वीडियो एडिटर: कुणाल खन्ना
“यात्रीगण कृपया ध्यान दें! मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनस से कटिहार जाने वाली ट्रेन 20 घंटे देरी से चल रही है. दिल्ली से मोतिहारी जा रही ट्रेन 30 घंटे देरी से चल रही है. महाराष्ट्र के वसई से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जाने वाली श्रमिक स्पेशल ट्रेन ओडिशा के राउरकेला पहुंच गई है.” इन आवाजों में आपको क्या सुनाई पड़ता है. यही ना कि ट्रेन लेट हो गई है, ट्रेन भटक गई है. लेकिन मैं आपको बताता हूं इन आवाजों का और क्या मतलब है?
इसका मतलब है ट्रेन में खाने को तरसते मजदूर, जहां ट्रेन रुके वहां पानी के लिए जान हथेली पर रखकर दौड़ते मजदूर. मई की गर्मी में बीमार पड़ते मजदूर. बिन पानी दम तोड़ते मजदूर और फिर उनके अपनों की चीखें, ये सब इन्हीं आवाजों के बीच सुनाई पड़ेगा, अगर कोई गौर से सुने तो.
एक महीने से ज्यादा सड़कों पर ठोकर खाने के बाद अब लाखों बेसहारा मजदूरों को ट्रेन से घर पहुंचने के लिए भी वक्त और जिंदगी की कीमत चुकानी पड़ रही है.
सरकार ने प्रवासी मजदूरों के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाई है, लेकिन ये ट्रेन पटरी पर दौड़ नहीं रेंग रही है. कभी ट्रेन रास्ता भटक रही है तो कभी घंटो किसी जंगल में रुकी पड़ी हैं. मानो इन ट्रेन में बैठे मजदूर ना हों मालगाड़ी में लदा बेजान कोयला हों, जिसके नसीब में जलना ही लिखा हो. अब जब 24 घंटे के सफर के लिए 48 घंटे लगेंगे, यूपी की ट्रेन ओडिशा पहुंच जाएगी तो भूखे प्यासे मजदूर पूछेंगे जरूर जनाब ऐसे कैसे?
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक एक मई से 27 मई तक भारतीय रेल ने प्रवासी कामगारों के लिए 3,543 श्रमिक स्पेशल ट्रेनों का संचालन किया, जिसके जरिए 48 लाख यात्रियों को उनके राज्य पहुंचाया गाया. लेकिन सवाल ये है कि फिर भी इन मजदूरों की परेशानियां खत्म क्यों नहीं हो रही हैं?
चलिए आपको कुछ हेडलाइन दिखाते हैं
- 40 घंटे में ट्रेन नहीं पहुंची मुंबई से बिहार, पानी के लिए अफरातफरी
- मुंबई से मजदूरों को लेकर गोरखपुर के लिए निकली ट्रेन, पहुंची ओडिशा के राउरकेला
- वाराणसी: श्रमिक स्पेशल ट्रेन में लौटे 4 प्रवासी मजदूरों की मौत
- मुजफ्फरपुर स्टेशन पर मां के शव से लिपटे चादर से खेलता रहा बच्चा
ऐसी सैकड़ों हेडलाइन अखबारों के पन्नों पर ही दम तोड़ दे रही हैं, जिसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है.
सरकार का दावा है कि एक मई से 27 मई तक 48 लाख लोगों के लिए 74 लाख से ज्यादा फ्री खाना और 1 करोड़ से ज्यादा पानी की बोतल भी रेलवे ने दी है. लेकिन सवाल ये है कि जब ज्यादातर यात्रा 24 घंटे से ज्यादा की है तो एक वक्त खाना देना और फिर उसका प्रचार करना. ये ऐहसान कैसे सहेगा मजदूर?
एसी के कमरों में बैठकर सोशल डिस्टेंसिंग के आदेश दिए जा रहे हैं, लेकिन असल में इन मजदूरों से पीने के ठंडे पानी और खाने से डिस्टेंसिंग मेनटेन कराया जा रहा है.
इस झुलसा देने वाली गर्मी में ट्रेन का रूट बदलना और फिर भूख-प्यास. पहले लॉकडाउन की वजह से बेरोजगार हुए, फिर बचीखुची जमापूंजी भी खत्म और अब कइयों के लिए इन ट्रेन में सफर अंतिम यात्रा बन गई.
रेलवे का तर्क हैरान करने वाला
अब रेलवे का तर्क देखिए.. "ट्रेन भटकी नहीं, रास्ता आसान किया गया है. लोग भूख से नहीं बीमारी से मर गए हैं, आग्रह है कि इस तरह गलत खबरों को ना फैलाए.”
सब झूठे हैं तो फिर रेलवे के ट्वीटर हैंडल पर भूख-प्यास, ट्रेन की देरी, बीमार, गर्मी, सैकड़ों शिकायतें आ रही हैं वो क्या हैं? कोई कह रहा है पानी दे दीजिए नहीं तो मर जाएंगे, कोई कह रहा है 7 घंटे से ट्रेन किसी जंगल में रुकी है, सुबह से खाना तक नहीं मिला.”
अब भले ही सरकार सत्ता की कनफर्म सीट पर बैठकर खुद को सेफ फील करे लेकिन भूख, प्यास, गर्मी और ट्रेन की देरी हर सरकारी लॉजिक का चालान काट रही है. इन मजदूरों की बेबसी बता रही है कि सरकार, रेल मंत्रालय और सिस्टम सब अपने ट्रैक से भटक चुके हैं. और अगर सरकार अब भी पटरी पर नहीं आई तो जनता वोट का चेन खींचकर चुनावी ट्रेन रोककर पूछेगी जनाब ऐसे कैसे.
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