रविवार की छुट्टी थी कि अचानक मोबाइल पर एक वॉयस मैसेज डाउनलोड होते ही बोल उठा...मैं प्रियंका गांधी वाड्रा कल लखनऊ आ रही हूँ. सोमवार की दोपहर प्रियंका का जहाज अभी हवा में ही था कि प्रियंका गांधी का ट्विटर अकाउंट ब्लू टिक के साथ लोगों तक पहुंच गया.
अमौसी एयरपोर्ट पर जहाज उतरा ही था कि माथे पर काला टीका, हाथ में काला धागा यानी पुरबिया भाषा में गंडा पहने प्रियंका का मुस्कुराता चेहरा हर किसी को नजर आ गया. बस यहीं से शुरू हुआ रोड शो.
जबरदस्त भीड़, चारों तरफ नारों की गूंज, आंखों में उम्मीद और हर तरफ एक सवाल, क्या ये उम्मीद वोट में तब्दील हो पाएगी या नहीं, कांग्रेस की सूबे में वापसी होगी या नहीं, क्योंकि यूपी से ही गुजरता है दिल्ली की सत्ता का रास्ता.
प्रियंका की एंट्री से लटक गए विरोधियों के चहरे
यूं तो बात की शुरुआत प्रियंका के रोड शो से होनी चाहिए लेकिन मैं इसका आगाज अमौसी से लेकर हजरतगंज और हजरतगंज से लेकर मॉल एवन्यू तक तकरीबन आधा दर्जन चाय के ठेलों से करूंगा.
इन चाय के ठेलों पर बीएसपी, एसपी और बीजेपी के नेता मुझे अलग-अलग मिले. हर किसी की जुबान पर एक ही बात...ये मीडिया वाले कुछ ज्यादा ही कवरेज दे रहे हैं प्रियंका को. बातें आगे बढ़ीं...शराब से मौतों का मामला अभी गरम है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मथुरा में हैं लेकिन दिल्ली से लेकर लखनऊ तक के मीडिया के सारे कैमरे बस प्रियंका गांधी पर ही फोकस किए हुए है.
बस यही है मीडिया का पक्षपात. चाय के कुल्हड़ में सियासी संवादों के बिस्कुट डुबो कर इस गलचौरे यानी चखचख की बात बताना सिर्फ इसलिए जरूरी समझा ताकि समझा सकूं कि असल में प्रियंका के आने का फर्क न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को बल्कि बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के चेहरों से लेकर बातों तक साफ नजर आ रहा था. इन बातों को चिंता भी कहा जा सकता है.
लंबे समय तक कांग्रेस के साथ रहने वाले और खुद को एक दिन का मुख्यमंत्री कहलाने वाले बीजेपी सांसद जगदंबिका पाल भी रोड शो की इस भीड़ का शिकार हो गए. दिल्ली जाने की फ्लाइट पकड़नी थी पर कार फंस गई. लिहाजा मोटर साइकिल पर भागे और भागते भागते बोले...अब ये भीड़ वोट में बदल जाए तो समझिए वर्ना तो ये किसी नेता के राजधानी में प्रथम आगमन से ज्यादा कुछ नहीं है.
जगदंबिका पाल जानते हैं कि जब 2009 में कांग्रेस ने 22 सीटें जीती थीं तब वो भी सांसद हुए थे और अब भी उन्हें पता है कि हवा का रुख अब एकतरफा तो नहीं दिख रहा है.
एकतरफा से साफ मतलब है न सिर्फ बीजेपी के पक्ष में न सिर्फ कांग्रेस के और तो और बीएसपी-एसपी के गठबंधन के पक्ष में भी नहीं है. गौर किया जाए तो देश स्तर पर ये लड़ाई बीजेपी बनाम कांग्रेस की दिखाई दे रही है लेकिन उत्तर प्रदेश में सब से ज्यादा फिक्रमंद दिखाई दे रहा है गठबंधन.
पिछले विधानसभा चुनाव में ‘यूपी को ये साथ पसंद है’ का नारा लगाकर कांग्रेस के साथ लड़ने वाली एसपी के महासचिव रामगोपाल यादव ने कल साफ कहा कि प्रियंका तो पहले भी आती जाती रही हैं, कोई खास फर्क नहीं पड़ता. मायावती कह चुकी हैं कि कांग्रेस ने उन्हें हमेशा सताया है और जनता को मूर्ख बनाया है.
लेकिन सच तो ये है कि एसपी और बीएसपी ने भले ही हाथ मिला लिए हों पर इन दोनों की, या यूं कहें कि गठबंधन की नजर कांग्रेस पर है और प्रियंका के आने के बाद तो ये नजर टकटकी में बदल गई है.
जातीय समीकरण के गणित में फंसेगा पेच
नजर इसलिए कि आखिर मुस्लिम वोट किस तरफ जाएगा. बीएसपी सोच रही है कि दलित और दलित में खासकर जाटव और पिछड़ों में यादव के साथ अगर मुस्लिम आ जाए तो बेड़ा पार. उधर एसपी का ब्लूप्रिंट है कि जाटव और यादव के साथ मुस्लिम आ जाए तो सीधे गंगा स्नान. लेकिन गठबंधन के इन दोनों धड़ों को ये फिक्र खाए जा रही है कि कहीं देश स्तर पर मुस्लिम वोटों ने एकतरफा कांग्रेस में जाने का फैसला कर लिया तो सारा गणित फेल हो जाएगा.
कौन जाने वोटर नामक ऊंट किस करवट बैठेगा?
साफ सी बात है विधानसभा और लोकसभा का वोटिंग पैटर्न एकदम जुदा होता है और यूपी की सियासत किसी भी सूबे से एकदम अलग है. यहां कानून व्यवस्था के नाम पर सख्त शासन चलाने वाली मायावती सरकार की तारीफों के नारे लगाने वाली जनता 2012 में बीएसपी को 212 सीटों से सीधे 80 तक पहुंचाती है और काम बोलता है का नारा बुलंद करने वाली अखिलेश सरकार को 2017 में तकरीबन 224 सीटों से गिराकर पचास का आंकड़ा भी पूरा नहीं करने देती है.
लेकिन जब लोकसभा का चुनाव आता है तो बीएसपी सिफर हो जाती है, एसपी पांच में सिमट जाती है, कांग्रेस दो और भारतीय जनता पार्टी 73 सीटों पर परचम लहराती है. कहानी यहीं खत्म नहीं होती. कुछ दिन पहले ही जिस जनता ने भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनावों में 325 सीटें सौंप दी थीं वही जनता सरकार के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ढाई दशक पुरानी सीट छीन लेती है. उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या की सीट फूलपुर से बीजेपी को बेदखल कर देती है और पलायन के नाम पर बदनाम कैराना से बीजेपी को उखाड़ फेंकती है.
राहुल, प्रियंका के साथ थे और बेहद हमलावर थे लेकिन इस हमले के दौरान वो मायावती और अखिलेश को लेकर न सिर्फ संयमित रहे बल्कि उन्होंने सम्मान भी बनाए रखा. भले ही दोनों दल उनकी मीनमेख निकालने में जुटे हैं और उन्हीं को अपनी राह का रोड़ा समझने लगे हों. कोई शक नहीं कि जब तक सिर्फ राहुल थे तब तक सियासत सरल नजर आ रही थी लेकिन प्रियंका के आने के बाद ही अगड़े वोटों की चिंता सताने लगी है. क्योंकि प्रियंका का चेहरा किसी के लिए इंदिरा गांधी तो किसी के लिए राजीव गांधी है तो किसी को दोनों की शहादत याद दिलाने का सबब बन गया है.
भीड़ थी, झंडे थे, जोश था, नारे थे, रोड जाम था और शायद कांग्रेस के लिए एक बेहतर आगाज था और विपक्ष के लिए खतरे की घंटी. लेकिन क्या कांग्रेस का लुप्त हो चुका संगठन प्रियंका के नाम पर उठ खड़ा होगा. क्या कागजों पर चल रही कांग्रेस की दर्जनों जिला इकाइयां फिर से मैदान पर नजर आएंगी.
ये सवाल इसलिए बड़े हैं क्योंकि बीएसपी का ग्रास रूट कैडर सबसे मजबूत है. बीजेपी का संगठन पूरी तरह चार्ज है. कुनबे की महाभारत के चलते फिलहाल संगठन से जूझने के हालातों से एसपी भी गुजर रही है लेकिन फिर भी उसकी हालत कांग्रेस से मजबूत है.
अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव की पार्टी एसपी के लिए ही सेंध सबित होगी लेकिन सवाल ये कि क्या ये सेंध साधने में प्रियंका कामयाब होंगी. इन सवालों के जवाब खुद प्रियंका गांधी को ही तलाशने होंगे क्योंकि राहुल गांधी ने साफ कह दिया है कि प्रियंका गांधी को अगले विधानसभा चुनाव जिता कर कांग्रेस की सरकार बनानी है.
इशारा साफ है कि प्रियंका के भरोसे न सिर्फ 2019 का लोकसभा चुनाव बल्कि 2022 में विधानसभा चुनाव भी प्रियंका की अगुआई में होगा. ये इशारा इसलिए खास है क्योंकि इससे जनता को साफ मैसेज जाता है कि अब यूपी में कांग्रेस का चेहरा कोई और नहीं सिर्फ प्रियंका होंगी. इस लिहाज से ये कहना लाजिमी है कि सब कुछ इतना सरल नहीं है न प्रियंका के लिए न विपक्ष के लिए. विपक्ष बीजेपी को कहे या गठबंधन को क्योंकि प्रियंका के आने का फर्क तो हर हाल में पड़ेगा बस ये फर्क वोटों में तब्दील होकर सीटों की गिनती तक पहुंचना बाकी है.
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