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Qपाॅडकास्ट: शकील बदायूंनी, जो भी हो तुम खुदा की कसम, लाजवाब हो

आज भी शकील बदायूंनी के गानों से समां बंध जाता है.

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चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो
जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो

अपने महबूब की तारीफ में बरसों तक आशिकों की जुबान पर चढ़ा रहा ये लाजवाब गीत लिखा था शकील बदायूंनी ने. हिंदी सिनेमा के संगीत की नदी में शकील बदायूंनी सुकून का वो जजीरा है, जिस पर हर संगीत प्रेमी ठहरना चाहता है, उसे महसूस करना चाहता है, गुनगुनाना चाहता है.

महान संगीतकार नौशाद के साथ शकील ने हिट गानों की वो विरासत दी, जिसका कर्ज बॉलीवुड शायद कभी नहीं उतार पाएगा.

संगीतकार हेमंत कुमार और रवि की धुनों पर भी शकील के गीतों ने वो समां बांधा की आज भी संगीत की महफिलें उनके बिना अधूरी लगती हैं.

जब चली ठंडी हवा, जब उठी काली घटा
मुझको ए जान-ए-वफा, तुम याद आए

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रूमानी अफसानों का बादशाह कहे जाने वाले शकील बदायूंनी का जन्म 3 अगस्त 1916 को उत्तर प्रदेश के बदायूं में हुआ था. अदब की दुनिया यानी शायरी की तरफ उनका झुकाव दूर के रिश्तेदार जिया उल कादिरी की वजह से हुआ. उन्हीं से मुतासिर होकर शकील ने शेर-ओ-शायरी को अपनी जिंदगी बना लिया.

1936 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ही शकील बदायूंनी ने मुशायरों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था. अलीगढ़ में पढ़ाई के बाद शकील बदायूंनी ने दिल्ली का रुख किया. रोजी-रोटी के लिए सप्लाई ऑफिसर की नौकरी पकड़ी, लेकिन अपना शौक पूरा करने के लिए मुशायरों में लगातार हिस्सा लेते रहे.

कहते हैं कि शकील बदायूंनी जब ट्रेन से एक शहर से दूसरे शहर जाते थे, तो उन्हें मिलने के लिए रेलवे स्टेशनों पर लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी.

लेकिन जिन परिंदों की फितरत आजाद होती है, वो पिंजरों में नहीं रह पाते. शकील को भी हर महीने आसानी से मिलने वाली तनख्वाह का लालच नहीं रोक पाया और एक दिन नौकरी छोड़कर उन्होंने बाम्बे यानी मुंबई की गाड़ी पकड़ ली.

शकील को पहला ब्रेक 1947 में आयी फिल्म ‘दर्द’ में मिला. उस फिल्म एक गीत है-

अफसाना लिख रही हूं दिले बेकरार का आंखों में रंग भरके तेरे इंतजार का...
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ये गीत गाया था उमा देवी ने. जी हां.. वही उमा देवी जिन्हें आप रुपहले पर्दे की कॉमेडी क्वीन टुनटुन के नाम से जानते हैं. उमा की अजीब सी दर्द भरी आवाज, नौशाद की धुन और शकील के अलफाजों से सजे उस गीत ने धूम मचा दी थी.

इसके बाद तो नौशाद साहब के साथ शकील बदायूंनी की जोड़ी जम गई और अगले बीस साल तक वो लाजबाव जुगलबंदी लोगों को अपने शानदार संगीत की भीनी बारिश में भिगोती रही.

1952 में आई ‘बैजू बावरा’ का महान भजन- ‘मन तड़पत हरी दर्शन को आज...’ शकील की ही कलम से निकला है. इस भजन को सिनेमा जगत में धर्म निरपेक्षता यानी सेक्यूलरिज्म की मिसाल माना जाता है. इस बेमिसाल भजन को लिखा शकील बदायूंनी ने, संगीत दिया नौशाद ने और गाया मुहम्मद रफी साहब ने.

इससे पहले 1951 में आई ‘दीदार’ का-

बचपन के दिन भुला न देना, आज हंसे कल रुला न देना...

1955- ‘उड़न खटोला’-

ओ दूर के मुसाफिर, हमको भी साथ ले ले रे, हम रह गए अकेले...

इसके बाद 1960 में रिलीज हुई ‘मुगल-ए-आजम’.

तेरी महफिल में किस्मत आजमाकर हम भी देखेंगे/ घड़ी भर को तेरे नजदीक आकर हम भी देखेंगे/ तेरे कदमों पे सर अपना झुकाकर हम भी देखेंगे...
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लता मंगेशकर और शमशाद बेगम की शानदार आवाजों से सजी उस कव्वाली की जान थी शकील साहब के शानदार बोल, जिन्होंने दिलीप कुमार यानी सलीम के दिल में मधुबाला यानी अनारकली के लिए हूक पैदा कर दी थी.

‘दुलारी’, ‘गंगा जमुना’, ‘शबाब’, ‘मेरे महबूब’, ऐसी फिल्मों की लंबी फेहरिस्त है, जिनके हिट होने में शकील साहब के गीतों ने बड़ी भूमिका निभाई.

1957 में बनी महबूब खान की महान फिल्म ’ मदर इंडिया’ को भला कौन भूल सकता है. गीत-संगीत की जोड़ी थी वही- नौशाद और शकील. शुरुआत में इसके गानों को ज्यादा पसंद नहीं किया गया था. लेकिन बाद में इसके गीत लोगों की जुबां पर चढ़कर बोले.

शमशाद बेगम की आवाज में ‘होली आई रे कन्हाई रंग बरसे बजा दे जरा बांसुरी...’ बरसों बाद आज भी होली के दिन गली-कूचों में गूंजता दिख जाता है.

कामयाबी के इस सफर में तारीफों के साथ-साथ इनाम भी शकील साहब पर खूब बरसे. साल 1961, 62 और 63 के लगातार तीन साल उन्होंने सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवॉर्ड जीतकर वो हैट्रिक लगाई, जिसे बरसों तक कोई गीतकार नहीं तोड़ पाया.

लेकिन शकील बदायूंनी को फिल्मी संगीत तक महदूद करना नादानी होगी. वो एक अजीम शायर थे जिसकी शायरी में मोहब्बतों के ख्वाब थे, तो आम जिंदगी के दर्द भी.

मैं ‘शकील’ दिल का हूं तर्जुमा, कि मुहब्बतों का हूं राजदां,
मुझे फक्र है मेरी शायरी, मेरी जिंदगी से जुदा नहीं

अफसोस की बात है कि अपने गीतों के मुखड़े सजाने में मसरूफ रहे शकील बदायूंनी ने अपनी सेहत को पूरी तरह नजरअंदाज किया और अंदर ही अंदर टीबी की बीमारी उन्हें खोखला करती गई.

20 अप्रैल 1970 को महज 53 साल की उम्र में शकील बदायूंनी इस दुनिया से रुखसत कर गए और छोड़ गए लफ्जों की वो विरासत जो उन्हें हमेशा हमारे दिलों में जिंदा रखेगी.

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