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जेनरेशन C: कोरोना काल में इन बच्चों की आवाज सुनना जरूरी है 

UN के आंकड़े कहते हैं कि करीब ढाई करोड़ बच्चे महामारी का असर कम होने के बावजूद फिर स्कूल नहीं जा पाएंगे.

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अमेरिका का मशहूर एनजीओ पेरेंट्स टुगैदर, जिसे जनरेशन सी कहता है, उसकी मानसिक स्थिति इस समय सबसे बुरी है. जनरेशन सी, यानी जनरेशन कोविड. जनरेशन कोविड वह नन्हे बच्चे और किशोर हैं, जो कोरोना काल में सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं. सिर्फ किसी एक देश के नहीं, पूरी दुनिया के. दुखद है कि बड़ों के मुकाबले बच्चे कोविड-19 से क्लिनिकली कम प्रभावित हैं. लेकिन उन पर महामारी का अप्रत्यक्ष असर ज्यादा पड़ा है. वे अपने भविष्य को कैसे देखेंगे? महामारी जब एक पूरी पीढ़ी के लिए बड़ा संकट बन जाए तो क्या उसका असर उनके पूरे जीवन पर नहीं पड़ेगा?

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बच्चे अकेले हुए हैं पर अकेलेपन से निकलने की कोशिश कर रहे हैं

बेशक, इसका असर उनके पूरे जीवन पर होगा, और इसी विचार के साथ संयुक्त राष्ट्र के ऑफिस फॉर द कोऑर्डिनेशन ऑफ ह्यूमैनिटेरियन अफेयर्स ने एक रिसर्च की. उनके ह्यूमैनिटेरियन इनफॉरमेशन पोर्टल रिलीफ वेब ने दुनिया के 13 देशों के 8 से 17 साल के बच्चों से बातचीत की. इन देशों में बांग्लादेश से लेकर ब्राजील, रोमानिया, सीरिया, फिलीपींस जैसे देश शामिल हैं. रिसर्च में बच्चों से पूछा गया कि वे कोविड-19 के बारे में क्या सोचते हैं. उनकी प्रतिक्रियाएं क्या हैं और अपने भविष्य को लेकर क्या चिताएं हैं?

रिसर्च में 71% बच्चों ने बताया कि वे स्कूल बंद होने की वजह से बहुत अकेले हो गए हैं. 91% ने कहा कि वे एन्जाइटी और गुस्से का शिकार हो रहे हैं. इस बात को लेकर चिंता में भी हैं कि यह संकट और कितने दिन बरकरार रहेगा.

लेकिन इन नेगेटिव बातों के अलावा बच्चों ने बहुत ही अच्छी बातें भी कहीं. इन बच्चों ने बताया कि वे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स के जरिए अपने दोस्तों के साथ अपने अनुभवों को साझा करते हैं. एक दूसरे की मदद करते हैं. वे चाहते हैं कि इस महामारी के बारे में लोगों को जागरूक करें. बेघर लोगों, बूढ़ों, अपने जैसे बच्चों की मदद करें. वे यह भी सोचते हैं कि उनके जैसे दूसरे बहुत से बच्चे शायद फिर कभी स्कूल न जा पाएं.

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वे दुनिया भर की चिंता करते हैं

यह चिंता जायज भी है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े कहते हैं कि करीब ढाई करोड़ बच्चे महामारी का असर कम होने के बावजूद फिर स्कूल नहीं जा पाएंगे. अफगानिस्तान से लेकर दक्षिणी सूडान तक बच्चे भुखमरी का शिकार हो रहे हैं. स्कूल बंद होने के कारण उगांडा में टीन प्रेग्नेंसियों में एकाएक बढ़ोतरी हुई है. केन्या में बहुत से परिवार अपनी टीनएज लड़कियों को सेक्स वर्क के लिए भेज रहे हैं.

सेव द चिल्ड्रन के आंकड़े कहते हैं कि अगले पांच सालों में दुनिया भर में 25 लाख बच्चियों की उनकी मर्जी के खिलाफ शादी की जा सकती है.

ये तो वे बच्चे हुए जो साधन संपन्न नहीं. साधन संपन्न बच्चों की स्थिति पर भी असर पड़ा है. ऑनलाइन क्लासेज ने उनका स्क्रीन टाइम बढ़ाया है. इसका क्या असर हो सकता है, इसका अंदाजा कई साल पहले के एक सर्वे से पता चल जाता है.

2007 में जब आईफोन लॉन्च हुआ था, तब किशोरों और युवाओं में सुसाइट की दर 50% से अधिक बढ़ गई थी. सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई थी मिडिल स्कूल के बच्चों में. स्क्रीन टाइम बढ़ने से उनका फेस टू फेस इंट्रैक्शन कम हो जाता है, और महामारी के बाद लॉकडाउन और स्कूल के बंद होने से इसे और बढ़ावा मिला है.

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सिर्फ बच्चों से बात कीजिए

ऐसे में बच्चों की मानसिक सेहत के लिए क्या किया जा सकता है? कनाडा की मशहूर बाल विशेषज्ञ जूली सी गार्लेन ने अपने एक पेपर में इस सवाल का जवाब दिया है. वह कहती हैं कि बच्चों को इस महामारी के मानसिक आघात से बचाने का सबसे अच्छा तरीका है, उनकी प्रतिक्रियाओं को जानना.

कोविड-19 के दौर में उनकी बात सुनी जाए, यह सबसे जरूरी है. इसके अलावा हमें बच्चों के लालन पालन के तरीकों को भी बदलना होगा. यह सोचना होगा कि वे जानकार हैं. अनुभवी हैं. उनमें पूरी क्षमता है.
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बच्चे जानकार हैं, पूरी तरह सक्षम हैं

हालांकि माता-पिता हमेशा चाहते हैं कि उनके बच्चों को जीवन की वास्तविकताओं से दूर रखा जाए ताकि वे दुखी न हों, घबराएं नहीं. लेकिन अब बच्चों में पहले से अधिक जानकारियां हैं. वे उन जानकारियों को साझा भी करते हैं. यूनिसेफ के हाल के लर्न विद मी वीडियो सीरिज में दुनिया भर के बच्चों ने बताया था कि क्वॉरन्टीइन में उन्होंने क्या नए कौशल सीखे. स्टे होम डायरीज में बच्चों ने यह भी बताया कि वे कोरोनवायरस के मानसिक दबाव से कैसे जूझ रहे हैं. सबसे दिलचस्प बात यह है कि बच्चों में समाज में बदलाव लाने की भी पूरी क्षमता है. लेकिन इसके लिए उनसे सीधी बातचीत की जानी चाहिए. उनसे संवाद बनाना चाहिए.

नॉर्वे की प्रधानमंत्री एरना सोलबर्ग ने कोविड-19 पर किड्स ओनली प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने भी बच्चों को सीधा एड्रेस करते हुए कहा था कि उन्हें कोविड के बारे में जागरूकता फैलाने में अहम योगदान देना है और खुद को सुरक्षित रखना है.

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यह बच्चों की जागरूकता और क्षमता का ही कमाल है कि अमेरिका के मिसूरी में जुलाई में 8 साल के नोलन डेविस ने ब्लैक लाइव्स मैटर मार्च का आह्वान किया और सैकड़ों बच्चे इस प्रदर्शन में शामिल हुए.

तो, दुनिया बदली भले है, लेकिन वे बच्चे ही होते हैं जो बदलती दुनिया से जूझना जानते हैं. इसीलिए उनके हर सवाल को आमंत्रित किया जाना चाहिए. हमारे जवाब ही तय करेंगे कि बच्चों का भविष्य कैसा होगा. इस महामारी के दौर में बड़ों को पहले खुद यह समझना होगा.

(माशा लगभग 22 साल तक प्रिंट मीडिया से जुड़ी रही हैं. सात साल से वह स्वतंत्र लेखन कर रही हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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