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गुजरात मॉडल की खुली पोल: भागते प्रवासी, सियासी रोटियां सेकती सरकार

सरकार दिखा रही है दोहरा रवैया और कर रही  है झूठे दावे

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उत्तर गुजरात के साबरकांठा जिले में 15 दिनों पहले नवजात बच्ची से कथित बलात्कार करने वाले शख्स के बहाने यूपी, बिहार, राजस्थान और यहां तक कि मध्य प्रदेश के प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाए जाने को बदकिस्मती से राजनीतिक रंग दे दिया गया है, जबकि इसे कथित गुजरात मॉडल की कमजोरी के रूप में देखा जाना चाहिए.


बेहतर जिंदगी का सपना टूटा


हमला शुरू होने के बाद रातोंरात बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर गुजरात से चले गए. राज्य हाईकोर्ट में दायर एक याचिका में दावा किया गया है कि अरमानों की गठरी सिर और कांधे पर लादे करीब दो लाख मजदूर गुजरात छोड़कर जा चुके हैं.

दरअसल, राज्य का सामाजिक-आर्थिक तानाबाना लोगों की जायज मांगों और ख्वाहिशों को पूरा नहीं कर पा रहा. स्थानीय लोगों में वर्षों से इसे लेकर खीझ बढ़ रही थी, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व ने इन समस्याओं को दूर करने के बजाय गुजरातियों की भावनाओं को भुनाया.

उन्हें झूठा अहसास दिलाया गया कि वे दूसरे राज्यों के लोगों से बेहतर हैं. प्रवासियों के खिलाफ गुस्सा दूसरी वजहों से है क्योंकि कथित बलात्कारी को गिरफ्तार किए जाने के काफी बाद उन पर हमले शुरू हुए. ऐसे हमले आमतौर पर तब होते हैं, जब कथित आरोपी की पहचान नहीं हो पाती या वह फरार हो चुका होता है. हालांकि, इस मामले में कथित बलात्कारी को बच्ची के लापता होने के आधे घंटे के अंदर पकड़ लिया गया था.

सियासी रोटियां सेंक रही है बीजेपी


इसके बावजूद आसपास के गांवों में मामले का प्रचार करके लोगों को भड़काया गया. उसी रात उन फैक्ट्रियों पर हमले हुए, जिनमें ज्यादातर प्रवासी मजदूर काम कर रहे थे. इस हिंसा की चपेट में जो लोग आए, उनका कसूर सिर्फ इतना था कि वे भी प्रवासी थे. इसका मतलब यह है कि उन्हें अलग वजहों से निशाना बनाया गया. राज्य सरकार और बीजेपी ने इस मामले का राजनीतिकरण किया और जवाबदेही कांग्रेस एमएलए अल्पेश ठाकोर पर डाल दी.

हालांकि, यह बात भी याद रखनी चाहिए कि अल्पेश ने हार्दिक पटेल के आरक्षण आंदोलन की मांग के खिलाफ ओबीसी समुदाय को एकजुट करके अपनी राजनीतिक पहचान बनाई है. वह आज की परिस्थितियों की उपज हैं, जिस तरह से 2002 में मोदी थे. जाति-समुदाय आधारित नाराजगी और मांगों के बीच हिंदुत्व लोगों को एकजुट करने का राजनीतिक हथियार नहीं रह गया है.

अगस्त 2015 से राज्य में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की मांग को लेकर पटेल आंदोलन कर रहे हैं. यह अजीब विरोधाभास है. इसी समुदाय ने 1985 में ओबीसी आरक्षण 10 से 28 पर्सेंट करने के कांग्रेस सरकार के फैसले के खिलाफ आंदोलन करके राज्य को पंगु बना दिया था. आज वे खुद को ओबीसी वर्ग में शामिल करने की मांग कर रहे हैं ताकि उन्हें आरक्षण का लाभ मिले. इस समस्या की जड़ पीढ़ी दर पीढ़ी शहरी और खेती की जमीन का बंटवारा और नई इकोनॉमी से रोजगार के पर्याप्त मौके नहीं मिलना है.

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प्रवासी और स्थानीय लोगों में टकराव


गुजरात में प्रवासियों का लंबा इतिहास रहा है क्योंकि मजदूरी को गुजराती समाज में अच्छा नहीं माना जाता. यहां की संस्कृति उद्यमशीलता रही है. इसलिए इंडस्ट्री को कुशल-अकुशल श्रमिकों की जरूरत प्रवासियों से पूरी करनी पड़ी. लिहाजा, साल दर साल प्रवासी कामगारों की संख्या बढ़ती गई. इनमें से कइयों ने गुजरात को घर मान लिया और यहीं बस गए. सूरत जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में यह ट्रेंड काफी दिखता है.

दूसरी तरफ, प्रदेश सरकार ने कथित गुजरात मॉडल की खामियों को दूर नहीं किया. स्थानीय लोग किन मसलों से जूझ रहे हैं, इसका पता लगाने की कोशिश तक नहीं हुई. ना ही युवाओं को वैकल्पिक रोजगार के बारे में सलाह दी गई. इससे स्थानीय लोगों में नाराजगी बढ़ती गई, जो 2015 से सामाजिक आंदोलन के रूप में हमारे सामने है. स्थानीय लोगों की समस्याओं का स्थायी हलतलाशने के बजाय राज्य सरकार का ध्यान उद्योगों की दिक्कत दूर करने में लगा रहा.

बीजेपी लीडरशिप भी इसमें राज्य सरकार के साथ थी. इसे पूरे मामले में प्रवासी लास्ट मिनट वोट बैंक के तौर पर उभरे. 15 साल के डोमिसाइल रूल से इंडस्ट्री को मजदूरों को रिटेन करने में दिक्कत हो रही थी. इस रूल को लेकर इस साल तब विवाद खड़ा हो गया, जब सरकार ने गुजरात के पैरामेडिकल और मेडिकल कोर्स में दाखिले के लिए डोमिसाइल सर्टिफिकेट को अनिवार्य कर दिया.

इसके बाद विजय रूपाणी सरकार ने प्रस्ताव रखा कि 15 साल के बजाय गुजरात में दो साल तक रहने वाले को डोमिसाइल यानी स्थानीय निवासी माना जाएगा. संतुलन साधने और गुजरातियों की नाराजगी से बचने के लिए इसके साथ यह प्रस्ताव भी लाया गया कि राज्य के उद्योगों को 80 पर्सेंट रोजगार स्थानीय लोगों को देना होगा.

बीजेपी की दोहरी चाल


प्रवासियों के खिलाफ हिंसा भड़कने से कुछ दिन पहले रूपाणी ने अहमदाबाद में एक कार्यक्रम में कहा था,‘सर्विस सेक्टर सहित जो भी कंपनियां गुजरात में बिजनेस शुरू करेंगी, उन्हें 80 पर्सेंट रोजगार गुजरातियों को देना होगा.’ मतलब साफ है कि सरकार प्रवासियों और स्थानीय लोगों, दोनों को खुश रखने की कोशिश कर रही थी.

एक तरफ उसने डोमिसाइल स्टेटस की अवधि 15 साल से घटाकर दो साल करने की बात कही तो दूसरी तरफ इंडस्ट्री में उसने 80 पर्सेंट नौकरी गुजरातियों के लिए आरक्षित करने का ऐलान किया. यह देखना बाकी है कि इन मामलों में राज्य सरकार आखिर में क्या करती है. वहीं, अल्पेश ने बलात्कार मामले का इस्तेमाल गुस्साए ओबीसी की समस्याओं को सामने लाने के लिए किया, लेकिन उन्हें दोष देकर बीजेपी सियासी फायदा लेने की कोशिश में है.

बीजेपी का झूठा दावा?


क्या यह दांव चलेगा? इससे ना तो बीजेपी को फायदा होगा और ना ही राज्य सरकार को स्थानीय लोगों का गुस्सा खत्म करने में मदद मिलेगी. इससे इंडस्ट्री की दिक्कत भी दूर नहीं होगी. प्रवासी मजदूरों के पलायन से मध्य प्रदेश और राजस्थान चुनाव में बीजेपी को नुकसान हो सकता है. इसका असर 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी और बिहार में भी होगा क्योंकि गुजरात से जाने वाले मजदूर अपने साथ हुई ज्यादती की दास्तां लेकर जा रहे हैं.

2013 में मोदी ने चुनाव रैलियों में दावा किया था कि गुजरात आदर्श राज्य है और पूरे उत्तर भारत से लोग नौकरी के लिए वहां जाते हैं. उन्होंने कई रैलियों में कहा था,‘जैसे ही ट्रेन गुजरात में प्रवेश करती है, परिवार वाले खुद को सुरक्षित महसूस करने लगते हैं.’ बीजेपी मना रही होगी कि लोगों को यह बात याद ना हो.

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