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BJP के 'ब्रांड मोदी' को बचाने में संसद की 'बलि' चढ़ी

पीएम मोदी ने टीवी पर माफी और कानूनों को निरस्त करने के संकल्प के साथ खुद को एक मुश्किल स्थिति से निकालने की कोशिश की

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नरेंद्र मोदी सरकार के संदिग्ध मानकों के हिसाब से भी, संसद का मौजूदा शीतकालीन सत्र अभूतपूर्व है. और अब ये समझना भी मुश्किल नहीं है कि क्यों दिखावे की ही सही, पर इस बार लोकतांत्रिक आचरण में वो मर्यादा भी नहीं रखी गई, वक्त की पाबंद परंपराओं का ख्याल नहीं रखा गया और संसद को मनमाफिक ढंग से चलाए जाने दिया.

अगले साल की शुरुआत में महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से पहले इस अंतिम सत्र में सरकार के दिमाग में केवल एक ही बात है: तीन नए कृषि कानूनों पर अपमानजनक वापसी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को और ज्यादा नुकसान से बचाना.

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मोदी के लिए अपना चेहरा बचाना जरूरी था

एक ऐसे नेता के लिए जो कभी अपने "56 इंच के सीने" के बारे में शेखी बघारता था, अपने खुद के कानूनों को वापस लेने का फैसला एक बड़ा climbdown है. मोदी ने टीवी पर माफी और कानूनों को निरस्त करने के संकल्प के साथ खुद को एक मुश्किल स्थिति से निकालने की उम्मीद की.

लेकिन इससे पहले कि वो अपने कार्यकाल के एक और अध्याय को बंद कर सकें, उनके सामने एक और बाधा थी - संसद. ये वो जगह है जहां सरकार को वादे के मुताबिक कानूनों को रद्द करने के लिए जाना होता. ये वो जगह भी है जहां विपक्ष प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा करने के लिए उत्सुकता के साथ इंतजार कर रहा था.

ये समझ से बाहर है कि मौजूदा सरकार जितना अहंकार रखने वाली सरकार अपने नेता को एक ऐसे मुद्दे पर संसद में सवालों को चकमा देने के अपमान से गुजरने देगी, जिस पर वो पहले से ही बैकफुट पर हैं. उन्हें घेरने और विपक्ष को चुप करने के लिए एक शैतानी रणनीति तैयार की गई थी. इसका शिकार अगर संसद होता है, तो हो.

पिछली बैठकों, खासतौर से बहुमत के साथ मोदी की दूसरी बड़ी जीत के बाद, दिखाया है कि इस सरकार को नियमों को तोड़ने, संसदीय लोकतंत्र के स्थापित मानदंडों को दरकिनार करने और अपना काम निकलवाने के लिए - सही या गलत - का रास्ता अपनाने में कोई मलाल नहीं है.

सत्र शुरू होने से पहले ही प्लान लागू हो गया, मोदी ने सत्र की पूर्व संध्या पर सर्वदलीय बैठक में हिस्सा नहीं लिया. प्रधानमंत्रियों के लिए इन बैठकों में शामिल होना अनिवार्य नहीं है, लेकिन ये प्रथा है. इस मामले में, बड़ी बात ये थी कि शीतकालीन सत्र के एजेंडे में सबसे बड़ा मुद्दा कृषि कानूनों को निरस्त करना था.

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सदन से गायब मोदी

धारणा बदलने के लिए मोदी के पास यही पल था, लेकिन वो पीछे हट गए. ये विडंबना ही थी, क्योंकि सिर्फ दो हफ्ते पहले, उन्होंने गुरुपर्व पर राष्ट्र के नाम एक संबोधन के माध्यम से राष्ट्रीय एकता की ओर एक प्रमुख संकेत के रूप में कानून निरस्त करने की घोषणा की थी. symbolism को याद करना असंभव है, क्योंकि पंजाब नए कानूनों के खिलाफ आंदोलन का केंद्र रहा है.

इसके बाद, सरकार ने लोकसभा में बिना किसी चर्चा के कानूनों को रद्द कर दिया, जैसे कि उसने पिछले साल बिना किसी बहस के कानूनों को लाया था. विपक्ष की चर्चा की मांग को खारिज कर दिया गया. कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी सदन से गायब थे.
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इसी तरह राज्यसभा में बिना किसी बहस के इसे आगे बढ़ाया गया. गौर करने वाली बात है कि राज्यसभा में मतदान से एक दिन पहले, सदन ने 12 विपक्षी सदस्यों को पूरे सत्र के लिए संदिग्ध आधार पर निलंबित कर दिया था. इसके पीछे कारण दिया गया कि इन सांसदों ने पिछले सत्र के आखिरी दिन हंगामा किया था और संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाई थी.

ये अभूतपूर्व है और इससे पहले किसी भी सत्ताधारी सरकार ने विपक्ष को इतने बेशर्म तरीके से चुप करने का प्रयास नहीं किया है. और ये साफ है कि सरकार ने इन हथकंडों का सहारा क्यों लिया. लोकसभा से उलट, बीजेपी के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है. उनकी संख्या समान रूप से तैयार है.

विपक्ष लोकसभा में सरकार को घेरने में विफल रहा, लेकिन ये राज्यसभा में मोदी के लिए कई मुश्किलें पैदा कर सकता था. विपक्ष की संख्या 12 से कम होने के साथ, सरकार के लिए विपक्ष को शांत करना और बिना बहस के कानूनों को निरस्त करना आसान था, जैसा कि उसने दूसरे सदन में किया था.
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कांग्रेस सांसद अभिषेक सिंघवी ने निलंबन के बाद ट्वीट करते हुए कहा, "बीजेपी अब बहुमत की संख्या से आगे निकल गई है और लिस्टेड बिलों को राज्यसभा में आसानी से पारित कर सकती है."

दिलचस्प बात ये है कि संसद में मोदी का सफलतापूर्वक बचाव करने के बाद, संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने अब सुझाव दिया है कि अगर विपक्ष के 12 सांसद माफी मांगते हैं, तो उनका निलंबन रद्द किया जा सकता है. इसलिए, उन्होंने निलंबन के उद्देश्य को प्राप्त करने के बाद बातचीत के लिए एक रास्ता खोल दिया है.

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मीडिया से क्यों डरती है सरकार?

मोदी के लिए एक सुरक्षित मार्ग सुनिश्चित करने और कृषि कानूनों पर विवाद को खत्म करने की सरकार की रणनीति का एक और पहलू है. ये कोविड के बहाने संसद में मीडिया के प्रवेश को प्रतिबंधित करना जारी रखना है.

हालांकि, कोविड प्रतिबंधों में हर जगह ढील दी गई है, फिर भी उन्हें संसद में सख्ती से लागू किया जाना जारी है, जहां बारी-बारी से मीडियाकर्मियों के एक छोटे ग्रुप को ही अंदर जाने की अनुमति है. इस कदम के बाद, मीडिया ने संसद के पास विरोध प्रदर्शन किया और मांग की कि सरकार लोकतंत्र, पारदर्शिता और स्वतंत्र प्रेस का सम्मान करे.

दुर्भाग्य से, जब सर्वोच्च नेता की छवि सर्वोपरि हो जाती है, तो बाकी सब कुछ महत्वहीन हो जाता है.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्हें @AratiJ पर ट्वीट किया जा सकता है. आर्टिकल में लिखे गए विचार लेखिका के अपने हैं. क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

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