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दिल्ली चुनाव: क्या 1993 की तरह मुसलमानों के रुख को मोड़ेगा CAA?

1993 का चुनाव दिल्ली को एक आधे राज्य का दर्जा मिलने के बाद पहला विधानसभा चुनाव था.

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दिल्ली में विधानसभा चुनाव का आगाज हो चुका है. लेकिन राजधानी के कई इलाकों में, एक और बड़ी लड़ाई लड़ी जा रही है और वो है नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन. इनका सबसे ज्यादा असर शाहीन बाग, जामा मस्जिद और सीलमपुर जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में देखा जा रहा है. कई लोगों का मानना है कि दिल्ली के मुसलमान, आज वहीं खड़े हैं, जहां वो 1993 में थे.

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1993 में क्या हुआ था?

1993 का चुनाव दिल्ली को एक आधे राज्य का दर्जा मिलने के बाद पहला विधानसभा चुनाव था. लेकिन मुसलमानों के जहन में एक और वाकया सबसे ज्यादा हावी था और वो वाकया है 6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद का गिराया जाना.

उस चुनाव में मुसलमानों को एक तरफ BJP से खतरा महसूस हो रहा था, तो दूसरी तरफ कांग्रेस से नाराजगी भी थी. क्योंकि उनकी नजर में बाबरी मस्जिद की शहादत इन दोनों पार्टियों की मिली भगत थी. इन हालातों में दिल्ली के कई मुस्लिम बहुल इलाकों में मुसलमानों ने कांग्रेस का दामन छोड़ जनता दल का हाथ थामा.

इस वजह से दिल्ली विधानसभा में तीन धाकड़ मुस्लिम नेता जीत कर आए- पुरानी दिल्ली के मटिया महल से शोएब इकबाल, उत्तर पूर्व दिल्ली के सीलमपुर में चौधरी मतीन अहमद, दक्षिण पूर्व दिल्ली के ओखला से परवेज हाशमी.

ये तीनों नेता जनता दल के टिकट पर जीते. सिर्फ हिंदू सांप्रदायिकता की प्रतिक्रिया में इन नेताओं का उदय नहीं हुआ, बल्कि इसका कारण कांग्रेस का मुसलमानों के प्रति सामंती और अभिजात्यपूर्ण व्यवहार भी था.

उदाहरण के लिए मटिया महल में शोएब इकबाल ने राजनीतिक परिवारों के दो उम्मीदवारों को हराया- बीजेपी की बेगम खुर्शीद और कांग्रेस के महमूद प्राचा.

इस सीट के अंतर्गत समूचा जामा मस्जिद इलाका आता है और जामा मस्जिद के शाही इमाम से टकराकर भी इकबाल जीतते रहे हैं. उनकी सफलता उस रूढ़िवादी सोच को भी खारिज करने वाली रही है जो धर्मगुरुओं के इशारे पर मतदान किया करते हैं.

उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित ओखला में खासतौर पर और सीलमपुर में भी जीत के पीछे एक और कारण रहा है- आंतरिक प्रवास.

1984 में दिल्ली में सिख विरोधी हिंसा और देशभर में बढ़ते सांप्रदायिक तनावों के कारण दिल्ली के मुसलमानों में डर का भाव पैदा हुआ. मुस्लिम विरोधी भेदभाव की घटनाएं भी बढ़ीं. इन घटनाओं ने मुसलमानों को ‘यहूदी बस्तियों’ में तब्दील कर दिया. कई नए मुस्लिम प्रवासी भी यहां इकट्ठा हुए जो यूपी और बिहार जैसे राज्यों से आए थे.

ओखला एक उदाहरण है जिसकी डेमोग्राफी भी बदली और राजनीतिक रूप से भी जहां बदलाव हुआ. आजादी के बाद के पहले कुछ दशकों तक यह इलाका सघन था और यहां मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र से आए लोगों के साथ-साथ मोदी मिल जैसी औद्योगिक इकाइयों से जुड़े लोग रहते थे.

‘कांग्रेस बनाम जनता दल’ से ‘आप बनाम कांग्रेस’ तक

अब सीएए पर जारी प्रदर्शनों के बीच 1993 जैसा मंथन ही दिल्ली में चल रहा है.

वर्तमान में मुस्लिम बहुल सीटों पर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच स्पर्धा है. दिलचस्प बात ये है कि 1993 में जहां जनता दल था, आज वहां कांग्रेस है. सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1980 और 1990 के दशक में लगे ‘सांप्रदायिक’ धब्बे को धोया है और राष्ट्रीय स्तर पर जनता दल का पतन हुआ है. इससे जनता दल से जुड़े मुस्लिम नेताओं को अपने में समाहित करने का मौका कांग्रेस को मिला.

परवेज हाशमी और चौधरी मतीन 1990 के दशक में सबसे पुरानी पार्टी में शामिल हुए. 2009 में आरजेडी उम्मीदवार आसिफ मोहम्मद खान 2013 में कांग्रेस में शामिल हुए और ओखला से पार्टी उम्मीदवार बने. शोएब इकबाल सबसे आखिर में 2014 में कांग्रेस से जुड़े

एक समांतर प्रक्रिया चलती रही. हिन्दू वोट कांग्रेस से खिसक कर आप और बीजेपी से जुड़ते चले गये. यही वह बदलाव है जिसकी वजह से आप सीएए को लेकर नरम होने को मजबूर है. इसलिए कांग्रेस इस विषय पर अत्यधिक सक्रियता दिखा सकती है.

मुस्लिम नेताओं की मजबूत पंक्ति के साथ कांग्रेस आप पर आरोप लगा रही है कि वह सीएए विरोधी प्रदर्शनों को मजबूती से समर्थन नहीं दे रही है. अमानतुल्ला खान को छोड़कर कोई आप नेता खुलकर प्रदर्शनकारियों के समर्थन में सामने नहीं आया है.

सीएए विरोधी प्रदर्शनों को लेकर आप के नरम रुख की वजह से यह संभव है कि कुछ मुस्लिम बहुल सीटों पर कांग्रेस को फायदा हो. बहरहाल मुसलमानों के बीच आपको लेकर ऐसा असंतोष नहीं है जैसा 1993 में कांग्रेस के खिलाफ दिखा था.

सीएए की तलवार दोनों ओर से काटती है. यह कांग्रेस को कुछ स्थानों पर मदद करती है जहां इसके उम्मीदवार मजबूत हैं, वहीं यह राज्य के बाकी हिस्सों में मुख्य बीजेपी विरोधी पार्टी होने की वजह से ‘आप’ के साथ मजबूती से खड़ी दिखती है. बीजेपी को भी उम्मीद है कि इस मुद्दे से हिन्दू वोट उसके पीछे लामबंद होगा.

दिल्ली में कहां सघन है मुस्लिम आबादी?

2011 की जनगणना के मुताबिक दिल्ली में मुसलमानों की आबादी 12.8 प्रतिशत है लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों में यह अलग-अलग है। ज़िलों के हिसाब से सेंट्रल दिल्ली में मुसलमानों की आबादी 33.4 प्रतिशत है तो उत्तर पूर्व दिल्ली में 29.3 प्रतिशत. वहीं दक्षिण दिल्ली में यह 5 फीसदी से भी कम है.

इन तहसीलों में तुलनात्मक रूप से अधिक सघन है मुस्लिम आबादी

  • दरियागंज (मध्य) : 64.7 फीसदी
  • सदर बाजार (उत्तर) : 46.8 फीसदी
  • कोतवाली (उत्तर) : 34.8 फीसदी
  • सीलमपुर (उत्तर-पूर्व) : 33.6 फीसदी
  • शाहदरा (उत्तर पूर्व) : 30.7 फीसदी
  • डिफेंस कॉलोनी (दक्षिण) : 29.7 फीसदी

दिल्ली में चार विधानसभा क्षेत्र मुस्लम बहुल हैं और 1993 के बाद से इन क्षेत्रों ने केवल मुसलमान उम्मीदवारों को ही चुना है : मटिया महल, बल्लीमारन, सीलमपुर और ओखला.

दो अन्य सीटें हैं जहां मुसलमानों की आबादी 40 फीसदी है: मुस्तफाबाद और बाबरपुर. दोनों उत्तर पूर्व दिल्ली में हैं. लेकिन इन क्षेत्रों का चुनावी अनुमान थोड़ा अलग रहा है.

मुस्तफाबाद नया विधानसभा क्षेत्र है जहां 2008 और 2013 में मुस्लिम विधायक कांग्रेस के हसन अहमद चुने गए. लेकिन 2015 में वे बीजेपी के जगदीश प्रधान से चुनाव हार गए. इसकी वजह मुख्य रूप से बीजेपी विरोधी वोटों का आप और कांग्रेस में बंट जाना रहा.

बाबरपुर की डेमोग्राफी भी तकरीबन ऐसी ही रही लेकिन इसने कभी मुस्लिम विधायक को नहीं चुना. वर्तमान में वरिष्ठ आप नेता गोपाल राय यहां का प्रतिनिधित्व करते हैं.

कई अन्य सीटें भी हैं जहां मुसलमानों की अच्छी खासी आबादी है जैसे शाहदरा, सीमापुरी, रिठाला, चांदनी चौक, सदर बाजार, जंगपुरा, कालकाजी और त्रिलोकपुरी.

क्यों बंटेंगे वोट?

जब 2012 में दिल्ली के राजनीतिक परिदृश्य पर आप का उदय हुआ तो मुसलमानों को थोड़ा संदेह था कि यह बीजेपी को हरा सकती है. इसलिए 2013 के विधानसभा चुनाव में जब आप ने 28 सीटें जीती थी तब ज्यादातर मुस्लिम बहुल सीटें कांग्रेस को गयी थी.

बहरहाल, 2014 में मुसलमान आप की ओर चले गए.

तब से ज्यादतर मुस्लिम बहुल सीटों पर बीजेपी विरोधी वोटों की निर्णायक एकजुटता एक पार्टी के पीछे दिखी है. 2015 के विधानसभा चुनाव में यह पार्टी आप थी और 2019 के लोकसभा चुनाव में यह पार्टी कांग्रेस रही.

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