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यूपी चुनाव में कांग्रेस सीमित सीटों पर फोकस करे तो उसे फायदा हो सकता है

पड़ोसी राज्यों में कांग्रेस की रणनीति और नतीजे बताते हैं कि यूपी में उसे क्या करना चाहिए

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उत्तर प्रदेश में कांग्रेस (Congress in Uttar Pradesh) सही कदम उठाती दिख रही है. पार्टी ने जिस तरह से पहले महिला केंद्रित अभियान शुरु किया और फिर अब तक घोषित 125 में से लगभग 40% महिला उम्मीदवारों की घोषणा की है, उससे राज्य में कुछ हलचल पैदा करने में पार्टी को कामयाबी मिली है.

लेकिन क्या पार्टी इस हलचल व प्रचार को वोट और सीट में तब्दील कर सकती है? 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh election) में जब कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करते हुए 114 सीटों पर चुनाव लड़ा था, तब वह धड़ाम से नीचे आ गई थी. उस चुनाव में पार्टी पूरे राज्य में महज 6 प्रतिशत वोट शेयर के साथ केवल सात सीटें ही जुटा सकी थी. लेकिन वह एक ऐसा चुनाव भी था जिसमें बीजेपी की लहर के कारण अन्य दूसरी पार्टियां भी नीचे गिर गई थीं. उन सभी को झटका लगा था.

ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि पिछली बार के चुनाव की तुलना में उत्तर प्रदेश विधान सभा का इस बार का चुनाव ज्यादा प्रतिस्पर्धी हो सकता है. इसी वजह से प्रदेश में कांग्रेस के पास अपना बेस मजबूत करने का मौका हो सकता है.

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न्यूज रिपोर्ट्स के अनुसार, इस बार के चुनाव में पार्टी ने प्रदेश की सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ने की योजना बना रखी है और अभी तक 125 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है. 1996 के बाद से पार्टी का वोट शेयर यहां 8% से नीचे रहा है, हालांकि वर्ष 2012 अपवाद रहा था जब पार्टी का वोट शेयर 11% तक पहुंच गया था. ऐसे में यह बात समझनी होगी कि या तो पार्टी पूरे राज्य में थोड़ी थोड़ी ताकत लगाए या कुछ सीटों पर पूरी ताकत लगाकर फायदा उठाए.

पड़ोसी राज्यों के पास कांग्रेस के पुनरुत्थान की कुंजी हो सकती है. इस तथ्य के बावजूद कि पार्टी के पास अब जमीन स्तर पर जनाधार नहीं है, कांग्रेस ने बिहार और झारखंड में सीटों का विस्तार करते हुए चुनाव लड़ा, जिसका नतीजा सबके सामने है. पार्टी वहां बुरी तरह विफल रही. झारखंड में 2014 के विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस ने 62 सीटों पर चुनाव लड़ा था तब उसे महज छह सीटों पर जीत हासिल हुई थी. वहीं 2019 में जब पार्टी ने गठबंधन करते हुए आधी सीटों पर चुनाव लड़ा तब उसे 31 में से 16 सीटों पर जीत मिली.

हालांकि यहां पर यह तर्क दिया जा सकता है कि पार्टी की सीटों का ग्राफ इसलिए बढ़ा क्योंकि गठबंधन के सहयोगी दलों के वोट भी कांग्रेस पार्टी की झोली में आ गए थे. लेकिन वहीं जब बिहार में पार्टी ने गठबंधन किया और जमीनी पकड़ की तुलना में अधिक सीटों पर सौदेबाजी करते हुए चुनावी मैदान पर उतरी तब परिणाम किसी आपदा से कम नहीं था. 2015 के बिहार चुनाव में पार्टी ने 41 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 27 पर जीत हासिल की थी, जबकि 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा और अपनी संख्या को आठ से कम करते हुए केवल 19 सीटों पर जीत हासिल की. 2015 के गठबंधन की तुलना में 2020 की हार कहीं ज्याद विकट थी क्योंकि 2020 में कांग्रेस ने राजद और सीपीआई-एमएल जैसे अपने सहयोगियों की तुलना में भी कमजोर प्रदर्शन किया.

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कांग्रेस तब अपनी स्ट्राइक रेट को काफी हद तक कम कर देती है जब वह श्रमिकों/कैडरों के मामले में जमीन स्तर पर अपनी उपस्थिति बढ़ाने पर काम किए बिना आगे बढ़ने की कोशिश करती है. उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में भी पार्टी का स्ट्राइक रेट केवल 6% था.

ऐसे में सवाल यह है कि क्या कांग्रेस को राज्यव्यापी वोट शेयर बनाए रखने या अपने प्रयासों को उन जगहों पर केंद्रित करने से बेहतर नतीजे मिलते हैं जहां इसका प्रभाव अधिक हो सकता है.

जब तक कि पार्टी के पास एक बड़ा कैडर आधार न हो, इस सवाल का जवाब चुनाव से चुनाव तक बदल सकता है. जब विपक्ष को मौका मिलता है, जैसा कि इस समय है, कांग्रेस को अपने ज्यादा स्कोर पर ध्यान देना चाहिए ताकि चुनाव के बाद गैर-बीजेपी क्षेत्र में अन्य दलों के साथ सौदेबाजी करने में सक्षम हो सके. यूपी में कांग्रेस का काडर कमजोर है ऐसे में उसे सीमित जगहों पर ताकत झोंकनी चााहिए. लेकिन ऐसे में सवाल यह उठता है कि कांग्रेस अपने संसाधनों को कहां टारगेट करे?

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मिशन अवध

अवध क्षेत्र से 90 विधायक चुनकर उत्तर प्रदेश विधान सभा में जाते हैं. कांग्रेस पार्टी की इस क्षेत्र में पर्याप्त पैठ है. 2017 में कांग्रेस के 7 विजयी उम्मीदवारों में से 3 अवध से निकलकर आए थे. वहीं 2012 में जब पार्टी के प्रदेश भर में 28 विधायकों ने जीत दर्ज की थी तब 6 विधायक अवध क्षेत्र से थे.

2017 में अवध क्षेत्र से कांग्रेस को 14 प्रतिशत और 2012 में 25 प्रतिशत वोट मिले थे, ये आंकड़े अन्य क्षेत्रों में की तुलना में कहीं बेहतर थे.

अवध क्षेत्र परंपरागत रूप से कांग्रेस पार्टी का गढ़ रहा है. इसमें अमेठी और रायबरेली के पारिवारिक गढ़ भी शामिल हैं.

पार्टी ने एक बार फिर इस क्षेत्र के उम्मीदवारों का एक दिलचस्प मिश्रण चुना है.

पार्टी ने इस बार उन्नाव रेप पीड़िता की मां आशा सिंह को टिकट दिया है. वह उन्नाव सीट से चुनाव लड़ेंगी. एंटी-सीएए एक्टिविस्ट सदफ जफर को लखनऊ सेंट्रल से टिकट दिया गया है और लखीमपुर खीरी के मोहम्मदी से रितु सिंह को टिकट दिया गया है, कथित तौर पर जिनके कपड़े बीजेपी कार्यकर्ताओं ने फाड़ दिए थे.

इनके अलावा पार्टी ने पारंपरिक राजनेताओं को भी टिकट दिया है जो अपनी सीटों पर अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं. उदाहरण के लिए, विधायक आराधना मिश्रा रामपुर खास से कांग्रेस के लिए चुनाव लड़ेंगी, जिसे उत्तर प्रदेश में पार्टी की सबसे मजबूत सीट और उनके पिता प्रमोद तिवारी का गढ़ माना जाता है.

इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि कानपुर में दो उम्मीदवारों का भी अच्छा प्रभाव है. उनमें से एक किदवई नगर से अजय कपूर हैं और दूसरे हैं कानपुर छावनी के मौजूदा विधायक सोहिल अख्तर अंसारी.

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पूर्वांचल में संभावनाएं

पूर्वांचल में लगभग 100 सीटें हैं, यह दूसरा ऐसा क्षेत्र हो सकता है जिसे पार्टी टारगेट कर सकती है. 2012 के विधानसभा चुनाव में 10% वोट शेयर के साथ, पार्टी ने इस क्षेत्र से आठ सीटें अपने नाम की थीं. पार्टी ने 2017 के चुनाव में इस क्षेत्र से केवल एक सीट जीती थी, हालांकि जहां कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था उन सीटों पर उसका वोट शेयर 25 फीसदी था.

यदि कांग्रेस इन क्षेत्रों में 50 से 60 सीटें चुन सकती है और उन सीटों पर ध्यान केंद्रित कर अभियान चला सकती है, जिन पर बीजेपी की नजर है, तो वह दो लक्ष्यों को प्राप्त कर सकती है. पहला यह कि कांग्रेस पर्याप्त सीटें हासिल की संभावना को बढ़ाएगी जो कि निर्णायक साबित हो सकती है और दूसरा, त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति.

हालांकि, दूसरा लक्ष्य (त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति) अधिक महत्वपूर्ण है. भले ही कांग्रेस यहां पर्याप्त सीटें न जीत पाए लेकिन वह अपनी राष्ट्रीय विरोधी पार्टी बीजेपी के वोटों को काटते हुए परिणाम को प्रभावित करने में सक्षम है. वहीं यह भविष्य की सहयोगी समाजवादी पार्टी को एक मजबूत आधार देता है जिससे संख्या का विस्तार किया जा सकता है.

समाजवादी पार्टी पहले से मजबूत दिख रही है. बीजेपी के अधिकांश दलबदलू वहां जा रहे हैं. हालांकि, उत्तर प्रदेश में किसी विधानसभा चुनाव में इसे कभी भी 30% से अधिक वोट नहीं मिले हैं. दूसरी ओर, बीजेपी और उसके सहयोगियों को 2017 के विधानसभा चुनाव में 40% से अधिक और 2019 के लोकसभा चुनाव में लगभग 59 प्रतिशत वोट मिले हैं.

सीधे मुकाबले में समाजवादी पार्टी को बीजेपी से ज्यादा वोट मिलने की संभावना नहीं है.

केवल तीन या चौतरफा मुकाबला ही बीजेपी की हार को सुनिश्चित कर सकता है. यहीं कांग्रेस की भूमिका है, यहीं अखिलेश यादव के साथ वो खुले या गुप्त रूप में समझौता कर सकती है.

(समर्थ सरन पॉलिटिकल और कम्युनिकेशन कंसल्टेंट हैं. इस लेख में व्यक्त किया गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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