वीडियो प्रोड्यूसर: अस्मिता नंदी
वीडियो एडिटर: प्रशांत चौहान
रिपोर्टर्स: शादाब मोइज़ी, आकांक्षा कुमार, अंकिता सिन्हा, मेघनाद बोस, इशाद्रिता लाहिड़ी, अर्पिता राज, विक्रांत दूबे, विक्रम वेंकटेश्वरण
सरकारी अस्पतालों में हमें बचाने वालों को बचाने के लिए साल दर साल आवाज उठती रहती है. देश में मरीजों के परिजनों की ओर से डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा आम बात है. 2017 में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का एक सर्वे बताता है कि करीब 75% डॉक्टरों को हिंसा का सामना करना पड़ता है.
लेकिन क्या ये सभी अलग-अलग घटनाएं हैं या इनके बीच कोई समानता है? देश के अलग-अलग हिस्सों से आए क्विंट के रिपोर्टर्स ने ग्राउंड रिपोर्ट के जरिए स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर डॉक्टरों पर काम के बोझ और हताश मरीजों के बीच की इस खामी को उजागर किया.
24 घंटे की शिफ्ट के बाद मैं ऑपरेशन थियेटर में गया और सोने की अनुमति मांगी. मैं ऑपरेशन थियेटर में टेबल के नीचे सो गया. मुझे लगता है कि ये खौफनाक है.जूनियर डॉक्टर, कोलकाता
सरकारी अस्पतालों में कोई भी मरीज सबसे पहले जूनियर डॉक्टर से ही संपर्क करता है. फिर ऐसा क्यों है कि हमेशा वे धमकी, गाली-गलौज और हिंसा का सामना करते हैं.
मुंबई के जेजे हॉस्पिटल में 27 साल के रेसिडेंट डॉक्टर आतिश पारिख को 19 मई की सुबह एक मरीज के परिजनों ने बेरहमी से पीटा. क्यों? क्योंकि उन्होंने मरीज की मौत की खबर उन्हें बताई.
उनको मौत के बारे में बताते ही उनमें से एक ने वार्ड को अंदर से बंद कर दिया, जिससे कोई अंदर न जा सके. बाकी लोग मेरे साथ मारपीट करने लगे. शुरू में वे मुझे हाथों से मारने लगे, उसके बाद उन्होंने अस्पताल की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया. उन्होंने कुर्सियां और टेबल तोड़ दी. उन्होंने मुझे कुर्सी से टूटे हुए लकड़ी के डंडे से मारा.डॉ. आतिश पारिख, मुंबई
डॉक्टरों और मरीजों के बीच इस तरह के अविश्वास की वजह क्या है? और किस तरह के हालात में डॉक्टर काम करते हैं? बहुत सारे मामलों में डॉक्टरों की लापरवाही के लिए सरकारी नीतियों या बुनियादी ढांचे की कमी जिम्मेदार है.
बेंगलुरु के एक हॉस्पिटल में हाउस सर्जन डॉ.अजय रमेश बताते हैं, “यहां आने वाले मरीज ICU बेड चाहते हैं. जिन मरीजों को वाकई ICU बेड की जरूरत होती है, उनके लिए भी ये उपलब्ध नहीं होते. मगर शायद उन्होंने सीएम या किसी और से सुना होगा, ‘सरकारी अस्पतालों में जाओ. वहां हर तरह का वेंटिलेटर और सब कुछ मिलेगा. मरीज यहां आते हैं तो उन्हें सबसे पहले डॉक्टर ही मिलते हैं. ऐसे में लोग सोचते हैं कि उन्हें ICU में बेड देने के लिए डॉक्टर पर्याप्त कदम नहीं उठा रहे.’
ये नई समस्याएं नहीं हैं, ये दशकों से कायम हैं. दिल्ली के डॉ. सुमित रे बताते हैं कि उन्होंने अपने पोस्ट-ग्रेजुएशन के दिनों में लगातार 72 घंटे तक भी काम किया है. वे बताते हैं “घंटो की सीमा बाद में तय की गई, हमारे वक्त में इस तरह का कोई नियम नहीं था.”
डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा की बढ़ती घटनाएं कानून और व्यवस्था की समस्या तो है ही, लेकिन इसका असली समाधान हमारे हेल्थकेयर सेटअप की पॉलिसी में बदलाव है.
डॉक्टरों का कहना है कि उन्हें भगवान के रूप में देखना बंद किया जाना चाहिए और उनके साथ सहानुभूति रखनी चाहिए. क्योंकि वे पहले से ही जर्जर हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
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