लंबे लॉकडाउन का एक अच्छा साइड एफेक्ट हुआ है. उन दोस्तों से बात करने का मौका मिला जो कब के बिछड़ गए थे. मेरे लिए सबसे सुखद अनुभव रहा करीब 30 सालों बाद अपने स्कूल के दोस्तों से जुड़ना, जिसमें काफी लड़कियां भी हैं. यह सामाजिक क्रांति से कम नहीं है, क्योंकि स्कूल के दिनों में कभी भी उनसे बात नहीं हुई.
हमारे स्कूल में लड़के और लड़कियों की दुनिया बिल्कुल अलग हुआ करती थी. कुछ भी कॉमन ग्राउंड नहीं था. लेकिन तीस साल बाद काफी आत्मियता है, जोक्स शेयर हो रहे हैं, एक-दूसरे का खुलकर मजाक भी उड़ाया जा रहा है. और सबकुछ अच्छे और स्वस्थ माहौल में हो रहा है.
ऐसे आत्मीयता के माहौल में भी जब कभी भी मैं कोरोना से लड़ने पर सरकार की कुछ कमियों की बात करने की कोशिश करता हूं, तो दबे स्वर में ही सही, एक ही तरह की भावना का सामना होता है- इस महामारी से लड़ने में पीएम मोदी से बेहतर विकल्प अपने देश में नहीं हैं.
अपने दोस्तों और दूसरे करीबियों का ध्यान मैंने कई मुद्दों पर लाने की कोशिश की. कुछ मुद्दे इस तरह के हैं:
- इतना सख्त लॉकडाउन दुनिया के और किसी देश में नहीं है. जहां जर्मनी और अमेरिका जैसे विकसित देशों की सरकारों ने लोगों को राहत पहुंचाने के लिए खजाना खोल दिया है, अपने देश में राहत के नाम पर लोगों को अब तक झुनझुना ही पकड़ाया गया है. ऐसे भारी मुश्किल के दौर में ध्यान सरकारी खजाने की सेहत बचाने पर ही है. लोगों को राहत पहुंचाने में देरी समझ से परे है.
- इतने लंबे लॉकडाउन में उनके बारे में सोचिए जिनकी दूसरी बीमारियों से लड़ने की क्षमता में कमी हो रही है. नौकरियां जा रही हैं और आगे भी ये सिलसिला बढ़ने का खतरा है. खाना ही नहीं मिलेगा तो कोरोना तो दूर, दूसरी भयावह बीमारियों से कमजोर तबकों के लोग कैसे लड़ पाएंगे. इसीलिए हमारा फोकस अब अर्थव्यवस्था को तेजी से बचाने पर होना चाहिए. ऐसे में लॉकडाउन हमारे लिए एक लक्जरी है जिसकी कीमत चुकाना हमारी मुश्किलें और बढ़ा सकता है.
- शुरूआती प्रोजेक्शन को मानकर, जिसमें कोरोना को महादैत्य (शायद वो सच भी हो) के रूप में पेश किया गया था, हमने सबसे कड़े लॉकडाउन की घोषणा कर दी. अब साफ दिख रहा है कि कोरोना का दानव अपने देश में लाचार ही दिख रहा है. तो क्या अपनी स्ट्रैटजी में हमें बदलाव की जरूरत नहीं है? क्या हमें लॉकडाउन से बाहर निकलने पर तेजी से विचार नहीं करनी चाहिए?
- और जैसा कि देश के एक बड़े सम्मानित स्तंभकार ने लिखा है, क्या इस बात का खतरा नहीं बढ़ रहा है कि हम कोरोना के कहर के सामने बेबस हो जाएं और लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था को भी काफी नुकसान पहुंचा दें. ऐसा होता है तो वो दोहरी त्रासदी होगी.
मेरे दोस्तों और सगों का मुझपर स्नेह रहा है इसीलिए वो मेरी बात सुन लेतें है. लेकिन उनके हाव भाव से लगता है कि उनके हिसाब से लॉकडाउन एकदम सही रास्ता है, क्योंकि पीएम मोदी ने उन्हें बताया है. कोरोना भी बड़ा खतरा उनके लिए तब बना जब मोदी जी ने उन्हें इस खतरे से आगाह कराया और इससे लड़ने में वो वही करेंगे जो प्रधानमंत्री कहेंगे.
पीएम की हर बात का लोग करते हैं पालन
उनके हिसाब से अर्थव्यवस्था को दुरूस्त करने का सरकार के पास जरूर एक प्लान है जो हमें पता नहीं है. कोरोना से लड़ने के लिए टेंस्टिंग कम करना है या ज्यादा, ये सारे डिटेलिंग के मामले हैं, जिसको कभी भी एडजस्ट किया जा सकता है. इन मसलों पर बाल की खाल निकालना सही नहीं है.
कुछ आंकड़े भी यही बताते हैं कि लॉकडाउन का पालन करने में देश पूरी तरह से पीएम का साथ दे रहा है. गूगल का आंकड़ा है कि लॉकडाउन के ऐलान के बाद अपने देश में सार्वजनिक जगहों पर जाने में जितनी कमी हुई वो दुनिया में सबसे ज्यादा में से एक है. जिन शहरों को जुड़वा माना जाता है- दिल्ली-गाजियाबाद और मुंबई-ठाणे उनमें शामिल है- उनमें ट्रैंफिक की आवाजाही बिल्कुल बंद है.
9 बजे- 9 मिनट का पीएम का जो आह्वान था, उसका पूरी तरह से पालन हुआ और इसका सबूत ये है कि उस दिन बिजली में मांग में करीब 25 परसेंट तक की कमी आई. इन सारे आंकड़ों को देखकर लगता है कि प्रधानमंत्री ने देश के लोगों को जो भी कहा उसका पूरी तरह से पालन हुआ है. काफी दिक्कतों के बावजूद भी.
इन सब बातों पर गौर करने पर आपको यही लगेगा कि जो मेरे दोस्तों की भावना है वो दरअसल देश के आवाम की आवाज है और वो यही कह रहा है कि पूरा देश लॉकडाउन के फैसले में प्रधानमंत्री के साथ है.
पीएम मोदी की लोकप्रियता की वजह क्या?
आखिर ऐसा क्यों है कि मुश्किल दौर में मोदी जी की लोकप्रियता और भी काफी बढ़ जाती है. हमने नोटबंदी के समय में भी देखा था कि सारी मुसीबतों को झेलने के बावजूद लोग उस फैसले के साथ थे. नौकरियां गईं, शादियां टलीं, इलाज कराने में दिक्कत हुई, कुछ जानें भी गईं, लेकिन लोगों ने पीएम के फैसले का पूरा साथ दिया. इसकी क्या वजह हो सकती है?
ऐसा नहीं है कि मेरे पास इसका पूरा जवाब है. मेरा अनुमान है कि पीएम मोदी उस व्यवस्था के विरोधी ताकतों का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं, जो उनके कार्यकाल से पहले तक चल रहा था. दार्शनिक कार्ल मार्क्स के शब्दों में 2014 से पहले की व्यवस्था अगर थी, तो मोदी जी उसके एंटी थीसीस नजर आते हैं. पुरानी व्यवस्था इलिलिस्ट थी, अंग्रेजीदां को तरजीह देती थी, एक बड़े तबके की आवाज को ज्यादा नहीं सुना जाता था जो अंग्रेजीदां नहीं था.
मोदी जी ने उन तबकों को आवाज दी जिनकी बातें नहीं सुनी जाती थी. आप तरीके पर सवाल उठा सकते हैं, लेकिन मोदी जी की मुहिम एक लोकतांत्रिक मुहिम है. प्रधानमंत्री उस व्यवस्था को बदलने में लगे हैं और इस बदलाव में दर्द तो होगा ही.
भारतीय परंपरा में तपस्या का भारी महत्व है और तप में मुश्किलों का सामना होता ही है. इसके बाद ही तो मनचाहा फल मिलता है. और देश के लोग पीएम के साथ तपस्या को तैयार हैं. और ऐसा होता हुआ हम बारबार देख रहे हैं.
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