वो दिन गए जब सरकारें चुनाव से बनती थीं. अब वो जोड़तोड़ से बनती हैं. चुनाव में बहुमत किसी भी पार्टी को मिले लेकिन नेताओं की मौकापरस्ती, पैसे का खेल और दलबदल कानून की बेचारगी मिलकर तय करते हैं कि सत्ता किस पार्टी के पास रहेगी.
आप बिलकुल ठीक समझे. मैं बात कर रहा हूं मध्य प्रदेश की जहां करीब 15 महीने पहले सरकार बनाने वाले कमलनाथ कोरोनावयरस के सहारे फ्लोर टेस्ट का इम्तेहान टाल रहे हैं और कुर्सी की जंग एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुकी है.
कथा जोर गरम है कि...
मध्य प्रदेश में विधानसभा सत्र भले ही दस दिन के टल गया लेकिन कांग्रेस सरकार के सिर पर लटक रही तलवार अब भी बरकरार है. बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का आरोप है कि कमलनाथ सरकार फ्लोर टेस्ट का सामना करने के बजाए भाग खड़ी हुई.
उधर मुख्यमंत्री कमलनाथ का आरोप है कि कांग्रेस के विधायकों को बीजेपी ने बंगलुरु में कर्नाटक पुलिस के जरिए ‘बंदी’ बनाकर रखा है. ऐसे में फ्लोर टेस्ट का कोई मतलब नहीं है.
लेकिन नौबत सीधे यहां तक नहीं पहुंची. उससे पहले पुलों के नीचे से बहुत पानी बहा.
ऐसे हुई सियासी संकट की शुरुआत
मध्य प्रदेश का हालिया सियासी संकट तब शुरू हुआ, जब 10 मार्च यानी होली के दिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पार्टी से इस्तीफे का ऐलान किया. 18 साल कांग्रेस में रहे सिंधिया पार्टी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए. इसी बीच मध्य प्रदेश कांग्रेस के 22 विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. कांग्रेस ने आरोप लगाया कि उसके विधायकों को बंधक बनाया गया है.
मध्य प्रदेश विधानसभा के स्पीकर ने 22 में से 6 विधायकों का इस्तीफा ही स्वीकार किया है. 16 बागी विधायकों के इस्तीफे पर फैसला बाकी है.
ऐसे में एमपी विधानसभा की मौजूदा तस्वीर बनती है ये-
करोनावायरस बना सहारा
16 मार्च को मध्य विधानसभा सत्र की शुरुआत के साथ अटकलें इसी बात की लग रही थीं कि कमलनाथ सरकार का फ्लोर टेस्ट होगा या नहीं? यानी 22 विधायकों के इस्तीफे के बाद बनी स्थिति में उन्हें बहुमत साबित करने को कहा जाएगा या नहीं?
अगर बंगलुरु में मौजूद 16 विधायकों की गैरमौजूदगी मे फ्लोर टेस्ट होता तो कमलनाथ सरकार जाहिर तौर पर उसमें पास नहीं हो पाती. लेकिन राजनीतिक नियम-कायदों के कमरे में इतनी खिड़कियां मौजूद हैं कि बचने का रास्ता निकल ही आता है.
सत्र की शुरुआत राज्यपाल लालजी टंडन के अभिभाषण से हुई. इसके बाद बीजेपी विधायकों की विधानसभा में फ्लोर टेस्ट की मांग के साथ हंगामा शुरू हो गया.
इसी बीच कमलनाथ सरकार में मंत्री गोविंद सिंह कोरोनावायरस के खतरे को ढाल बनाकर खड़े हो गए. उन्होंने केंद्र सरकार की एडवाइजरी का भी जिक्र किया. इसके बाद विधानसभा स्पीकर एनपी प्रजापति ने गोविंद सिंह की मांग स्वीकार करते हुए विधानसभा की कार्यवाही 26 मार्च तक स्थगित कर दी.
विधायकों की परेड
10 दिन के लिए बात टल गई. लेकिन खेल यहीं खत्म नहीं हुआ. शिवराज सिंह चौहान ने विरोध दर्ज करवाते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया. दलील ये कि कमलनाथ सरकार को फ्लोर टेस्ट करवाने का निर्देश दिया जाए. सुप्रीम कोर्ट 17 मार्च को इस याचिका पर सुनवाई करेगा.
इस बीच राज्यपाल लालजी टंडन ने कहा है अगर कमलनाथ ने 17 मार्च को ही बहुमत साबित ना किया तो उनकी सरकार को अल्पमत में माना जाएगा.
इससे पहले शिवराज 106 विधायकों की सूची लेकर राजभवन जा पहुंचे और विधायकों की परेड करवा दी. संख्याबल की बात करें तो बीजेपी 107 विधायकों का दावा कर रही है. अगर 22 विधायकों की गैरमौजूदगी में फ्लोर टेस्ट हुआ तो शिवराज फायदे में रहेंगे.
मध्य प्रदेश में नतीजा जो भी लेकिन सवाल राजनीतिक मर्यादा का है. कभी ये मर्यादा कर्नाटक की शक्ल में टूटती है, कभी गोवा की, कभी अरुणाचल प्रदेश की तो कभी महाराष्ट्र के सियासी ड्रामे की शक्ल में.
नेताओं का दलबदल रोकने के लिए कानून है. लेकिन पिछले पैंतीस साल में चुनाव-दर-चुनाव हमारे माननीयों ने इसे कुछ इस अंदाज में ठेंगा दिखाया है कि कानून पूरी तरह बेमतलब दिखता है.
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