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ब्लैक पैंथर, सैराट या कबाली जैसी फिल्में बॉलीवुड क्यों नहीं बनाता?

सिर्फ श्वेत लोगों को दिखाने वाली फिल्मों की असफलता दर बहुत ज्यादा होने का भारत के लिए इसके क्या संकेत हैं?

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हॉलीवुड डायवर्सिटी रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि जिन फिल्मों और टीवी शोज में अमेरिका की नस्लीय विविधता झलकती है, वे अच्छा बिजनेस करती हैं. सिर्फ श्वेत लोगों को दिखाने वाली फिल्मों की असफलता दर बहुत ज्यादा है. भारत के लिए इसके क्या संकेत हैं?

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ब्लैक पैंथर (2017)

सिर्फ श्वेत लोगों को दिखाने वाली फिल्मों की असफलता दर बहुत ज्यादा होने का भारत के लिए इसके क्या संकेत हैं?
फिल्म ‘ब्लैक पैंथर’ में अफ्रीका के एक काल्पनिक देश की गौरवगाथा है
(फोटो: फिल्म पोस्टर)

हाल के सालों की हॉलीवुड ही नहीं, दुनिया की सफल फिल्मों में एक है ‘ब्लैक पैंथर’. अभी भी कई भारतीय सिनेमाघरों में भी लगी है. इसमें लगभग सारे लीड रोल में अश्वेत लोग हैं. श्वेत लोग साइड रोल में हैं. श्वेत कैरेक्टर्स में एक तो विलेन है. लेकिन मेन विलेन नहीं. दूसरे का खास रोल नहीं है. फिल्म के डायरेक्टर भी अश्वेत हैं. इस फिल्म में अश्वेत सभ्यता को बेहतर और श्वेतों को उपनिवेशवादी बताया गया है. फिल्म में अफ्रीका के एक काल्पनिक देश की गौरवगाथा है.

सैराट (2016)

सिर्फ श्वेत लोगों को दिखाने वाली फिल्मों की असफलता दर बहुत ज्यादा होने का भारत के लिए इसके क्या संकेत हैं?
100 करोड़ रुपये से ज्यादा बिजनेस करने वाली पहली मराठी फिल्म
(फोटो: फिल्म पोस्टर)

मराठी फिल्म इतिहास की सबसे लोकप्रिय फिल्म. 100 करोड़ रुपये से ज्यादा बिजनेस करने वाली पहली मराठी फिल्म. अब कई भाषाओं में आने की तैयारी. फिल्म के डायरेक्ट नागराज मंजुले दलित हैं और अपनी दलित पहचान कभी नहीं छिपाते. फिल्म के लीड हीरो और हिरोइन और ज्यादातर अहम रोल में दलित किरदार ही हैं. मेन हीरो फिल्म में भी दलित बना है और गैर-दलित लड़की से प्रेम करता है. विलेन ऊंची जाति के लोग हैं, जो ऑनर किलिंग करते हैं. फिल्म के क्रू में भी दलित महत्वपूर्ण भूमिकाओं में हैं.

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कबाली (2016)

सिर्फ श्वेत लोगों को दिखाने वाली फिल्मों की असफलता दर बहुत ज्यादा होने का भारत के लिए इसके क्या संकेत हैं?
‘कबाली’ ने पहले ही हफ्ते में 320 करोड़ रुपये का बिजनेस किया
(फोटो: फिल्म पोस्टर)

मूल रूप से तमिल में बनी फिल्म. कई भारतीय भाषाओं में डब हुई भारत की सफलतम फिल्मों में से एक है ‘कबाली’. पहले ही हफ्ते में 320 करोड़ रुपये का बिजनेस किया. फिल्म के डायरेक्टर पीए रंजीत दलित हैं. फिल्म में हीरो को कमजोर सामाजिक समूह का दिखाया गया है, जो बड़ा डॉन बनता है. लेकिन वह अच्छा डॉन है.

फिल्म का मेन विलेन संस्कारी है. फिल्म के सिनेमेटोग्राफर जी. मुरली, आर्ट एंड कॉस्‍ट्यूम डायरेक्टर रामलिंगम, गीतकार उमा देवी, अरुण राजा कामराज और एम बालामुरुगन दलित हैं. फिल्म के पहले शॉट में जेल में बंद रजनीकांत एक दलित आत्मकथा पढ़ते दिखाए गए हैं, एक अन्य दृश्य में वे दलितों में लोकप्रिय देवता की पूजा करते दिखाए गए हैं.

ये कुछ संकेत है कि फिल्मों में अब सामाजिक, नस्लीय विविधता को जगह मिल रही है. लेकिन बॉलीवुड में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. अश्वेत या दलित करेक्टर्स को आगे करके फिल्म और कला क्षेत्र में विविधता या डायवर्सिटी को एक विचार के तौर पर मान्यता मिल रही है. लेकिन उसकी कोई झलक मुंबई फिल्म उद्योग में क्यों नहीं दिखती?

इसकी तुलना हॉलीवुड से करेंगे, तो लगेगा कि हॉलीवुड के लोगों का दिमाग खराब हो गया है. वरना कोई ऐसा क्यों करता? वहां पांच साल से एक रिपोर्ट छपती है. हॉलीवुड डायवर्सिटी रिपोर्ट. इस रिपोर्ट को कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी का बंच सेंटर तैयार करता है. इंटरनेट पर इसे अपलोड किया जाता है, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पढ़ सकें.

यह रिपोर्ट यह जानने के लिए बनाई जाती है कि हॉलीवुड में कितनी विविधता है. यानी कि अलग अलग एथेनिक, नस्लीय समूहों के लोग क्या उसी अनुपात में हॉलीवुड में है, जिस अनुपात में वे अमेरिकी समाज में हैं. इसके अलावा यह भी देखा जाता है कि क्या हॉलीवुड में लैंगिक आधार पर बराबरी है. हालांकि इस रिपोर्ट का नाम हॉलीवुड डायवर्सिटी रिपोर्ट है, लेकिन इसके साथ टेलीविजन इंडस्ट्री का लेखाजोखा भी लिया जाता है. रिपोर्ट के एक हिस्से में साल में मिले सम्मानों और पुरस्कार पाने वालों की डायवर्सिटी का लेखा-जोखा किया जाता है.

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यह रिपोर्ट किसी तरह के आरक्षण की वकालत नहीं करती. यह रिपोर्ट यह नहीं कहती कि विविधता के नाम पर फिल्मों में अश्वेत, हिस्पैनिक या एशियन लोगों को रखने की कोई औपचारिकता निभा दी जाए. बल्कि इस रिपोर्ट का मुख्य मकसद विविधता के अभाव का अध्ययन करना है. इस रिपोर्ट के होने का मतलब है कि अमेरिकी समाज फिल्मों और टीवी में विविधता न होने को समस्या के तौर पर देखता है और समस्या का समाधान चाहता है.

इस रिपोर्ट में हर साल इस बात का अध्ययन किया जाता कि हॉलीवुड में पूरे साल में जितनी भी फिल्में बनीं और जितने भी टीवी शो बने, उसमें:

  1. लीड रोल में कितने श्वेत, कितने अश्वेत, कितनी महिलाएं थीं?
  2. तमाम भूमिकाओं में अश्वेतों और महिलाओं का कितना प्रतिनिधित्व था?
  3. फिल्में के डायरेक्टर और राइटर्स किन नस्लीय समूहों के थे?
  4. फिल्म बनाने वाली कंपनियां और स्टूडियो किनके हैं?
  5. ऐसा ही अध्ययन टीवी शोज के बारे में भी किया गया.
  6. फिल्मों और संगीत के बड़े पुरस्कार ऑस्कर और ग्रैमी पाने वालों की नस्लीय पृष्ठभूमि क्या थी?

इस रिपोर्ट का सबसे दिलचस्प नतीजा यह है कि:

  1. फिल्मों में हर पांच में सिर्फ एक डायरेक्टर अश्वेत है. हर आठ में एक फिल्म लेखक ही अश्वेत है.
  2. फिल्मों और टीवी में बेशक श्वेत लोगों का दबदबा है, लेकिन फिल्म और टीवी देखने वालों में गैर-श्वेत लोगों की संख्या ज्यादा है.
  3. फिल्मों में पुरुष वर्चस्व हर स्तर पर है. हर सात में एक डायरेक्टर ही महिला हैं.
  4. रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि जिन फिल्मों और टीवी शो में विविधता होती है, वे बेहतर बिजनेस कर रही हैं. यानी डायवर्सिटी का होना अच्छा बिजनेस फैसला है.
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अब भारत की बात करते हैं

क्या भारत में ऐसी किसी रिपोर्ट के होने की आप कल्पना कर सकते हैं? क्या भारत में ऐसी कोई रिपोर्ट प्रकाशित हो सकती कि भारतीय फिल्मों में लीड रोल में काम करने वाले किस धर्म के कितने लोग हैं, या किस जाति के कितने लोग हैं या लीड रोल ज्यादा महिलाओं को मिलता है या पुरुषों को? क्या इस बात का अध्ययन भारत में संभव है कि फिल्मों के डायरेक्टर और राइटर्स किन जातियों के हैं और वे महिला हैं या पुरुष? या कि भारत में फिल्मों और टीवी के पुरस्कार किस सामाजिक और जातीय समूह के लोगों के हिस्से में ज्यादा होते हैं और किन समुदायों को ये नहीं मिलते?

एक वयस्क या प्रौढ़ लोकतंत्र इन कठिन सवालों से रूबरू होने का साहस कर सकता है. भारत जैसे देश में, जिसे संविधान निर्माताओं ने “बनता हुआ राष्ट्र” कहा है, ऐसे सवालों की जगह अब तक नहीं बन पाई है. ऐसे सवालों को राष्ट्रीय एकता के खिलाफ माना जा सकता है और कहा जा सकता है कि जाति, धर्म और लिंग के आधार पर समानता की मांग करने से जातिवाद और सांप्रदायिकता बढ़ेगी. हालांकि किसी समस्या को न देखने से वह समस्या कैसे खत्म होगी, यह समझना मुश्किल है.

भारत के संदर्भ में डेमोग्राफी यानी आबादी की संरचना को देखें, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि फिल्मों और टीवी के दर्शकों में खूब विविधता है. भारत में गैर सवर्ण जातियों की कुल आबादी 85 परसेंट तक मानी जाती है.

2011 की जनगणना के मुताबिक देश की 24 फीसदी आबादी दलित और आदिवासियों की है. मंडल कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक ओबीसी 52 फीसदी हैं. इसके अलावा कई मध्यवर्ती जातियां हैं, जो ओबीसी नहीं हैं, लेकिन सवर्ण भी नहीं हैं. ये लोग फिल्म और टीवी के दर्शक हैं, लेकिन उन्हें अपने जैसे लोग फिल्मों और टीवी पर नजर नहीं आते.

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इन जातियों को साथ लिए बगैर भारत की कोई मुख्यधारा नहीं बन सकती. यह मुख्यधारा सिर्फ राजकाज, शिक्षा, न्याय व्यवस्था, बिजनेस में नहीं, कला क्षेत्र में भी नजर आनी चाहिए.

भारतीय कला और फिल्म जगत में विविधता लाने की पहली शर्त यह है कि इन क्षेत्रों में विविधता की स्थिति का अध्ययन किया जाए और अगर विविधता का अभाव है, तो उसे एक समस्या के तौर पर स्वीकार किया जाए. इतना होने भर से काफी फर्क पड़ेगा.

भारत में जारी होनी चाहिए बॉलीवुड डायवर्सिटी रिपोर्ट!

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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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