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नई सोच की कमी की वजह से कूटनीतिक मोर्चे पर नाकामी

एक तरफ मोदी नेतन्याहू के गले लग रहे थे, दूसरी तरफ भारत-चीन-भूटान सीमा पर भारत और चीन के बीच टकराव बढ़ रहा था.

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दो रहस्यमय और एक दूसरे से उलट घटनाएं इस हफ्ते हुईं, जिनसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेशी नीति की कामयाबी और नाकामी का पता चलता है. एक तरफ मोदी इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के गले लग रहे थे, दूसरी तरफ भारत-चीन-भूटान सीमा पर भारत और चीन के बीच टकराव बढ़ रहा था.

दोनों में से कोई भी देश पीछे हटने को तैयार नहीं है और चीन ने 1962 के बाद पहली बार भारत के खिलाफ इतने तल्ख तेवर दिखाए हैं.

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नरसिंह राव ने की थी पहल

इजरायल से भारत के रिश्ते पिछले 25 साल के दौरान मजबूत हुए हैं, जिसका नतीजा प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के तौर पर सामने आया. इसकी शुरुआत नरसिंह राव सरकार ने की थी. राव सरकार ने इजरायल के साथ राजनयिक रिश्तों को बढ़ाकर राजदूत स्तर का बनाया था. इससे पहले करीब चार दशक तक दोनों देश कौंसुल के जरिये राजनयिक संबंध बनाए हुए थे.



एक तरफ मोदी नेतन्याहू के गले लग रहे थे, दूसरी तरफ भारत-चीन-भूटान सीमा पर भारत और चीन के बीच टकराव बढ़ रहा था.
इजराइल से करीबी के बाद अरब देश भारत से नाराज हो सकते हैं
(फोटो: ट्विटर/@IsraeliPM)
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इजरायल से बढ़ी दोस्ती

मोदी फिलिस्तीन नहीं गए. ऐसा पहली बार हुआ, जब किसी आधिकारिक यात्रा के दौरान भारत सरकार का कोई प्रतिनिधि इजरायल गया हो और फिलिस्तीन नहीं. इससे पता चलता है कि इजरायल के साथ हमारे रिश्ते मेच्योर हो गए हैं.

कई बार पश्चिमी देशों के प्रतिनिधि भारत के साथ पाकिस्तान यात्रा पर जाते रहे हैं. ऐसे में भारत का इजरायल और फिलिस्तीन को अलग करना यह दिखाता है कि उसका आत्मविश्वास बढ़ रहा है.

भारत सरकार ने अरब देशों की भावनाओं का भी ख्याल रखा. मोदी इससे पहले सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और ईरान की यात्रा पर गए थे, जिसकी काफी प्रचार भी किया गया था. भारत ने इस साल मई में फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास की भी मेजबानी की थी. इसमें कोई शक नहीं कि मोदी की इजरायल यात्रा के बारे में उन्हें पहले से बताया गया होगा. उनसे यह भी कहा गया होगा कि इजरायल की यात्रा का मतलब यह नहीं है कि फिलिस्तीन के लिए न्याय की मांग के बरसों पुराने रुख से भारत कोई समझौता कर रहा है.

इसके बावजूद इस यात्रा को लेकर फिलिस्तीन में नाराजगी होगी, जिसे मोदी सरकार को आगे दूर करना होगा. प्रधानमंत्री की इजरायल यात्रा दूसरे देशों की उनकी यात्रा जैसी नहीं थी. इसके नतीजे सामने आएंगे और इसका सांकेतिक महत्व भी है. यह स्मार्ट डिप्लोमेसी है.

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डिप्लोमैटिक मिस-मैनेजमेंट

हालांकि, चीन सीमा पर टकराव से डिप्लोमैटिक मिस-मैनेजमेंट का संकेत मिलता है. चीन के साथ भारत कई पीढ़ियों से रिश्ते सुधारने की कोशिश कर रहा था, लेकिन इस मामले से ऐसा लगता है कि पड़ोसी मुल्क के साथ बेहतर राजनयिक संबंध बनाए रखने से भारत का ध्यान हट गया है.

दोस्ताना माहौल नहीं रहा



एक तरफ मोदी नेतन्याहू के गले लग रहे थे, दूसरी तरफ भारत-चीन-भूटान सीमा पर भारत और चीन के बीच टकराव बढ़ रहा था.
भारत और चीन के बीच लगातार बढ़ रहा है तनाव
(फोटो: Reuters)

1991 से 2013 के बीच चीन के साथ भारत का व्यापार 230 गुना बढ़ा. दोनों देशों ने ब्रिक्स और उसके न्यू डिवेलपमेंट बैंक की स्थापना में सहयोग किया. इस बीच, कई आधिकारिक यात्राएं भी हुईं. वजह चाहे जो भी हो, चीन के साथ रिश्तों में हम ऐसे मोड़ पर पहुंच गए हैं कि दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हैं.

चीन ने सीमा को लेकर अड़ियल रुख अपना लिया है और उसने नाथू ला के जरिये कैलाश मानसरोवर की यात्रा कैंसल कर दी है, जिसे हाल ही में खोला गया था. चीन ने यह भी कहा है कि जब तक भारत अपनी सेना नहीं हटाता, तब तक वह उससे कोई बातचीत नहीं करेगा. यह ऐसी मांग है, जिसे भारत सरकार के लिए मानना संभव नहीं है.

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1962 युद्ध की चर्चा

इस बीच, चीन के सरकारी नियंत्रण वाले मीडिया ने 1962 के युद्ध की चर्चा शुरू कर दी है और वह भारत को दोबारा सबक सिखाने की चेतावनी दे रहा है. चाइनीज मीडिया में यह भी कहा गया है कि वहां की सरकार सिक्किम के भारत के साथ जाने और भूटान की हम पर निर्भरता की पॉलिसी पर फिर से विचार करेगी. यह भड़काऊ और आक्रामक भाषा है.



एक तरफ मोदी नेतन्याहू के गले लग रहे थे, दूसरी तरफ भारत-चीन-भूटान सीमा पर भारत और चीन के बीच टकराव बढ़ रहा था.
चीन का अड़ि‍यल रवैया भारत के लिए चिंता की बात है
(फोटो: Reuters)

कहां हुई गलती?

चीन के साथ भारत के रिश्ते इतने खराब क्यों हुए? यह बात सच है कि चीन हमारे प्रति बहुत दोस्ताना रुख नहीं रखता. उसने एनएसजी में भारत की सदस्यता का विरोध किया. वह पाकिस्तानी आतंकवादी मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र से ब्लैकलिस्ट करवाने की भारत की पहल में भी अड़ंगा डालता रहा है.

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OBOR पर क्या हमने गलती की?

अगर भारत चीन की तरफ से बुलाई गई ‘वन बेल्ट वन रोड' यानी ओबीओआर मीटिंग में शामिल होता, तो क्या उसका रुख नरम हो सकता था? हम इसमें शामिल होकर भी इस प्रोजेक्ट के पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से गुजरने को भारत की संप्रुभता का उल्लंघन बताते हुए विरोध जता सकते थे.

क्या हम ओबीओआर के मकसद का स्वागत करते हुए उसे भारतीय सीमा में गुजरात के बंदरगाह से जोड़ने का प्रस्ताव देते तो यह बेहतर होता?

कम से कम इससे यह मैसेज तो जाता कि हम उसके ग्रैंड विजन में अड़ंगा नहीं डाल रहे हैं. क्या इस तरह से चीन के साथ रिश्तों को बेहतर बनाए रखा जा सकता था?

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नई सोच नहीं दिख रही

इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है, लेकिन इसकी वजह यह है कि मोदी सरकार में किसी के पास नई सोच नहीं है. चीन के साथ टकराव से यह बात साबित हो गई है. धुआंधार विदेश यात्राओं से प्रधानमंत्री खूब सुर्खियां बटोर रहे हैं, लेकिन इन यात्राओं से देश को बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ है.

पाकिस्तान मोदी सरकार की फ्लॉप विदेश नीति की जीती-जागती मिसाल है. इस सरकार ने बार-बार पाकिस्तान को लेकर रुख बदला है. ऐसा लगता है कि उसके पास कोई पॉलिसी ही नहीं है. अब चीन भी इस क्लब में शामिल हो गया है.

एक देशभक्त होने के नाते मैं उम्मीद करता हूं कि चीन के सामने मोदी सरकार न झुके. लेकिन मैं यह भी चाहता हूं कि विदेश नीति पर ठीक से सोचना शुरू करें. जो लोग दुनिया में भारत का कद बढ़ा हुआ देखना चाहते हैं, उनके पास इस मामले में करने को बहुत कुछ है.

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