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नहीं मी लॉर्ड, महिलाओं को नौकरी पर न रखना समस्या का समाधान नहीं!

वर्कप्लेस में महिलाओं की हिस्सेदारी भारत में लगातार गिर रही है

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एक खबर आई जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने जजों की एक बैठक के हवाले से बताया है कि कई जजों ने कहा है कि उन्हें अपने आवासीय दफ्तरों में सिर्फ पुरुष स्टाफ दिए जाएं. वे नहीं चाहते कि महिला स्टाफ रखने के कारण वे भी वैसी मुसीबत में फंसे, जैसे कि जस्टिस गोगोई के साथ हुआ.

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जाहिर है कि ये बात सिर्फ पुरुष जजों ने कही होगी. सुप्रीम कोर्ट में इस समय ऐतिहासिक रूप से सबसे अधिक, तीन महिला जज हैं. हमें नहीं मालूम, क्योंकि जस्टिस गोगोई ने बताया नहीं है, कि पुरुष जजों की सिर्फ पुरुष स्टाफ की मांग पर महिला जजों की क्या प्रतिक्रिया है?

भारत में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत वैसे भी काफी कम सिर्फ 26 फीसदी है. इस मामले में भारत दुनिया के फिसड्डी देशों में हैं. वर्कप्लेस में महिलाओं की हिस्सेदारी भारत में लगातार गिर रही है और अर्थशास्त्रियों के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि इसका असर जीडीपी विकास दर पर बुरा होता है.

ऐसे में कामकाजी महिलाओं को लेकर कोई भी विवाद महिलाओं के कामकाजी होने में बाधा खड़ी करेगा. खासकर अगर सुप्रीम कोर्ट के जज जैसे उच्चपदस्थ लोग ये कहें कि उन्हें महिला स्टाफ नहीं चाहिए, तो इसका गहरा असर पूरे देश पर हो सकता है.

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वर्कप्लेस पर महिलाओं के होने को एक समस्या के तौर पर देखने की कोशिश हमेशा से रही है. महिलाओं को काम पर रखने की वजह से महिला शौचालय बनाना, छोटे बच्चों के लिए क्रेच की व्यवस्था, उनके ऑफिस ड्रेस जैसे सवाल तो हमेशा से रहे हैं. इसके अलावा कई तरह की स्टीरियोटाइप कि “वे तो गप बहुत करती हैं, बेवजह छुट्टियां लेती हैं, स्वेटर बुनती रहती हैं, गोपनीय सूचनाओं को छिपा नहीं नहीं पातीं, मैथ कमजोर होता है” आदि तो है ही.

अब वैश्विक स्तर पर साबित हो गया है कि महिलाओं में ऐसी कोई कमी नहीं होती हैं, और वे भी पुरुषों के बराबर और कई मायने में उनसे बेहतर काम कर सकती हैं और कि जिन देशों में वर्कफोर्स में महिलाएं ज्यादा हैं, उन्होंने तेजी से तरक्की की है.

ऐसे में महिलाओं को काम पर न रखने का एक नया तर्क भारत में विकसित हो रहा है कि महिला कर्मचारी नाराज होने से या किसी स्वार्थ की वजह से पुरुष स्टाफ या बॉस पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा सकती है. इसलिए बेहतर है कि उन्हें काम पर ही न रखो.
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इस तर्क में कई दोष हैं, जिनकी वजह से इसे खारिज किया जाना चाहिए

  1. वर्कप्लेस में महिलाओं का यौन शोषण एक वास्तविकता है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता. भारत जैसे देश में जहां स्त्री-पुरुष संबंध का परंपरागत ढांचा ऐसा है, जहां महिलाओं की स्वतंत्र सत्ता से इनकार किया जाता है और उनकी इच्छा या अनिच्छा को खास महत्व नहीं दिया जाता, वहां पुरुष स्टाफ या बॉस महिलाओं की स्वायत्त हैसियत की परवाह कई बार नहीं करते. कहने का मतलब यह नहीं है कि हर महिला का दफ्तर में शोषण होता है या हर पुरुष स्टाफ और बॉस यौन शिकारी है, लेकिन दफ्तरों में ये बहुत दुर्लभ घटना भी नहीं है, इसे देखते हुए ही विशाखा गाइडलाइंस के तहत हर दफ्तर में एक आंतरिक कमेटी बनाए जाने का प्रावधान है, जो ऐसी शिकायतें सुनने का पहला मंच है. विशाखा गाइडलाइंस का आधार 1997 का सुप्रीम कोर्ट का एक जजमेंट है. बाद में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित 2013 के कानून ने उसकी जगह ले ली. हालांकि गंभीर मामलों में सीधे पुलिस या कोर्ट में जाने का विकल्प भी होता है.
  2. वर्क प्लेस में महिलाओं के संरक्षण के लिए जो प्रावधान हैं, उनका अगर सही तरीके से पालन हो, तो न सिर्फ हर पीड़ित की शिकायत का निवारण होगा, बल्कि कोई निर्दोष फंसेगा भी नहीं.
  3. कोई अगर ये कहे कि महिलाओं को स्टाफ में रखने की वजह से वे हमेशा इस चिंता में रहेंगे कि कोई उन पर आरोप लगा देगा, तो इस तर्क का विस्तार यह है कि दलित और आदिवासी स्टाफ भी नहीं रखना चाहिए क्योंकि उनके बारे में भी कहा जा सकता है कि वे एससी-एसटी उत्पीड़न निवारण अधिनियम के तहत मुकदमा कर देंगे. इस हिसाब से देश की 60 से 70 फीसदी आबादी नौकरी करने के योग्य ही नहीं रह जाएगी क्योंकि उन्हें नौकरी देते समय, ये भय रहेगा कि वे फंसा देंगे या फंसा देंगी.
  4. ये एक विचित्र स्थिति होगी और कानून के नजर में हर नागरिक के बराबर होने के संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ होगा.
  5. इस पूरी समस्या का समाधान ये नहीं है कि किसी को कानून से ऊपर माना जाए या महिलाओं को स्टाफ में रखा ही न जाए. तरीका ये है कि यौन उत्पीड़न की जांच के लिए एक पुख्ता तरीका काम करे, जिसमें हर पीड़ित को न्याय मिले और एक भी निर्दोष सजा न पाए. यह चुनौती न्याय प्रणाली की है जिसके शिखर पर जज बैठे हैं.

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