बीजेपी ने बिहार के मतदाताओं को मुफ्त कोविड19 वैक्सीन देने का जो वादा किया है, वह न सिर्फ समस्यापूर्ण है, बल्कि चुनाव आयोग की आचार संहिता का उल्लंघन भी है. यह वादा सुप्रीम कोर्ट के उन दिशा-निर्देशों को भी नजरंदाज करता है, जिसमें एपेक्स कोर्ट ने कहा था कि राजनीतिक दलों को चुनावी वादों को पूरा करने के बजटीय प्रावधानों को भी ध्यान में रखना चाहिए. यानी वैक्सीन देने का खर्चा कैसे पूरा किया जाएगा, यह भी साफ होना चाहिए.
सबसे पहले तो, भारतीय राजनीति में नैतिकता की इतनी ज्यादा कमी है कि इसी के चलते ऐसे अव्यावहारिक और लोकलुभावन वादे किए जाते हैं. ब्रिटेन में संसदीय लोकतंत्र का जो वेस्टमिन्स्टर मॉडल अपनाया गया है, उसके भारतीय संस्करण में उचित-अनुचित को बहुत महत्व नहीं दिया जाता.
आचार संहिता या एमसीसी इस धारणा पर आधारित है कि राजनीतिक पार्टियां और उम्मीदवार उचित-अनुचित के बीच अंतर करेंगे. वे रीति-नीति और नैतिकता का महत्व समझेंगे। अगर ऐसे उच्च स्तरीय सिद्धांत न हों तो वेस्टमिन्स्टर मॉडल धूल में मिल जाएगा.
भले वह राजनीतिक दलबदल हो, धर्म-संप्रदाय-जाति का घालमेल, या फिर चुनाव से एक दिन पहले मुफ्त शराब और पैसे बांटने जैसा लालच, सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियां और उनके उम्मीदवार भ्रष्ट तरीके अपनाते हैं.
यह जानना जरूरी है कि:
- वोट बटोरने के लिए जाति और सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काना
- बेसबूत रिपोर्ट्स के आधार पर उम्मीदवारों की आलोचना करना
- मतदाताओं को घूस देना या डरना-धमकाना, और
- लोगों के घरों के आगे, उनके खिलाफ प्रदर्शन करना या धरना देना, प्रतिबंधित है.
भारत का चुनाव आयोग हमेशा इतना कमजोर नहीं था
बिहार विधानसभा चुनावों पर सरसरी नजर डालें. साफ हो जाएगा कि इनमें से ज्यादातर नियमों का पालन नहीं किया गया.राजनीतिक फायदे के लिए बीजेपी ने जिस तरह कोविड19 को भुनाया, उसे तो ‘वाइड बॉल’ कहा जाना चाहिए और भारतीय चुनाव आयोग ने इसे बिहार के मतदाताओं की अक्लमंदी पर छोड़ दिया, पर ऐसा लगता है कि केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन के इस प्रलोभन का बहुत असर नहीं हुआ.
लेकिन यहां यह मुद्दा नहीं कि इस वादे का कितना असर होगा, बात यह है कि इस मुद्दे पर चुनाव आयोग ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया.
शायद बहुतों को यह याद नहीं होगा कि इसी चुनाव आयोग ने 2014 में डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार को कुछ नीतिगत फैसलों को टालने के लिए मजबूर किया था. सरकार प्राकृतिक गैस का मूल्य निर्धारण और पश्चिमी घाट के इकोलॉजिकल रूप से संवेदनशील क्षेत्रों को अधिसूचित नहीं कर पाई थी.
संविधान के तहत चुनाव आयोग का यह कर्तव्य है कि वह रेफरी के तौर पर काम करे और उसके पास यह शक्ति है कि वह गुमराह होने वाली पार्टियों और लोगों को सीधे रास्ते पर लाए, लेकिन व्यवहार में, यह तीन सदस्यीय आयोग बेफिक्र और लापरवाह महसूस होता है. क्रिकेट मैच के एक ऐसे थर्ड अंपायर सरीखा लगता है जो कभी-कभार अपनी कुंभकरणीय नींद से जागता है और हल्की झिड़की दे देता है, इससे किसका नुकसान हो सकता है?
क्या चुनाव आयोग तभी कार्रवाई करता है, जब विपक्षी पार्टियां संहिता का उल्लंघन करती हैं. आम तौर पर केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को नहीं, विपक्षी पार्टियों को ही चुनाव आयोग की नाराजगी का सामना करना पड़ता है. 2014 से चुनाव के समय एक और खास बात देखने को मिली है. केंद्र सरकार की एजेंसियां, जैसे प्रवर्तन निदेशालय, इनकम टैक्स, सीबीआई वगैरह विपक्षी नेताओं और उनके साथ सहानुभूति रखने वाले लोगों के घरों-दफ्तरों पर छापे मारती हैं. दूसरी तरफ चुनाव आयोग मूक दर्शक बना खड़ा रहता है.
कई पूर्व चुनाव आयुक्तों ने इस बात पर जोर दिया है कि संविधान के अनुच्छेद 324 में चुनाव आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों को रेगुलेट करने की शक्ति दी गई है.
पर निजी तौर पर वे यह जिम्मेदारी राजनीतिक पार्टियों को सौंप देते हैं और सभी जानते हैं कि पूरी व्यवस्था की सफाई धुलाई करने की राजनीतिक इच्छा शक्ति है ही नहीं.
क्या बिहार का वोटर पार्टियों को सिखाएगा कि क्या उचित है, क्या अनुचित
2014 से चुनाव आयोग बेदम है. जब भी प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज की जाती है, चुनाव आयोग नजरें फेर लेता है. जब चुनाव आयोग ने 2019 के लोकसभा चुनावों में योगी आदित्यनाथ को प्रचार से रोका, तो मीडिया को कोई एडवाइजरी जारी नहीं की गई कि उनकी गतिविधियों को कवर नहीं किया जाएगा. योगी चुप तो रहे, लेकिन मंदिर दर्शन के लिए निकल पड़े. मीडिया, खास तौर से टेलीविजन जर्नलिस्ट्स का हुजूम उनके पीछे हो लिया.
मध्य प्रदेश के एक मंत्री को पेड न्यूज के लिए अपराधी ठहराया गया और उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया गया, लेकिन चुनाव आयोग ने उच्च न्यायालय में इस मामले को फॉलो नहीं किया. मंत्री महोदय गलती करके भी अपना काम बिना किसी अड़चन के करते रहे. हालांकि मोदी से पहले भी चुनाव आयोग का रिकॉर्ड कोई बहुत शानदार नहीं था.
जून 1980 में जब संजय गांधी की मौत हुई, तब चुनाव आयोग छह महीने के भीतर उपचुनाव नहीं करा पाया. जब अमेठी में राजीव गांधी ने सांसद के तौर पर शपथ ली तो कैलेंडर में 17 अगस्त, 1981 की तारीख थी. किसी भी कीमत पर राजनीतिक लाभ हासिल करने की इच्छा एक मजबूत, जीवंत और सहभागितापूर्ण लोकतंत्र के लिए खतरा है. 10 नवंबर को बिहार का फैसला एक जोरदार संदेश दे सकता है, चूंकि बिहार की राजनीति आश्चर्यजनक परिवर्तनों को रास्ता दिखाती रही है.
इस लेखक की सिर्फ इतनी तमन्ना है.
(राशिद किदवई ’24 अकबर रोड, बैलेट’ और ‘सोनिया: अ बायोग्राफी’ के लेखक हैं. वह ओआरएफ के विजिटिंग फेलो हैं और @rasheedkidwai पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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