कैमरापर्सन: मुकुल भंडारी
वीडियो एडिटर: वरुण शर्मा
कई बार उजड़ी, कई बार बसी लेकिन दिल्ली फिर भी दिल्ली है. पिछले करीब 25 साल से दिल्ली में रहने के नाते मैं शान से ये कहावत दोहराता था. लेकिन नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली में हिंसा की खौफजदा तस्वीरें देखने के बाद अब तो शायद ताउम्र ये कहना मुश्किल होगा कि दिल्ली- दिल्ली है.
हालिया चुनावों के बाद दिल्ली में भड़की हिंसा ने एक बुनियादी सवाल खड़ा कर दिया है- दिल्ली को चला कौन रहा है, केजरीवाल, केंद्र या फिर ऊपर वाला?
कथा जोर गरम है कि...
ये शहर दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच कोलैट्रल डैमेज का शिकार हो गया है. जैसे दो हाथियों की लड़ाई में घास कोलैट्रल डैमेज का शिकार हो जाती है.
देश की राजधानी, जिसकी पुलिस को देश की सबसे स्मार्ट पुलिस कहा जाता है, वहां दिनदहाड़े हत्याएं हो रही हैं, घर-दुकानें सुपुर्द-ए-खाक किए जा रहे हैं, घरों में घुसकर घरों को लूटा जा रहा है, लोगों के कपड़े उतरवाकर उनका धर्म चेक किया जा रहा है और पुलिस-प्रशासन यूं बेबस दिख रहे हैं जैसे कोई सहमा हुआ बकरी का बच्चा भेड़ियों की लड़ाई देख रहा हो.
सीलमपुर, जाफराबाद, मौजपुर, करदमपुरी, बाबरपुर, गोकुलपुरी, शिवपुरी, अशोक नगर- नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली के इन तमाम इलाकों में ईंट-मिट्टी की इमारतें जल रही हैं और हाड़-मांस के बाशिदें मर रहे हैं.
कैसे हुई शुरुआत?
22 और 23 फरवरी की दरमियानी रात दिल्ली के सीलमपुर-जाफराबाद रोड पर 500 से ज्यादा महिलाएं नागरिकता कानून के खिलाफ धरने पर बैठ गईं. कुछ वैसा ही धरना जैसा शाहीन बाग में हुआ.
23 फरवरी को दिल्ली के बीजेपी नेता कपिल मिश्रा ने वो किया जिसे कानून-व्यवस्था के किसी भी पैमाने पर अपराध के तौर पर देखा जाना चाहिए. दिल्ली पुलिस के डीसीपी, यानी आला अफसर की मौजूदगी में सरेआम ऐलान किया कि
दिल्ली पुलिस को तीन दिन का अल्टीमेटम - जाफराबाद और चांद बाग की सड़कें खाली करवाइए इसके बाद हमें मत समझाइयेगा, हम आपकी भी नहीं सुनेंगे, सिर्फ तीन दिन.कपिल मिश्रा, बीजेपी नेता
हम नहीं सुनेंगे??? इतनी बेअंदाजी?? आप हैं कौन जो नहीं सुनेंगे??? पुलिस की मौजूदगी में पुलिस को अल्टीमेटम?? और हद इस बात की कि पुलिस चुपचाप सुनती भी रही. हिंसा भड़काने के आरोप में कपिल मिश्रा को गिरफ्तार करना तो दूर कोई चेतवनी तक नहीं दी गई.
पुलिस की नाक के नीचे हिंसा
और अंजाम ये हुआ कि 24 फरवरी को दिल्ली के जाफराबाद और मौजपुर इलाकों में हिंसा की आग धधक उठी. पहले ही दिन एक प्रदर्शनकारी समेत दिल्ली पुलिस के हेड कांस्टेबल रतन लाल की हिंसा में मौत हो गई लेकिन दिल्ली पुलिस के कान पर जूं तक नहीं रेंगी.
या तो वो अपने कानों में काहिली की रुई ठूंस चुकी थी या फिर केंद्र से आदेश का इंतजार कर रही थी. केंद्र इसलिए क्योंकि दिल्ली में पुलिस केंद्र के तहत आती है और सीधे तौर पर उसके बॉस गृह मंत्री अमित शाह हैं.
ये हैं सवाल
- दिल्ली पुलिस ने वक्त रहते एक्शन क्यों नहीं लिया और क्यों देश की राजधानी में हिंसा की इस कदर भड़कने दिया?
- शाहीन बाग से लेकर देश की तमाम घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने वाले गृह मंत्री अमित शाह ने नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली की हिंसा पर चुप्पी क्यों साधे रखी?
- एक मजबूत गृहमंत्री के रहते हिंसा को काबू करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को ग्राउंड पर क्यों उतारना पड़ा? वो तो सलाहकार हैं, एग्जीक्यूटिव रोल में तो हैं नहीं.
- हाल के दिल्ली चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल करने वाले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया?
बस एक प्रैस कांफ्रेस के जरिए शांति की अपील कर दी. गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात कर ली. पुलिस के हाथ बंधे होने की बहानानुमा दुहाई दे दी और अस्पतालों को चाकचौबंद रहने को कह दिया.
बस, हो गई जिम्मेदारी पूरी? केजरीवाल जी आपकी राजनीति के पौधे में तो धरने-प्रदर्शनों की खाद डली है. माना कि पुलिस केंद्र के हाथ में है लेकिन आप तो बंद कमरों में बैठकों के लिए नहीं, धूल-धकक्ड़ में विरोध-प्रदर्शन के लिए जाने जाते हैं. क्यों नहीं किया? पुलिस तमाशबीन बनी हुई थी तो सेना बुलाने की पहल क्यों नहीं की? वो तो आप अपने जिला अधिकारी के जरिए कर सकते थे.
आप खुद को दिल्ली का बेटा कहते हैं लेकिन लगता है कि आपकी पॉलिटिक्स को भी मौकापरस्ती का घुन लग गया है जिसमें आग में कूदकर उसे बुझाने के बजाए दूर खड़े रहकर सिर्फ भाषण दिए जाते हैं.
ओछी सियासत ना करें सरकारें
ये केंद्र और दिल्ली, दोनों सरकारों से हमारी गुजारिश है. आपको जनता ने इसलिए सत्ता नहीं सौंपी है कि आप अपने-अपने अहम और सियायी फायदों को लिए उसी जनता को हिंसक भेड़ियों के रहमो-करम पर छोड़ दो.
कौन जिम्मेदार और कौन नहीं? किसकी गलती है किसकी नहीं? ये सब पता लगाना आपका काम है पता लगाते रहिएगा. लेकिन पहले दिल्ली के बेकसूर लोगों की हिफाजत तय कीजिए. हम ये कतई नहीं मान सकते कि मुट्ठी भर हिंसक गुंडे देश की राजधानी में मौत का तांडव करते रहें और सरकारें कुछ ना कर पाएं.
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