जैसे ही खबर आई कि सुप्रीम कोर्ट अयोध्या में मंदिर या मस्जिद के पुराने विवाद पर फैसला सुनाने वाला है, केंद्र से लेकर राज्य सरकारें तक सतर्क हो गईं. स्कूलों में छुट्टियां. सड़कों पर सुरक्षा. यूपी के कई शहरों में तो बाकायदा फ्लैगमार्च हुए. लेकिन फैसला आने के 24 घंटे बाद भी देश के किसी भी हिस्से से हिंसा या अशांति की एक खबर नहीं आई. अच्छी बात है.
सवाल ये है कि ये कैसे हुआ? शांति है? सन्नाटा है ? या लोगों की समझदारी है?
इतिहास का फैसला, भविष्य की बुनियाद
शांति, सन्नाटा या समझदारी? हम ये क्यों पूछ रहे हैं, इसे समझने के लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस अशोक कुमार गांगुली का फैसले पर बयान पढ़ लीजिए.
अल्पसंख्यकों की पीढ़ियों ने वहां मस्जिद देखी. उसका विध्वंस किया गया. ऊपर से सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक, उसपर मंदिर बनाया जा रहा है. इससे मेरे दिमाग में संशय पैदा हुआ है.... संविधान के एक छात्र के तौर पर मेरे लिए इसे मानना मुश्किल है.जस्टिस अशोक कुमार गांगुली
जस्टिस गांगुली कहते हैं कि - संविधान लागू होने के पहले वहां क्या था, ये फैसला करने बैठ जाएं तो बहुत बड़ी संख्या में मंदिर, मस्जिद और दूसरे ढांचों को गिराना पड़ेगा.
रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद : ए हिस्टॉरियन्स रिपोर्ट में कहा गया था ढांचे के नीचे कोई मंदिर नहीं था. इस रिपोर्ट को बनाने में योगदान देने वाले इतिहासकार डीएन झा ने फैसले पर बीबीसी से कहा-
‘’फैसले में हिंदुओं की आस्था को तवज्जो दी गई और इसका आधार दोषपूर्ण पुरातत्व विज्ञान को बनाया गया है.’’
अगर गांधी की हत्या मामले में सुप्रीम कोर्ट आज फिर से सुनवाई करे तो फैसला यही होगा कि नाथूराम गोडसे एक हत्यारे थे, लेकिन वह देशभक्त भी थे.महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी
तुषार गांधी का सीधा इशारा इस बात पर है कि कोर्ट ने माना है कि 1992 में मस्जिद गिराकर गलत किया गया लेकिन फिर मंदिर की इजाजत भी दी गई. क्विंट से बात करते हुए स्वराज इंडिया के प्रमुख योगेंद्र यादव ने भी कहा कि इस फैसले से लोगों को लग सकता है कि जिन लोगों ने मस्जिद तोड़ी, उन्हें ही मंदिर दे दिया गया.
फैसले में आस्था का वेटेज देख ये सवाल भी उठाया जा रहा है कि कानूनी कसौटी के बजाय आस्था का सवाल लाना आगे के मामलों में मुश्किलें पैदा कर सकता है.
लेकिन उपाय क्या था?
याद रखिएगा अयोध्या का मामला 27 साल से अदालती चक्कर लगा रहा था. किसी को कुछ सूझता नहीं था. 2010 में जब इलाहाबाद कोर्ट ने तीनों पक्षों में जमीन बांटने का रास्ता दिखाया तो किसी को स्वीकार नहीं हुआ. जाहिर है फैसला इधर या उधर का ही होना था. इससे कम पर कोई राजी नहीं था.
एक तरीके से कोर्ट को कहा गया कि 500 साल पुरानी उलझी गुत्थी को सुलझा दीजिए. हालातों को देखते हुए कोर्ट ने अपना बेस्ट देने की कोशिश की है’’सुप्रीम कोर्ट में वकील संजय हेगड़े
जाहिर है फैसला किसी के भी पक्ष में आता,दूसरा पक्ष मायूस हो सकता था. सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि फैसला इसके विपरीत होता तो यही शांति, सन्नाटा या समझदारी दिखाई जाती? उम्मीद की सकती है. उम्मीद क्योंकि नई पीढ़ी मंदिर-मस्जिद से आगे निकल चुकी है. उसे रोजगार और ग्रोथ तेज रफ्तार चाहिए. फैसले के बाद जिस एक नेरेटिव पर मेरा ध्यान गया वो ये कि - ‘चलो अच्छा है अब मंदिर-मस्जिद का बहाना (काम न करने का) भी गया. ‘
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या जमीन विवाद पर फैसले में माना है कि 1992 में गैरकानूनी ढंग से मस्जिद ढहाई गई. क्या बाबरी विध्वंस केस की जब सुनवाई होगी तो कोर्ट के इस टिप्पणी का असर होगा?
एक सवाल ये है कि क्या सियासी दल (मंदिर के इधर और मंदिर के उधर, दोनों) भी ये संदेश ले रहे हैं? बोलने वाले ‘भीख नहीं चाहिए’ बोल रहे हैं. अयोध्या के तुरंत बाद मथुरा-काशी बोल रहे हैं. क्या देश ने जैसी समझदारी दिखाई है, उससे वो कोई इशारा ले रहे हैं कि अब इस देश में कभी काशी-मथुरा-या कुछ और ‘अयोध्या’ नहीं हो सकता.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)