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लॉकडाउन सियासत: सरकारें नहीं चाहतीं कि मजदूर लौटें?  

केरल ने कोरोना को अच्छे से कंट्रोल किया है

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(एडिटर - प्रशांत चौहान)

ये जो बाल्टी है ना, ये इंडिया है, इसके 1.3 अरब लोग इसमें हैं, कोरोना से लड़ते हुए. लॉकडाउन 1,2,3 और 4 से..और ये कंटेनर, भारत का हेल्थ केयर सिस्टम है. ये बड़ा मगर और ये छोटी कटोरियां, लेकिन इन कंटेनर्स की साइज अलग-अलग क्यों है? इन्हें आप अलग-अलग हेल्थ केयर सिस्टम मान लीजिए. ये जो बड़ा मग है ये केरल है और ये जो छोटी कटोरियां हैं इसे गुजरात, बंगाल और बिहार मानिए.

लेकिन केरल एक बड़ा मग क्यों है? क्योंकि केरल ने कोरोना को अच्छे से कंट्रोल किया है. वहां लोग संक्रमित हुए और अस्पताल पहुंचे तो हेल्थ सिस्टम उन्हें संभाल पाया. लोग ठीक हुए और इस तरह निकल गए. केरल में कोरोना से सिर्फ चार लोगों की मौत हुई है. वजह सबको पता है - वक्त पर मान लेना कि महामारी यहां आ चुकी है, बड़ी संख्या में टेस्ट, अच्छे से कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, अच्छे से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन, बेहतर क्वॉरन्टीन करना, ये सब कुछ मिलकर केरल के हेल्थ केयर सिस्टम को बनाते हैं बड़ा मग.

अब जरा गुजरात को देखते हैं. ये कटोरी, लेकिन ये कटोरी क्यों है? क्योंकि ये गुजरात की कहानी है. उसके हेल्थ केयर सिस्टम, अस्पताल, प्रशासन कोरोना वायरस आउटब्रेक को संभाल नहीं पाया. ये जो पानी बह रहा है, इसे आप गुजरात में हुई 700 मौतें मानिए. सारे राज्यों को देखें तो गुजरात में मौतों की संख्या दूसरी सबसे बड़ी है. सिर्फ अहमदाबाद में ही 500 मौतें हुईं. साफ है कि अहमदाबाद और गुजरात का हेल्थ केयर सिस्टम कोरोना का सामना नहीं कर पाया. उन्होंने टेस्ट शुरू करने में देर की, इसी तरह कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, सोशल डिस्टेंसिंग और क्वॉरन्टीन में देर हुई. जब ये सब किया तब तक वायरस फैल चुका था. आज गुजरात में 12000 पॉजिटिव केस हैं, जबकि केरल में महज 600, और ये सारे लोग भी ठीक हो चुके हैं. जबकि गुजरात में अब भी 7000 एक्टिव केस हैं.

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याद रखिए कि गुजरात और केल दोनों जगहों से लोग खूब विदेश जाते हैं, दोनों राज्यों में जनसंख्या का घनत्व ज्यादा है. दोनों जगह बड़े शहर हैं, फिर ये केरल है और ये गुजरात है.

बदकिस्मती ये है कि हमारे देश में ऐसी और छोटी कटोरियां हैं. ये बंगाल है, और ये बिहार. बिहार में कोरोना से दस मौतें हो चुकी हैं और बंगाल में 3000 पॉजिटिव केस हैं. ये पूछ सकते हैं कि हम कटोरी क्यों? जवाब आसान है - कम टेस्ट..भारत में प्रति दस लाक टेस्ट की संख्या 1700 है, जबकि बंगाल में 900 और बिहार में इससे भी कम 400 है. तो इसका मतलब क्या है? .इसका मतलब है- इन राज्यों में कोरोना का संक्रमण कितना है, इसकी पक्की जानकारी हमें नहीं है. अगर आप पर्याप्त टेस्ट नहीं करते हैं तो आपको ये नहीं पता कि कौन पॉजिटिव है और कौन नहीं. आपको नहीं पता कि किसे क्वॉरन्टीन करना है. आप सही तरीके से कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग नहीं कर सकते. मतलब ये कि सबकुछ राम भरोसे हैं.

सवाल ये भी है कि अब जब ज्यादा संक्रमण वाले शहरों जैसे मुंबई, अहमदाबाद और दिल्ली से मजदूर बिहार लौट रहे हैं तो क्या नीतीश कुमार पर्याप्त मजदूरों का टेस्ट करा रहे हैं. ? नहीं...और सवाल ये भी है कि क्या ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है?? कुछ महीने बाद बिहार में चुनाव होने वाले हैं, बंगाल में भी इसी साल चुनाव हैं. ज्यादा कोरोना केस होंगे तो ज्यादा मौतों को इससे जोड़ा जाएगा, तो इससे नीतीश और ममता की छवि पर असर पड़ेगा.

जहां तक कम टेस्टिंग की बात है, यूपी में प्रति दस लाख महज 700, झारखंड में 875, एमपी में 1200 और छत्तीसगढ़ में 1100 टेस्ट हो रहे हैं. ये सब राष्ट्रीय औसत से कम है. ICU बेड, वेंटिलेटर और क्रिटिकल केयर के मामलों में भी ये राज्य राष्ट्रीय औसत से पीछे हैं. मतलब ये कटोरी राज्य हैं. क्या यही वजह है कि इनमें से ज्यादातर राज्य अपने मजदूरों को वापस नहीं लेना चाहते.

गाजियाबाद में हजारो मजदूर श्रमिक स्पेशल ट्रेन के लिए जद्दोजहद करते हुए. राजकोट और अहमदाबाद में प्रदर्शन करते मजदूर, सड़कों पर रजिस्ट्रेशन का कागज दिखाते मजदूर. तो आखिर इन मजदूरों को उनके घर पहुंचाने के लिए लॉकडाउन के 60 दिनों क्या किया गया? लगभग कुछ नहीं. सरकार का कहना है कि श्रमिक स्पेशल ट्रेन से 15 लाख मजदूरों को उनके घर पहुंचाया गया है. लेकिन भारत करीब 6 करोड़ प्रवासी मजदर हैं. 15 लाख इसका 2.5 फीसदी हुआ. भारत रोज 13000 ट्रेन चला सकता है लेकिन कुछ ही चल रही हैं. साफ है कि सरकारें इन मजदूरों की वापसी नहीं चाहतीं. उन्हें डर है कि मजदूर लौटेंगे और फिर ये होगा. ये छोटी कटोरियां या कप भर जाएंगी, उफनने लगेंगी. ये जो इंडिया है ना, यहां के नेता और बाबू, केंद्र और ज्यादातर राज्यों में लॉकडाउन के 60 दिन बाद भी जानते हैं कि उनका हेल्थ केयर सिस्टम तैयार नहीं है.

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