94 सीटों पर मतदान के साथ बिहार विधानसभा चुनाव का दूसरा चरण पूरा हो चुका है. अब तीसरा चरण बाकी है. अभी तक 53.51 प्रतिशत मतदान 2015 की तुलना में मामूली रूप से कम है. और, यह लगभग पहले चरण की तरह है. महज एक तिहाई सीटें बची हुई हैं, दुविधा बढ़ती जा रही है और 7 नवंबर को एक्जिट पोल का उत्सुकता से इंतजार है.
प्रणय रॉय और दोराब आर सोपारीवाला ने अपनी किताब द वर्डिक्ट में 1952-2019 तक के चुनावों को तीन चरणों में बांटा है-
- द प्रो इनकंबेंसी एरा (1952-1977)
- द एंटी इनकंबेंसी एरा (1952-1977)
- द फिफ्टी-फिप्टी एरा (2002-2019)
एंटी इनकंबेंसी वेव की जबरदस्त वापसी
- पहला चरण (1952-77) वह था जिसमें ‘आशावादी वोटर’ थे जहां 82 प्रतिशत सरकारों को दोबारा चुना गया.
- दूसरे चरण (1977-2002) में ‘नाराज़ वोटर’ हावी रहे जब चुनाव के बाद केवल 29 प्रतिशत सरकारों की सत्ता में वापसी हो सकी.
- तीसरे चरण (2002-2019) में ‘समझदार वोटर’ दिखे जिन्होंने समझदारी से इनकंबेंसी की भूमिका को समझा और 48 फीसदी सरकारें सत्ता में लौटीं.
मेरी रिसर्च बताती है कि एंटी इनकंबेंसी युग एक बार फिर पूरे धमक के साथ लौट आया है. 2014 के आम चुनाव के बाद हुए 35 चुनावों के अध्ययन (जिसमें केंद्रशासित पांडिचेरी भी शामिल है) से पता चलता है कि केवल 8 राज्य सरकारों की वापसी हो सकी है या वे सत्ता को बरकरार रख सके हैं. 27 राज्य सरकारें चुनाव जीतने में नाकाम रही हैं. जनता ने इन सरकारों को खराब प्रदर्शन या दूसरे कारणों से उखाड़ फेंका है.
कम मतदान वर्तमान सरकारों के लिए फायदेमंद
2002-14 का दौर निवर्तमान सरकारों के हक में था. इस दौरान मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब, बिहार, ओडिशा जैसे कुछेक राज्यों सरकारें बारी-बारी से बदलीं. सत्ता में बने रहने में कामयाब रहीं 8 राज्य सरकारों में 6 कम मतदान की गवाह रही हैं.
केवल दो राज्यों में अधिक मतदान
बिहार में भी गठबंधन के घटक दलो में बदलाव हुए थे . नीतीश की जीत एनडीए के साथ 2010 में और महागठबंधन के साथ 2015 में हुई. इस तरह यह खास तौर से एक ही गठबंधन की जीत नहीं थी. सत्ता का बदलाव हुआ, मुख्यमंत्री में बदलाव नहीं हुआ. (विश्लेषण में इसे सत्ताधारी माना गया, जिसने चुनाव जीता)
महाराष्ट्र में चुनाव पूर्व गठबंधन की जीत हुई, लेकिन सहयोगी दल शिवसेना के साथ मतभेदों की वजह से देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं बचा सके. (विश्लेषण में इसे सत्ताधारी दल माना गया जिसने चुनाव जीता.)
अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत हुई और इसने 2014 में सरकार बनाई. कार्यकाल के मध्य में बगावत हुई और आखिरकार बीजेपी ने अपना मुख्यमंत्री बना लिया. 2019 में बीजेपी सरकार की चुनावों में जीत हुई. (विश्लेषण में इसे सत्ताधारी दल की जीत माना गया.)
वास्तव में अपनी बात दोहराता हूं कि आम तौर पर कम मतदान वर्तमान सरकार के लिए अच्छा है और अधिक मतदान इसके लिए नुकसानदायक है. इसलिए केवल कम मतदान से ही नीतीश कुमार अपने लिए बचाव की उम्मीद कर सकते हैं.
“इतिहास खुद को दोहराता नहीं है लेकिन इसकी तुकबंदी दोहराती है.“मार्क ट्वाइन
तो रुझान बताता है कि जो सत्ता में हैं उनके लिए दोबारा चुनाव में जीत बहुत मुश्किल है. केवल 23 फीसदी संभावना दिखती है. मतदान से इस बात को जोड़कर देखें तो पता चलता है कि अधिकांशत: सत्ताधारी दल तभी जीतते हैं जब मतदान कम हो.
पहले चरण में बिहार में मतदान 55.7 फीसदी मतदान दर्ज किया गया जो 2015 में इन सीटों पर 54.9 फीसदी की तुलना में थोड़ा ज्यादा है. दूसरे चरण में मतदान 54.15 फीसदी दर्ज किया गया जो 2015 में इन्हीं सीटों पर हुए 55.35 फीसदी मतदान के मुकाबले थोड़ा कम है. इससे पता चलता है कि बिहार में कमोबेस मतदान एक समान है.
मतदान बढ़ने और वर्तमान सरकार को उखाड़ फेंकने की वोटर की प्रवृत्ति को देखते हुए मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश की वापसी की गणितीय रूप में केवल 6 फीसदी संभावना है. उनके लिए एकमात्र सहारा अब कम मतदान ही रह जाता है.
कितना मुश्किल है एक मुख्यमंत्री के लिए चौथी बार मुख्यमंत्री बनना?
बहुत कम मुख्यमंत्रियों ने लगातार 3 कार्यकाल का आनंद लिया है. इनमें से भी चौथी बार कामयाब रहे लोगों की संख्या काफी कम है, जिनमें से कुछेक नाम हैं- मोहन लाल सुखाड़िया, नवीन पटनायक, ज्योति बसु.
इस आलेख में मैंने दिखाया है कि किस तरह 15 साल की बदकिस्मती के चक्कर में कई सरकारें फंसी हैं जिनमें 1990-2015 के दौरान लालू-राबड़ी का ‘जंगलराज’ शामिल है.हालांकि यहां सावधानी भी जरूरी है : हमें मतदान में बढ़ोतरी को दो हिस्सों में बांटना होगा- स्वाभाविक/सामान्य और एंटी इनकंबेंसी
चुनाव आयोग और विभिन्न एनजीओ के जागरुकता अभियानों के कारण मतदान में सामान्य रूप से बढ़ोतरी हो सकती है. बिहार में मतदान में हुई बढ़ोतरी बहुत बड़ी नहीं है इसलिए यह चुनाव आयोग के प्रयास की वजह से है या एंटी इनकंबेंसी के कारण- कहना मुश्किल है.
इतिहास और रुझानों का वजन नीतीश कुमार के लिए चौथे कार्यकाल पर भारी पड़ता दिख रहा है.
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