नीतीश कुमार का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) से बाहर होना भारतीय जनता पार्टी (BJP) को कई मायने में चोट पहुंचाने वाला है. फौरी तौर पर यह BJP को लेकर सहयोगियों में संदेह बढ़ाने और भरोसा खत्म करने वाला अध्याय है, क्योंकि पिछले तीन वर्षों में BJP को छोड़ने वाले नीतीश तीसरे पुराने सहयोगी हैं. इससे पहले शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल (SAD) ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया था.
अगर तुरंत इसका असर देखें तो ये राज्यसभा में NDA को एक झटका है. अब गठबंधन से जनता दल (यूनाइटेड) के पांच कमिटेड सांसदों की संख्या कम हो जाती है. इसके साथ ही यह थोड़ी अजीब स्थिति हो गई है, क्योंकि राज्यसभा के डिप्टी चेयरमैन जद (यू) के हरिवंश सिंह हैं.
इसका मतलब ये हुआ कि राज्यसभा में वोट के लिए बीजेपी अब उन लोगों की तरफ ज्यादा देखेगी जो उनके पार्टनर नहीं हैं. जैसे नवीन पटनायक और जगन्नाथ रेड्डी. क्योंकि बीजेपी का ऊपरी सदन में बहुमत नहीं रह जाएगा, तो किसी भी समर्थन के बदले BJD, YSRCP दोनों ही अपना हिस्सा अच्छे से लेना जानते हैं. शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना के बाद नीतीश कुमार BJP को छोड़ने वाले तीसरे अहम सहयोगी हैं, जिन्होंने पिछले 3 साल में भगवा पार्टी से किनारा कर लिया है. उनका बाहर जाना कई मायनों में बीजेपी को ठेस पहुंचा सकता है.
क्षत्रप बहुत ध्यान से इस बात को देख रहे हैं कि किस तरह से सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल सरकार अपने हित में और विरोधियों को झुकाने के लिए कर रही है.
बिहार से जो राष्ट्रीय राजनीति के लिए संभावित इशारे मिल रहे हैं, उसको देखते हुए यह कुछ हैरानी वाली बात है कि बीजेपी ने नीतीश कुमार को रोकने के लिए कोई कोशिश नहीं की. .
ऐसा लगता है कि बीजेपी भी नीतीश कुमार से पल्ला छुड़ाने के लिए तैयार थी जिन्होंने NDA से अलग अपना रास्ता चुनने का फैसला किया .
जहां बीजेपी के आलाकमान इस बात से बेफिक्र है, वहीं बिहार से आने वाले बीजेपी नेता लालू और नीतीश के एक साथ होने से चिंतित हैं.
यूनाइटेड फ्रंट का मौका ?
लंबी अवधि में नीतीश कुमार का अपने कटु प्रतिद्वंद्वियों राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के लालू यादव और उनके बेटे तेजस्वी के साथ दुश्मनी को दफनाने का फैसला महागठबंधन (MGB) सरकार का '2.0' संस्करण है. यह सियासी शतरंज की बिसात पर एक बड़ा कदम है. 2024 के लोकसभा चुनावों में इसका असर हो सकता है. निश्चित तौर पर इसने कमजोर विपक्ष को कुछ हिम्मत दी है. एक बार फिर से मोदी को रोकने के लिए विपक्षी एकजुटता की बात होने लगी है. पहले की तमाम नाकामियों के बाद भी विपक्ष के नेताओं को एक बार फिर से गंभीरता पूर्वक इस कोशिश को शुरू करना चाहिए.
क्षत्रपों ने देखा है कि किस तरह सरकारी एजेंसियों जैसे प्रवर्तन निदेशालय (ED) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) का इस्तेमाल विरोधियों को निपटाने के लिए किया जा रहा है. इस बात से क्षेत्रीय नेताओं में घबराहट है. उन्होंने यह भी देखा है कि कैसे BJP ने हर तरह के हथकंडे अपनाकर कांग्रेस को कुचल दिया है और इसे खतरनाक रूप से विलुप्त होने के कगार पर ला दिया है.
हालांकि, ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार के लिए ट्रिगर महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के साथ बीजेपी का व्यवहार है. BJP ने उनके विधायकों को उनकी नाक के नीचे से हटाकर उनकी सरकार गिरा दी. सभी संस्थागत ताकत और पैसे के दम पर खुद की सरकार बना ली.
बीजेपी चाहती है विपक्ष मुक्त भारत
क्षेत्रीय दलों की चिंता यह है कि क्या जैसे-जैसे बीजेपी अपने कांग्रेस मुक्त भारत के घोषित लक्ष्य के करीब पहुंचती है, क्या अब वह विपक्ष-मुक्त भारत के लिए भी निशाना लगाएगी ?
नीतीश कुमार और दूसरे क्षत्रपों के लिए पूरे देश को भगवा रंग में रंगने के लिए BJP की हाइपर एक्टिविटी के सामने यह वजूद का सवाल बनता जा रहा है. इससे पहले कि उन्हें भी ठाकरे की तरह गद्दी से उतार दिया जाए, नीतीश कुमार को खुद को BJP से अलग करना पड़ा.
बिहार के घटनाक्रम से राष्ट्रीय राजनीति के लिए संभावित इशारे मिलने के बाद भी यह कुछ आश्चर्यजनक है कि BJP ने नीतीश कुमार को रोकने के लिए कोशिश नहीं की.
जैसा कि मीडिया में प्रचारित किया गया था कि अमित शाह और जेपी नड्डा ने अपने सहयोगी के साथ समझौता के लिए फोन कॉल किया था. अब पता चल रहा है कि ऐसा कुछ उन्होंने नहीं किया . दोनों ने ऐसी कोई बातचीत नीतीश कुमार से नहीं की.
वहीं, नीतीश कुमार और RJD के बीच सरकार बनाने को लेकर बातचीत मई से चल रही थी. ये माना जा रहा है कि मीडिया और राजनीतिक विरोधियों से बचने के लिए रात के अंधेरे में लालू और तेजस्वी से मिलने के लिए नीतीश जाते थे. मध्यरात्रि की इन यात्राओं से केंद्रीय खुफिया एजेंसियां अच्छी तरह वाकिफ थीं. मोदी-शाह को भी पूरी जानकारी इस बात की थी. लेकिन फिर भी नीतीश को रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया.
ऐसा लगता है कि BJP नीतीश कुमार से उतना ही पल्ला छुड़ाना चाहती थी, जितना कि नीतीश कुमार एनडीए से अलग होने के लिए बेचैन थे. हालांकि, बिहार में BJP के पास नीतीश, लालू, या यहां तक कि तेजस्वी के साथ मुकाबला करने के लिए कोई नेता नहीं है. 2019 के बाद से चुनावी जीत, कांग्रेस का पतन, विपक्ष की गलतियों को उजागर करने में हालिया सफलता और संस्थानों पर जबरदस्त पकड़ ने BJP को सत्ता के उस शिखर तक पहुंचा दिया है और अति आत्मविश्वास से भर दिया है जिसका मजा कभी कांग्रेस लेती थी.
नीतीश, लालू और तेजस्वी संघर्ष के लिए तैयार
यह अति आत्मविश्वास का अहंकार है कि अगर BJP महाराष्ट्र में ठाकरे को दरकिनार करवाकर एकनाथ शिंदे जैसे किसी शख्स की सरकार बना सकती है तो वह बिहार में अपनी सरकार बचाने के लिए आसानी से बुढ़ाते नीतीश कुमार, बीमार लालू और तेजस्वी जैसे नौसिखिए को "मैनेज" कर सकती है.
नीतीश और उनके नए पार्टनर जानते हैं कि महागठबंधन सरकार 2.0 की विश्वसनीयता को नष्ट करने और संभवत: इसे गिराने की कोशिश में सरकारी एजेंसियां उन्हें जल्द निशाना बनाएगी. लेकिन बिहार की सियासी गलियारों में सब कहते हैं कि उन्होंने भी अपने आप को ऐसे ही हथियारों से लैस कर लिया है. अगर लड़ाई गंदगी की तरफ बढ़ी तो फिर वो भी उनका इस्तेमाल करने में नहीं हिचकिचाएंगे.
बिहार के राष्ट्रीय नेताओं जैसे रविशंकर प्रसाद के बयानों को देखें तो उनको लगता है कि BJP विश्वासघात और सहानुभूति कार्ड खेलकर नई सरकार को भ्रष्ट और अस्थिर करने की कोशिश कर पाएगी.
हालांकि, लालू और नीतीश समान रूप से काउंटर कहानी गढ़ने में माहिर हैं. वो भी बिहारी गौरव का कार्ड चलेंगे. जैसा कि तेजस्वी ने 2020 के विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान दिखाया भी. तेजस्वी को भी पब्लिक कम्यूनिकेशन में महारत हासिल है.
दिलचस्प बात यह है कि जहां BJP के आला नेता विरोधियों को यहां तक कि नीतीश और लालू जैसों को भी कुचलने की अपनी क्षमता के बारे में चुप हैं, वहीं पार्टी के बिहार के नेता काफी चिंतित हैं. शायद वे जमीनी हकीकत से ज्यादा जुड़े हुए हैं और उन्हें डर है कि बिहार की जाति आधारित राजनीति में नीतीश-लालू-तेजस्वी गठबंधन को टक्कर देना आसान नहीं होगा.
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