा रही थीं तो गांव वालों के आंसू छलक आए.
कोटातला गांव के जो लोग हैं मैं इन्हें शुक्रिया अदा करना चाहूंगा कि उन्होंने 43 साल तक हमारी दादी की सेवा की है. मुझे दुख इस बात का हो रहा है कि मैं इनके बीच से दादी को लेकर जा रहा हूं. मुझे खुशी भी इस बात की है कि इन्होंने मेरी दादी को अपना परिवार समझा. लेकिन अब अपनी दादी की सेवा का मौका मुझे चाहिए है.पृथ्वी कुमार शिन्दे, पंचू बाई के पोते
गांव वालों के ये आंसू गवाह हैं कि हिंदू हो या मुस्लिम, इस देश की रगों में एक ही रंग का लहू बहता है. सबका जिस्म और दिल एक ही मिट्टी और पानी से बना है जो वक्त आने पर एक सा आंखों के रस्ते पिघलता है. मध्य प्रदेश के दमोह में बिना जान पहचान के एक हिंदू महिला को मुस्लिम परिवार ने 43 साल तक अपने घर में शरण दी और जब वो जाने लगी तो पूरा गांव रोने लगा..
इसरार खान जिनके घर में पंचू बाई रहा करती थीं वो वो बताते हैं कि "उनके पिता को 40 साल पहले जंंगल में मधुमक्खी के हमले में घायल अवस्था में मिली थीं. पिता उनको घर ले आए थे और उनकी देखरेख की. पिता के गुजर जाने के बाद हमने इस परंपरा को आगे बढ़ाया. गांव वाले भी दुखी हैं. लेकिन उनके परिवार को पता चल गया है इसलिए वो अब सेवा करना चाहते हैं. अच्छा है कि वो अपनी उम्र के अंतिम दौर में अपने परिवार के पास जा रही हैं."
स्थानीय लोग बताते हैं कि वो पंचूबाई को प्यार से मौसी कहकर बुलाते थे. लोगों की बचपन की काफी सारी यादें इनसे जुड़ी हुई थीं.
स्थानीय समाजसेवी अजय लाल बताते हैं कि ये वाकया देश के लिए एक मिसाल है. आज के माहौल में जब धर्म और जाति के नाम पर संघर्ष बढ़ रहा है वहां तब ये घटनाएं एक प्रेरणा हैं.
अकबर इलाहाबादी का शेर है- 'मज़हबी बहस मैंने की ही नहीं, फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं' गांव, कस्बों, शहरों में हमारी मजहबी एकता की ऐसी कई कहानियां सुनने को मिलती रहती हैं. जरूरत है कि ऐसे उदाहरणों से सीखा जाए. आपसी एकता को और मजबूत किया जाए.
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