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बीरभूम हिंसा: ममता बनर्जी ने अब TMC में सुधार नहीं किए तो देर हो जाएगी

West Bengal के मध्य वर्ग के साथ Mamta Banerjee का अच्छा टाइम खत्म होने वाला है.

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इतिहास का अपना एक चक्र होता है. इसका आर्क ऐसा है कि जो कभी भुक्तभोगी होता है वो फिर दूसरों का दमन करने वाला बन जाता है. साल 2001 में ममता बनर्जी की पार्टी TMC के 12 समर्थकों को तब की सत्ताधारी CPM के कार्यकर्ताओं ने मिदनापुर के छोटा अंगरिया में जिंदा जला दिया था. अब 21 साल बाद, 21 मार्च को बीरभूम जिले के रामपुरहाट इलाके के बुगटी में 8 लोग, जिनमें 6 महिलाएं और 2 बच्चे भी शामिल हैं, को जिंदा जला दिया गया. इस बार जलाने वाला कोई दूसरी नहीं उनकी ही पार्टी TMC के नेता थे.

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बंगाल में सियासी हिंसा का एक और अध्याय

ये हैवानियत वाली घटना तब हुई जब TMC के असर वाले गांव में पंचायत उप प्रमुख भादू शेख को बम से मारा गया. माना जा रहा है कि शेख के समर्थकों ने दुश्मन गैंग, जिसे इस हत्या के पीछे बताया जा रहा है, उनसे बदला लेने के लिए जवाबी कार्रवाई की. इसलिए वो अपने दुश्मनों से जुड़े लोगों के घरों को जला रहे थे. ऐसे में वो 6 महिलाएं और बच्चे घर छोड़कर कहीं सुरक्षित निकल नहीं पाए और आग में जलने से उनकी मौत हो गई. और पुलिस वक्त पर पहुंचकर घटना को रोक नहीं पाई जबकि पुलिस स्टेशन गांव से करीब ही है.

बंगाल के राजनीतिक हिंसा के कैलेंडर में ये सिर्फ एक और खराब दिन था. ये इस बात का भी रिमाइंडर है कि ममता बनर्जी ने जो साल 2011 में ‘परिवर्तन’ का वादा कर लेफ्ट फ्रंट की सरकार को सत्ता से बेदखल किया था, हकीकत में जहां तक राजनीतिक हिंसा और सियासी रंजिश की बात है कोई परिवर्तन नहीं ला पाईं.
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लेकिन बीरभूम में जो कुछ हुआ उसके लिए कोई राजनीतिक तर्क नहीं दिया जा सकता. मसलन कि ये एक राजनीतिक ग्रुप का दूसरे राजनीतिक ग्रुप पर हिंसा और हमला है. ये पूरा मामला TMC के भीतर का एक खूनी, हत्यारा गैंगवार का है.

भादू शेख, पार्टी का एक दबंग नेता है जो बालू और पत्थर माफिया बन गया था, विरोधी गैंग उसको खत्म कर अपने लिए जगह जगह बनाना चाहते हैं.

पिछले हफ्ते राजनीति और अपराध का ये खूनी साठगांठ टीएमसी के अंदर वर्चस्व बनाने के लिए चरम पर चला गया. बीरभूम में जहां पार्टी का एक दबंग अनुब्रत मंडल (जिसने दावा किया कि शॉट सर्किट होने से आग लगी) का इलाके में बहुत वर्चस्व है. इस इलाके में टीएमसी की असीम शक्ति इसके समर्थकों के पास है.

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क्या ममता इसे रोक सकती हैं ?

अब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस बात से आंखें बंद नहीं कर सकतीं कि पार्टी कैडर अब सिर्फ लाइन से बाहर ही नहीं हैं. बल्कि वो पार्टी के नियंत्रण से भी पूरी तरह से निकल चुके हैं. हालांकि जैसी आशंका थी ममता बनर्जी और पार्टी ने बीरभूम हिंसा को राज्य को बदनाम करने की साजिश बताया. लेकिन अब वो ये नहीं देखने का जोखिम नहीं ले सकती कि इस तरह की घटनाएं उनके और उनकी पार्टी के भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा. अगर वो ऐसे लोगों की समूह के तौर पर दिखेंगी जो गैंग और बदमाशों के साथ गलबहियां करता है तो ये उनके लिए अच्छा नहीं होगा.

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पहले से ही नर्क बन चुके बंगाल का एक और भयानक दिन

सवाल है कि क्या ममता भ्रष्टाचारियों और अपराधियों के खिलाफ कड़ा एक्शन लेंगी. जो इतने बरसों से पार्टी में फलती फूलती रही है, क्या इस पर कंट्रोल कर पाना भी उनके लिए मुमकिन होगा.

बेशक, बंगाल का राजनीतिक इतिहास हिंसा से भरा हुआ है. 1946 के बर्बर सांप्रदायिक दंगे, 1960 और 1970 के दशक की शुरुआत में खूनी नक्सल आंदोलन और इसे दबाने के लिए सरकारी हिंसा, 1979 में सुंदरबन में मार्चझानपी में सैकड़ों दलितों का नरसंहार, 1982 में 16 की नृशंस हत्या आनंद मार्गी भिक्षुकों (जिन्हें दक्षिण कोलकाता में बिजन सेतु फ्लाईओवर पर दिनदहाड़े जिंदा जलाया गया था), 2000 में बीरभूम के नानूर में CPM कार्यकर्ताओं के हाथों 11 भूमिहीन मजदूरों की हत्या, 2001 में छोटू अंगरिया हत्याएं, 2007 में नंदीग्राम में पुलिस फायरिंग में 14 लोगों की मौत - ये राज्य के राजनीतिक और अक्सर सरकार प्रायोजित हिंसा के कुछ भयानक रिकॉर्ड हैं.

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ऐसा लगता है कि इन क्रूर घटनाओं के बीच TMC ने अपनी जगह बनाई. दरअसल, इससे पहले पिछले ही साल ही TMC ने ताकतवर BJP को हराकर अपना शानदार तीसरा कार्यकाल हासिल किया और फिर वैसी ही हिंसा करना शुरू कर दिया, जिसके लिए CPM जानी जाती थी. CPM ने अपने राजनीतिक विरोधियों को डराया, खासकर ग्रामीण इलाकों में. टीएमसी, जिनके ज्यादातर कार्यकर्ता वामपंथी पार्टी के ही थे, उन्होंने भी वैसा ही किया.

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CPM के लिए ढलान था नंदीग्राम

2018 में बंगाल में TMC ने 34 प्रतिशत सीटों को बिना किसी विरोध के जीत लिया क्योंकि विपक्षी उम्मीदवारों को चुनाव से बाहर रहने के लिए हिंसक धमकी दी गई. विरोधियों को मजबूरन चुनाव से दूर रहने का विकल्प चुनना पड़ा. उस समय टीएमसी और उसके विरोधियों के बीच हुई झड़पों में 50 से अधिक लोग मारे गए थे.

2021 में विधानसभा चुनावों के बाद, हिंसा और प्रतिशोध का एक और दौर चलने के लिए छोड़ दिया गया. विधानसभा चुनावों में टीएमसी की जीत के तुरंत बाद कम से कम 11 लोग मारे गए थे. ऐसी आशंका है कि 2023 के पंचायत चुनाव 2018 जैसे ही होंगे. पार्टी के बाहुबली एक बार फिर विपक्ष को डरा धमकाकार चुनाव से दूर रखेंगे.

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खुद ममता के लिए हिंसा नई बात नहीं है. 1980 और 1990 के दशक में CPM के गुंडों का खामियाजा वो खुद निजी तौर पर भुगत चुकी है. तब ममता कांग्रेस की एक जोशीली युवा नेता के रूप में अपनी पहचान बना रही थीं. इसलिए, उन्हें पता होना चाहिए कि एक प्वाइंट पर पहुंचने के बाद हिंसा अक्सर काउंटर प्रोडक्टिव हो जाती है. CPM के लिए नंदीग्राम वो प्वाइंट था.

क्या बीरभूम हत्याकांड टीएमसी के लिए वैसा ही मोड़ साबित हो सकता है ? निश्चित रूप से, यह बंगाली मध्यम वर्ग के साथ पार्टी के अच्छे वक्त का अंत हो सकता है. 2021 के विधानसभा चुनावों में, वोटरों ने ममता से मोहभंग, दूसरे कार्यकाल में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और अराजकता को दरकिनार किया. ममता को प्रचंड बहुमत के साथ जिताया. क्योंकि वे चाहते थे कि BJP हार जाए और ध्रुवीकरण की अपनी राजनीति बंगाल से बाहर कहीं और ले जाए. लेकिन अब ये सब पूरा हो चुका है.

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ममता का ढोंग अब काम नहीं करेगा

बंगाल के लोग बीरभूम नरसंहार को टीएमसी के अराजक हो जाने के एक भयानक उदाहरण के सिवा और किसी दूसरे रूप में नहीं देखना चाहते. और अगर लोगों के भारी जनादेश के बावजूद, मुख्यमंत्री यह मान लेती हैं कि दोषियों को सजा दिलाने के बारे में सिर्फ बयानबाजी करके अपना काम चला लेंगी तो ये उनकी बहुत बड़ी गलती होगी.

क्या ममता अपनी पार्टी की सफाई अच्छे से कर सकती हैं ? क्या वो टीएमसी के शक्तिशाली क्षत्रपों से निपट सकती हैं जिनके समर्थन से पार्टी में आपराधिक तत्व पनपते हैं ? फिलहाल इसकी संभावना नजर नहीं आ रही है. जब आप एक बाघ की सवारी कर रहे होते हैं, तो अक्सर केवल एक चीज जो आप कर सकते हैं, वह है उस पर लगाम बनाए रखना, क्योंकि बाघ का घातक इरादा कभी खत्म नहीं होता है.

(शुमा राहा एक पत्रकार और लेखक हैं. वह @ShumaRaha पर ट्वीट करती हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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