डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा के अपने पहले भाषण में देश के सामने खड़ी कठिनाइयों का जिक्र किया था. उन्होंने कहा था, हमारी कठिनाई यह है कि अपनी आज की विशाल पर बेमेल आबादी को किस तरह इस बात पर तैयार करें कि वह मिल-जुलकर एक फैसला करें और ऐसा रास्ता अपनाएं कि हम सब एक हो जाएं. यह बात उन्होंने तब कही थी, जब संविधान सभा में डॉक्टर एम आर जयकर ने मुस्लिम लीग के सदस्यों की अनुपस्थित में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव (Objective Resolution) पर आपत्ति उठाते हुए इसे स्थगित करने की मांग की थी.
डॉक्टर अंबेडकर ने अपने संबोधन में कहा था, सभी को राजी करने के लिए कि हम सब एक ही राह पर चलें, बहुमत वाले दल कि यह बड़ी राजनीतिक समझ होगी. वह उन लोगों के पूर्वाग्रहों और गलत धारणाओं को दूर करने के लिए कुछ रियायत दें.
हम ऐसे शब्दों का प्रयोग बंद करें. ऐसे नारे लगाना बंद करें. जो लोगों को डराते हैं. डॉक्टर अंबेडकर के इन शब्दों की प्रासंगिकता इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि देश में फिर भय, आतंक और जोर- जबरदस्ती का माहौल सिर उठा रहा है.
अपने लेखन और विचारों में डॉक्टर अंबेडकर ने कई बार भारत के बहुसंख्यक समाज के सांप्रदायिक होने पर चिंता व्यक्त की. उन्होने अल्पसंख्यक समाज खास तौर से मुस्लिम समाज और बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच तनातनी पर अपनी राय रखते हुए कहा, एक बाहरी आदमी के तौर पर जब मैं सोचता हूं तो मुझे तीन ही रास्ते दिखाई देते हैं. एक रास्ता यह है कि हम एक दल दूसरे दल की इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दें. दूसरा रास्ता यह है कि हम आपस मे विचार विनिमय करके समझौता कर लें. तीसरा रास्ता यह है कि खुलकर लड़ाई की जाए. मैं अवश्य स्वीकार करूंगा कि मैं इस कल्पना से ही कांप उठता हूं.
हिन्दू- मुस्लिम मसले पर उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, यह मेरी गंभीर चेतावनी है और इसकी उपेक्षा करना खतरनाक होगा. अगर किसी के दिमाग में यह खयाल हो कि बल-प्रयोग द्वारा हिन्दू-मुस्लिम समस्या का समाधान किया जाये ताकि मुसलमानों को दबाकर उनसे वह बात मनवा लिया जाये जो उनकी रजामंदी से नहीं हुई है, तो इससे देश ऐसी स्थिति मे फंस जाएगा कि उसे मुसलमानों को जीतने में हमेशा लगा रहना पड़ेगा. एक बार जीतने से ही जीत का काम खत्म नहीं होगा.
इस स्थिति के पुख्ता हल के लिए उन्होंने भारतीय राजनीतिक ढांचे में अल्पसंख्यकों के समावेश के लिए प्रभावी विधायी प्रतिनिधित्व की हिमायत की. उनका कहना था, विधायिका युद्ध का मैदान है. विधायिका में अधिकारों की प्राप्ति, विशेषाधिकारों के नाश और अन्याय के खिलाफ लड़ाई का मैदान है. इस बारे में सामान्य सहमति होनी चाहिए कि अल्पसंख्यकों को राजनीतिक सुरक्षा उसी अनुरूप मिलनी चाहिए, जिससे कि वह सामाजिक संघर्षों में खुद की रक्षा कर सके.
इस सुझाव के साथ डॉक्टर अंबेडकर ने यह भी सुझाव दिया कि अल्पसंख्यकों की शिक्षा और आर्थिक स्थिति में जितनी बेहतरी होगी, उतनी ही उन्हें राजनीतिक सुरक्षा की जरूरत कम होगी. लेकिन, शिक्षा और आर्थिक मामलों में उनकी स्थिति जितनी कमतर होगी, उतनी ही उनको राजनीतिक सुरक्षा की जरूरत होगी.
अल्पसंख्यकों के प्रति भारत के संविधान के प्रावधानों की आलोचना कोई नई बात नहीं है. हिन्दू पक्ष हमेशा से ही संविधान के अल्पसंख्यकों के प्रति नरम होने की शिकायत करता रहा है, लेकिन, वह यह भूल जाते हैं कि संविधान सभा के बहुसंख्यक लोग धर्मपरायण हिन्दू ही थे. डॉक्टर अंबेडकर ने बहुसंख्यक हिंदुओं और अल्पसंख्यकों को इस बात के लिए आलोचना की कि उन दोनों का रवैया असहिष्णुता पूर्ण था.
संविधान सभा के सामने संविधान का मसौदा पेश करते समय रखे गए विचार उनकी दृष्टि के परिचायक हैं. उन्होने कहा, इस देश के बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों ही वर्ग एक गलत रास्ते पर चले हैं. बहुसंख्यक वर्ग कि गलती यह है कि उसने अल्पसंख्यक वर्ग के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया और इसी प्रकार अल्पसंख्यक वर्ग कि गलती यह है कि उसने अपने को सदा के लिए अल्पसंख्यक बनाए रखा.
इसका हल बताते हुए डॉ अंबेडकर ने कहा, अब एक ऐसा रास्ता निकालना ही होगा, जिससे ये दोनों गलतियां दूर हों. मार्ग ऐसा होना चाहिए जो अल्पसंख्यकों का अस्तित्व मानकर इस संबंध मे आगे बढ़े. मार्ग ऐसा भी हो जिससे कि एक दिन अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों ही वर्ग आपस मे मिलजुल कर एक हो जाएं.
डॉक्टर अंबेडकर ने अल्पसंख्यकों के संरक्षण के विरुद्ध लगातार आग उगल रहे कट्टरपंथियों की हठधर्मिता छोड़ कर मेल-मिलाप का रास्ता अपनाने के सलाह दी. उन्होने कहा, अल्पसंख्यक एक भयंकर विस्फोटक पदार्थ के समान होते हैं, जो अगर फटा तो सारे राजकीय ढांचे को तहस-नहस कर सकता है. उन्होने अल्पसंख्यकों की प्रशंसा करते हुए कहा कि भारत का अल्पसंख्यक समुदाय इस बात पर सहमत हो गया है कि वह अपने अस्तित्व को बहुसंख्यक समुदाय को सौंप दे.
भारत में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के बीच के संबंध को चिन्हित करते हुए उन्होंने कहा, उन्होंने (अल्पसंख्यकों ने) बहुसंख्यक समुदाय के शासन को निष्ठापूर्वक स्वीकार कर लिया है, यहां का बहुसंख्यक वर्ग संप्रदाय के आधार पर बहुसंख्यक है न कि किसी राजनीतिक सिद्धान्त के आधार पर. बहुसंख्यक वर्ग का फर्ज है कि वह अल्पसंख्यकों के प्रतिकूल कोई भेदभाव न बरते. बहुसंख्यक वर्ग को अपने इस फर्ज का ख्याल रखना चाहिए.
उन्होने बहुसंख्यक समुदाय के लिए कहा, अल्पसंख्यक वर्ग इसी प्रकार अपना पृथक अस्तित्व बनाए रहेगा या अपने को राष्ट्र में विसर्जित कर देगा यह बात बहुसंख्यक वर्ग के व्यवहार पर निर्भर करती है. जिस क्षण बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव बरतने की आदत छोड़ देगा, उसी क्षण अल्पसंख्यकों के अस्तित्व का आधार जाता रहेगा. क्या डॉक्टर अंबेडकर के प्रति सभी राजनैतिक दलों का बढ़ता मोह, उनकी इस बात को चरितार्थ करेगा?
(लेखक नेशनल कन्फेडरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी ऑर्गेनाइजेशन (नैकडोर) के अध्यक्ष हैं)
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