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मैं दिल्ली छोड़ना चाहती हूं, लेकिन खूंटी महीने की सैलरी से बंधी है

एक सर्वे के मुताबिक, 40 फीसदी दिल्लीवासी ये शहर छोड़कर किसी दूसरे शहर में बसना चाहते हैं

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दिल्ली की हवा फिर जहरीली हो गई है. फिर एक बार सरकार को हेल्थ इमरजेंसी घोषित करनी पड़ी है. पहले से ही प्रदूषण की मार झेल रही दिल्ली पर दिवाली-पराली का अत्याचार.

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दिल्ली में पिछले हफ्ते दम घुंटने लगा. प्रदूषण पर सरकार ने ऑड-ईवन फॉर्मूला लागू कर दिया, तो मंत्री गाजर खाने की सलाह दे रहे हैं. टीवी-अखबारों में ऐड आ रहे हैं कि घर में फलाना एयर प्यूरीफायर रखें, और अगर जेब एयर प्यूरीफायर की इजाजत नहीं देती, तो घर में ये पौधे लगाएं. असलियत ये है कि दिल्ली की हवा में प्यूरीफायर और पौधे भी फेल हैं.

मैं पिछले चार सालों से हर साल खुद को यही कहती हूं कि अगले साल दिल्ली छोड़ दूंगी. सालभर दिल्ली की भीड़ परेशान करती है, और दिवाली के बाद हवा. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति दिल्ली में चंद दिन रुके थे तो प्रदूषण के कारण उनकी जिंदगी के 6 घंटे कम हो गए थे, मैं पिछले 8 सालों से इस जहरीली हवा में रोजाना सांस ले रही हूं, और मुझ जैसे हजारों लोग होंगे, जो न चाहते हुए भी इस शहर में सांस लेने को मजबूर हैं.

अपनी जिंदगी के घंटे कम करवाना किसी को पसंद नहीं जनाब, वो तो मजबूरियां हैं जो इंसान को अपनी जमीन से इतनी दूर खींच लाती हैं.

हाल ही में हुए एक सर्वे के मुताबिक, करीब 40 फीसदी दिल्लीवासी ये शहर छोड़कर किसी दूसरे शहर में बसना चाहते हैं. और इसके पीछे कारण, प्रदूषण है. 13 फीसदी लोग ये मान बैठे हैं कि उनके पास प्रदूषण के बढ़ते स्तर को झेलने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है.

8 साल पहले मेरी मजबूरी कॉलेज थी, जो मुझे उत्तराखंड के एक छोटे से शहर से इस महानगर दिल्ली ले आई. मेरे जैसे हजारों-लाखों लोग हैं जो कॉलेज और नौकरी जैसी मजबूरियों के चलते महानगर या मेट्रोपॉलेटिन शहरों का रुख करते हैं. इनमें से कुछ किस्मतवाले भी होते हैं, जो वापस अपने शहर लौटने में कामयाब हो जाते हैं, लेकिन अधिकतर वो बदनसीब ही होते हैं, जिनकी खूंटी महीने के आखिर में आने वाली सैलरी से बंधी होती है, जिनके शहर में उनके लिए अवसर नहीं हैं.

कभी जौक ने कहा था - कौन जाए दिल्ली की गलियां छोड़कर. मगर दिल्ली की हवा कुछ यूं चली है कि मेरा मन कहता है - मौका मिले तो कौन न जाए दिल्ली की गलियां छोड़कर.

“आधुनिक औद्योगीकरण की आंधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका परिवेश और आवास स्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं.”

सालों पहले निर्मल वर्मा की कलम से निकलीं ये पंक्तियां आज के समय में भी उतनी ही फिट बैठती हैं. हम 'आधुनिक भारत के शर्णार्थी' हैं, जो सरकार की नाकामियों से उपजी मजबूरियों के चलते अपने परिवेश से दूर चले गए हैं. इसमें कसूर सरकार का नहीं है तो किसका है? सरकार महानगर तो चमकाने में लगी है, लेकिन उन छोटे शहरों को छूने की भी कोशिश नहीं कर रही है. दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में इमारतें आसमान छूने को हैं, वहीं देश के दूसरे शहर अपने वजूद के लिए तरस रहे हैं. बिहार में रहने वाले लोग काम की तलाश में जम्मू-कश्मीर जाने को मजबूर हैं, तो तमिलनाडु वाला दिल्ली आने को.

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पिछले साल आई एक स्टडी के मुताबिक, भारत में तंबाकू से ज्यादा मौतें वायु प्रदूषण के कारण होती हैं. हर साल भारत में 10 लाख से ज्यादा लोग वायु प्रदूषण के कारण अपनी जान गंवा देते हैं. स्टडी में सामने आया है कि देश की करीब 77 फीसदी आबादी जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर है.

ऐसा नहीं है कि आप अपने देश में कहीं भी रह नहीं सकते, लेकिन रहना अपनी पसंद के खिलाफ मजबूरी में हो तो वो गलत है. आप अपनी मर्जी से मुंबई  रहें या कोलकाता, किसे तकलीफ है, लेकिन जब पढ़ाई और नौकरी आपको अपना शहर छोड़ने पर मजबूर कर दे, तो मन लगा पाना मुश्किल है.

सरकारों को दिल्ली और प्रदूषण की याद केवल तभी आती है जब सर्दी में धुंध छा जाती है. जब पंजाब-हरियाणा के किसान पराली जलाना शुरू करते हैं या दिवाली के बाद जब पटाखों का धुआं हवा में जहर घोलना शुरू करता है. लेकिन बाकी महीनों का क्या, जब दिल्ली की हवा 'बेहद खराब' स्थिति में बनी रहती है?

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