'कांग्रेसमुक्त भारत' का सपना देख रही बीजेपी को उसके अपने ही गढ़ में करारा झटका लगा है. जिस राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी खम ठोककर राज कर रही थी, वहां पब्लिक ने उसे हार का मुंह देखने पर विवश कर दिया है. रही बात मध्य प्रदेश की, तो वहां भी वोटों का कांटा कांग्रेस की सत्ता में वापसी की ओर ही इशारा कर रहा है.
ऐसे में एक बुनियादी सवाल उठता है कि आखिकार पब्लिक बीजेपी से इतनी नाराज क्यों है?
आगे एक आम पब्लिक की नजर से इस नाराजगी की वजह तलाशने की कोशिश की गई है. बीजेपी के खिलाफ वोट करते हुए लोगों के मन में संभवत: ये बातें रही होंगी:
किसानों की अनदेखी, बड़े आंदोलन
बीजेपी किसानों का हमदर्द होने का दम भरती थी, लेकिन उसके राज में किसानों के बड़े-बड़े आंदोलन हुए. मध्य प्रदेश, राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक किसान आंदोलित नजर आए. एमपी के मंदसौर में तो आंदोलन कर रहे किसानों पर गोलियां तक चल गईं.
छोटे और मंझोले किसानों की हालत इतनी खराब हो गई कि उनके लिए उपज की लागत तक निकालना मुश्किल हो गया. आए दिन किसान सड़कों पर सब्जियां बिखेरकर या दूध बहाकर विरोध प्रदर्शन करने लगे.
ऐसा देखा जाता था राजस्थान के किसान आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते थे. लेकिन हाल के महीनों में ये गुमान भी जाता रहा.
जब सरकार ने किसानों के दुख-दर्द की अनदेखी की, तो खेती-किसानी से जुड़ा तबका खुद को बेहद उपेक्षित महसूस करने लगा. ऐसे में किसानों ने कमल के फूल पर बटन दबाना मुनासिब नहीं समझा.
पेट्रोल-डीजल के दाम क्यों नहीं थाम पाए?
जब बीजेपी केंद्र की सत्ता से बाहर थी, तो वो कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को पानी पी-पीकर कोसती थी. पेट्रोल से लेकर टमाटर तक के रेट बताकर लोगों में गुस्सा भरती थी. लेकिन केंद्र में सत्ता मिलते ही बीजेपी ने रंग बदलने में जरा भी वक्त नहीं लगाया.
पब्लिक ये खेल समझ गई कि जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम चढ़े, तो उसका बोझ आम लोगों की जेब पर डाला गया. लेकिन जब भाव गिरे, तो उसका फायदा लोगों को क्यों नहीं दिया गया? इधर पेट्रोल-डीजल के आसमान छूते दाम ने लोगों की जेब को हल्का किया, उधर बीजेपी के प्रति लोगों का भरोसा भी हल्का हो गया.
मतलब, लोगों के मन में ये सवाल तो जरूर होगा कि क्या सत्ता मिलते ही बीजेपी सरकार ने ये मान लिया कि हर हाल में तेरा घाटा, मेरा कुछ नहीं जाता!
घोटालों की जांच अब तक अधूरी
मध्य प्रदेश के व्यापम घोटालों ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था. क्लर्क की कुर्सी पर नियुक्ति से लेकर मेडिकल में एडमिशन तक व्यापम के जरिए ही होता था. शुरू में ऐसा लग रहा था कि शिवराज सरकार घोटालों की निष्पक्ष जांच करेगी और बड़े-बड़े घोटालेबाजों को सलाखों के पीछे पहुंचाएगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
जांच के जाल में छोटी मछलियां फंसती रहीं, लेकिन बड़ी मछलियां आसानी से आर-पार निकलती रहीं. जांच को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाना शिवराज सरकार की बड़ी नाकामी साबित हुई.
छत्तीसगढ़ का चावल घोटाला भी मीडिया में सुर्खियां बटोरता रहा. इससे प्रदेश सरकार की इमेज पर बुरा असर पड़ना स्वाभाविक था.
रोजगार के वादों का क्या हुआ?
ये बात ठीक है कि राज्यों में पार्टियों की हार-जीत अक्सर प्रदेश के मुद्दों और अन्य स्थानीय समीकरणों पर लड़े जाते हैं. लेकिन पब्लिक की नजर इस बात पर जरूर होगी कि बीजेपी जनता से किए गए वादों को किस हद तक पूरा करती है.
मई, 2014 में पीएम नरेंद्र मोदी ने लोगों की आंखों में एक नए भारत और उज्ज्वल भविष्य के जो सपने जगाए, वो 5 साल पूरा होने से पहले ही बुरी तरह टूटते नजर आ रहे हैं.
हर साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार देने का वादा था. लेकिन हकीकत इससे एकदम जुदा है. युवा वर्ग सरकारी वैकेंसी में भी कमी का रोना रो रहा है. ऐसे में लोगों के सामने बीजेपी को छोड़कर विकल्प चुनने का ही रास्ता बच रहा था.
विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने इन मुद्दों को ठीक से भुनाया और अब नतीजा सबके सामने है.
बीजेपी के खिलाफ वोट करते हुए एक आम वोटर उससे यही पूछ रहा होगा कि आखिर आपको वोट क्यों दें? क्या इसलिए कि आपको 5 साल और सत्ता-सुख भोगना है और हमें 5 साल और अपने पुराने दर्द के साथ जीना है?
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