ADVERTISEMENTREMOVE AD

BJP मोक्ष के लिए राममंदिर की ओर, कहीं लेने के देने न पड़ जाएं

विकास और रोजगार जैसे मुद्दे पर BJP एक और चुनाव नहीं लड़ना चाहेगी. उसके लिए राममंदिर का मुद्दा लाइफलाइन है

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

राममंदिर पर चुनाव लड़ने की पृष्ठभूमि बीजेपी में तैयार है. इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि राममंदिर का विवाद अयोध्या में जमीन के जिस टुकड़े को लेकर चल रहा है, उसका फैसला सुप्रीम कोर्ट को अभी करना है. पहले तो सुप्रीम कोर्ट में इस बात का भी फैसला होना है कि इस जमीन विवाद की सुनवाई कब से शुरू होगी. लेकिन बीजेपी इतना इंतजार नहीं कर सकती. लोकसभा चुनाव का ऐलान अगले चार से पांच महीने में हो जाएगा और उसकी तैयारी में जो भी राजनीति होनी है, उसका यही समय है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

राममंदिर बीजेपी के घोषणापत्र में हमेशा से है. 2014 के बीजेपी घोषणापत्र में भी राममंदिर था. लेकिन इसे गंभीर राजनीतिक मुद्दे के तौर पर कभी नहीं लिया गया. ये लगभग उसी तरह की औपचारिक बात है जैसा कि राजनीतिक दल करते हैं कि सत्ता में आने पर वे देश का विकास करेंगे.

राममंदिर का मुद्दा अलग से महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह बीजेपी को अलग पहचान देता है. जब केंद्र में बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई, तो भी साढ़े चार साल में कभी ऐसा नहीं लगा कि केंद्र सरकार राममंदिर का काम शुरू करेगी. ये मामला अदालत में चलता रहा.

जब मोदी सरकार के कार्यकाल के आखिरी के छह महीने बचे हैं तो अचानक बीजेपी से लेकर आरएसएस तक इस बात को लेकर मुखर हो गए हैं कि राममंदिर बनना चाहिए और अदालत से पक्ष में फैसला न आए तो ये काम संसद में कानून बनाकर या अध्यादेश लाकर करना चाहिए.

विकास और रोजगार जैसे मुद्दे पर BJP एक और चुनाव नहीं लड़ना चाहेगी. उसके लिए राममंदिर का मुद्दा लाइफलाइन है
0
आने वाले दिनों में केंद्र सरकार अयोध्या की विवादित जमीन को राममंदिर बनाने वाली किसी संस्था को देने के लिए अध्यादेश (या अगर संसद सत्र चल रहा हो तो कानून) ला सकती है. ऐसे किसी अध्यादेश या कानून की वैधता या संवैधानिकता संदिग्ध हो सकती है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई चल रही है.

मुमकिन है कि उस अध्यादेश या कानून को कोर्ट में चुनौती दी जाएगी और यह भी हो सकता है कि उसे असंवैधानिक भी करार दिया जाए, लेकिन बीजेपी और आरएसएस को इसकी परवाह नहीं होगी. उसका सीमित उद्देश्य यह होगा कि उसका वोटर माने कि बीजेपी राममंदिर बनाना चाहती है. अध्यादेश या कानून लाकर बीजेपी साबित कर देगी कि वह मंदिर बनाना चाहती है. बाद में अदालत चाहे जो भी फैसला दे, उससे बीजेपी को फर्क नहीं पड़ेगा. तब तक राममंदिर मुद्दा बन चुका होगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
सवाल उठता है कि क्या बीजेपी और आरएसएस का यह कदम उसे 2019 में चुनावी जीत दिलाने के लिए काफी होगा?

कहना मुश्किल है. ये दोधारी तलवार है. लेकिन बीजेपी और आरएसएस के पास विकल्प सीमित हैं. 1984 के बाद से बीजेपी हर बार चुनाव के समय राममंदिर का मुद्दा उछालती है. उसे इसका फायदा भी मिलता रहा है. इस दौरान बीजेपी तीन बार केंद्र में सत्ता में आ चुकी है. दो बार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी है. एक बार नरेंद्र मोदी की. तीनों ही सरकारें गठबंधन की सरकार रही हैं.

लेकिन तीनों में फर्क है. जहां अटल बिहारी वाजपेयी की दोनों सरकारों में बीजेपी का अपना बहुमत नहीं था, वहीं नरेंद्र मोदी सरकार में बीजेपी का अपना बहुमत है. अल्पमत सरकार ये कह सकती थी कि सहयोगी दलों के दबाव के चलते राममंदिर बनाना संभव नहीं है. लेकिन केंद्र सरकार में अपना खुद का बहुमत पाने के बाद बीजेपी अपने मतदाताओं से ये नहीं समझा सकती कि वह राममंदिर क्यों नहीं बना रही है. यानी अटल बिहारी वाजपेयी पर राममंदिर बनाने का वैसा दबाव कभी नहीं था, जैसा दबाव नरेंद्र मोदी पर है.

विकास और रोजगार जैसे मुद्दे पर BJP एक और चुनाव नहीं लड़ना चाहेगी. उसके लिए राममंदिर का मुद्दा लाइफलाइन है
ADVERTISEMENTREMOVE AD
इसलिए मान कर चलिए कि बीजेपी आने वाले दिनों में राममंदिर को लेकर कुछ बड़ा करने वाली है.

राजनीति एक निर्मम स्थान है. यहां वादों की सवारी, कई मायनों में शेर की सवारी करने के समान है, जहां आप मुद्दे पर सवार तो अपनी मर्जी से होते हैं, लेकिन अपनी सुविधा से मुद्दा छोड़ नहीं सकते. नरेंद्र मोदी ने 2014 का लोकसभा चुनाव उम्मीदों की गाड़ी पर सवार होकर लड़ा था. उन्होंने मतदाताओं को बेहद गुलाबी सपना दिखाया था कि वे आ जाएंगे तो किस तरह लोगों की दुनिया बदल जाएगी.

2014 लोकसभा चुनाव के बीजेपी के घोषणापत्र और चुनावी सभाओं में नरेंद्र मोदी के भाषणों को देखें तो यह साफ जाहिर होगा कि नरेंद्र मोदी ने लोगों की उम्मीदों को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था.

उनके प्रमुख वादों में – देश से भ्रष्टाचार का खात्मा, विदेश ले जाए गए काले धन की वापसी, हर जेब में 15 लाख रुपए, हर साल दो करोड़ रोजगार, चीन और पाकिस्तान को काबू में रखना, एक सिर के बदले दस सिर, आतंकवाद का अंत, स्वच्छ गंगा, तेज विकास दर, बुलेट ट्रेन, 100 नई स्मार्ट सिटी आदि प्रमुख थे. इन वादों को पूरा करना आसान नहीं था, इसलिए ये वादे पूरे नहीं हो सके.

विकास और रोजगार जैसे मुद्दे पर BJP एक और चुनाव नहीं लड़ना चाहेगी. उसके लिए राममंदिर का मुद्दा लाइफलाइन है
पीएम नरेंद्र मोदी
(फोटोः IANS)
ADVERTISEMENTREMOVE AD

बीजेपी की मुश्किल यह है कि पांच साल बाद वो इन्हीं वादों के आधार पर दोबारा चुनाव मैदान में उतरने से हिचकेगी. राजनीति में जैसा कि कहा जाता है कि एक ही चेक दो बार एनकैश नहीं होता. वैसे ही इन्हीं वादों पर दोबारा चुनाव नहीं लड़ा जा सकता.

लेकिन ये न भूलें कि एक ही चेक दो बार एनकैश न होने की बात बीजेपी नेता सुषमा स्वराज ने राम मंदिर के संदर्भ में कही थी. तो सवाल उठता है कि राममंदिर का चेक जो 1984 के बाद हर चुनाव में एनकैश होने के लिए मतदाताओं के समक्ष रखा जाता है, उसे क्या 2019 में बीजेपी एनकैश करा पाएगी?

राममंदिर को लेकर देश ने अब तक का सबसे गर्म तापमान दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद (जिसे बीजेपी विवादित ढांचा कहती है) गिराए जाने के बाद देखा है. उस घटना के बाद चार राज्यों में बीजेपी की सरकारों को हटाकर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था. 1993 में जब इन चार राज्यों – उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए तो चुनाव आंकड़ा विश्लेषकों ने अनुमान लगाया कि राममंदिर के मुद्दे पर होने वाले चुनाव में चारों राज्यों में बीजेपी की वापसी होगी.
विकास और रोजगार जैसे मुद्दे पर BJP एक और चुनाव नहीं लड़ना चाहेगी. उसके लिए राममंदिर का मुद्दा लाइफलाइन है

लेकिन हुआ क्या? बीजेपी के इन चुनावों में कहीं स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. जोड़तोड़ कर उसकी राजस्थान में सरकार बन गई. बाकी राज्य वह हार गई. जहां अयोध्या है, उस उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के गठबंधन ने सामाजिक समीकरण के सहारे राम मंदिर की राजनीति को धूल चटा दी. इस चुनाव का प्रसिद्ध नारा था- मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम!

ADVERTISEMENTREMOVE AD

2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में एसपी और बीएसी गठबंधन की 25 साल बाद वापसी हुई है. इस गठबंधन की चर्चा जब से शुरू हुई है, तब से बीजेपी ने यूपी में कोई उपचुनाव नहीं जीता है. यहां तक कि जिन सीटों पर मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री लोकसभा चुनाव जीते थे, यानी गोरखपुर और फूलपुर, वहां के लोकसभा उपचुनाव बीजेपी हार चुकी है.

सांप्रदायिक तापमान चरम पर पहुंचाने के बावजूद कैराना का लोकसभा उपचुनाव वह बुरी तरह हार गई. बिहार में भी बीजेपी और एनडीए उपचुनावों में लगातार हार रहा है. इन दो राज्यों से बीजेपी को 2014 में 93 लोकसभा सीटें मिली थीं. ये दोनों राज्य बीजेपी के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. इन दो राज्यों में बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति की टक्कर सामाजिक न्याय की राजनीति से हो सकती है.

2019 के महासमर की निर्णायक लड़ाई इन्हीं दो राज्यों में लड़ी जाएगी. राममंदिर मुद्दे की परीक्षा भी यहीं होनी है. इसलिए राममंदिर के साथ ही, इन दो राज्यों के राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर रखिए.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें