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दिल्ली बॉर्डर से जाते किसानों के आंसुओं में छिपी है आंदोलन और जीत की वजह

किसान ऐसा ही होता है, दिल्ली बॉर्डर से जाने लगा तो भी रोने लगा

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जमीन किसान की फैक्ट्री नहीं, जहां वो मुनाफा कमाता है. जमीन में वो जिंदगी उगाता है इसलिए जमीन से दिली तौर पर जुड़ा होता है. बाप दादे की जमीन ही क्यों, जिस मिट्टी पर थोड़ी देर बैठ गया, उसी का हो लिया, उसकी खुशबू अंगोझे में लपेट कर ले गया.

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तीन कृषि कानूनों के खिलाफ साल भर आंदोलन चलाने के बाद किसान अब दिल्ली बॉर्डर से अपनी घरों की तरफ बढ़ रहे हैं. उस जमीन की तरफ जा रहे हैं जिसमें उनकी जान बसती है. जीत कर जा रहे हैं. तीन कृषि कानूनों पर सरकार को झुका कर जा रहे हैं. खुशी का मौका होना चाहिए, लेकिन 10 दिसंबर को क्विंट की टीम जब टिकरी बॉर्डर पर पहुंची तो कई किसान रोते मिले.

"आज हम टिकरी बॉर्डर की सारी दुकानों पर जाएंगे और पूछेंगे कि हमसे कोई गलती तो नहीं हुई. हमारा कुछ उधार तो नहीं."
टिकरी बॉर्डर से हरियाणा में अपने घर लौटते अर्जुन सिंह
किसान ऐसा ही होता है, दिल्ली बॉर्डर से जाने लगा तो भी रोने लगा

टिकरी बॉर्डर पर अर्जुन सिंह की क्विंट संवाददाता साधिका तिवारी से बातचीत

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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याद कीजिए किसानों और स्थानीय लोगों के बीच कलह कराने की कोशिश की गई. ऐसे में अर्जुन सिंह का ये कहना कि आज हम आस पास के लोगों से गले मिल कर जाएंगे, इन कोशिशों को प्यारा और करारा जवाब है.

हम जब सामान समेट कर ट्रॉली में रख रहे थे तो आंसू आ गए. इस मिट्टी के साथ भी मोह जुड़ गया हमारा.
टिकरी बॉर्डर से पंजाब के सुलतानपुर में अपने घर लौटते गुरमीत सिंह
किसान ऐसा ही होता है, दिल्ली बॉर्डर से जाने लगा तो भी रोने लगा

टिकरी बॉर्डर पर गुरमीत सिंह की क्विंट संवाददाता साधिका तिवारी से बातचीत

(फोटो:क्विंट हिंदी)

गुरमीत सिंह की ये बात सुनकर रामानंद सागर कृत रामायण का वो सीन याद आ गया जब सीता जी अशोक वाटिका से जाते वक्त जमीन को प्रणाम करती हैं. वो स्थान देवी को शुक्रिया कह रही हैं, जिसने उन्हें इतने दिन आश्रय दिया.

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धूप, बारिश, संगीनों के साए में रहे किसान

याद रखिए ये सीता जी अशोक वाटिका में थीं, जहां कष्ट में रहीं. धूप, बारिश, असुरों के बीच. फिर भी शुक्रिया कह रही थीं.

याद रखिए टिकरी बॉर्डर पर किसान कष्ट में रहे. धूप, बारिश, संगीनों के साए में. किसानों पर पता नहीं क्या-क्या तोहमत लगाए गए. झूठ का एक आसमान ओढ़ा दिया गया. लेकिन जाते वक्त इस जमीन के लिए उसके दिल में मोहब्बत है, जो आंखों के रास्ते झलक रहा है.

किसानों के आंसू देखकर ये भी समझ आता है कि जब वो टेंट लगाने भर की जमीन से एक साल में इतना जुड़ जाता है कि आंखों से पानी बहाने लगता है तो लाजिमी है कि जब उसकी पुरखों की बीघे दो बीघे जमीन पर किसी बाहरी की नजर पड़ती है तो आंखों में आग भर लेता है.

किसानों को लालची बताया गया. लेकिन मामला सिर्फ आमदनी का था ही नहीं. दिल दा मामला था.
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सरकार किसानों को अपनी बात पर यकीन नहीं दिला पाई

मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और सरंक्षण) समझौता अध्यादेश के जरिए बने कानूनों से किसानों में डर था कि किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर बन जाएगा और बड़ी कंपनियां मालिक. किसान नेताओं का कहना था कि इसमें समझौते की मियाद तो तय है लेकिन एमएसपी नहीं.

सरकार लगातार कहती रही कि ये डर बेमानी है, लेकिन संवाद के शोर के बीच संवादहीनता की ऐसी स्थिति थी, सरकार किसानों को अपनी बात पर यकीन नहीं दिला पाई.

अविश्वास की एक वजह कानून बनाने का अंदाज रहा. हेकड़ी कि हम बहुमत में हैं. सरकार ये भूल गई इस देश में किसान के पास है असली बहुमत, प्रचंड बहुमत.

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झोला उठाकर अपने घरों से निकले किसानों के दिल और जिगर को दिल्ली की मीनारों में कैद निजाम देख नहीं पाई. याद कीजिए दंभ से भरे वो सरकारी बयान. ''कृषि कानून किसी कीमत पर वापस नहीं लेंगे''. लेकिन लिया भी और माफी भी मांगनी पड़ी.

आंदोलन स्थगित करने के ऐलान के बाद किसान नेता योगेंद्र यादव ने कहा कि अब कोई नेता भूल कर भी किसानों से पंगा नहीं लेगा. लेकिन दिल्ली की दीवारों पर लिखे इतिहास को यहां के नए सुलतान पढ़ते तो पता होता कि ये किसानों की धरती है, किसानों की ही चालेगी. किसानों की जीत में तारीख ने खुद को दोहराया है.

किसान ऐसा ही होता है. नर्म-नर्म, सख्त-सख्त. जैसा चाहेंगे मिलेगा.

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