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क्‍या BJP की हालत 1987 की कांग्रेस जैसी?कितने गुस्से में हैं वोटर?

‘1987 में हरियाणा में चुनाव होने वाले थे. कांटे की टक्कर थी, पर बहुत कम लोग ये कहना चाहते थे कि कांग्रेस हार जाएगी.’

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आज की तारीख में सबका कहना यही है कि गुजरात में बीजेपी हार नहीं सकती, क्योंकि उसकी पोजिशन बहुत मजबूत है. पर चुनावों में और क्रिकेट में स्थिति बदलने में टाइम नहीं लगता.

मुझे ठीक 30 साल पहले की बात याद आ रही है. 1987 में हरियाणा में चुनाव होने वाले थे. कांटे की टक्कर थी, पर बहुत कम लोग ये कहना चाहते थे कि कांग्रेस हार जाएगी.

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‘1986 में राजीव गांधी की छवि वैसी ही थी, जैसी मोदी जी की है’

ये इसलिए नहीं था कि कांग्रेस की असेंबली में बहुत ज्यादा सीटें थीं. 1982 में 90 में से कांग्रेस केवल 36 सीटें जीत पाई थी. ये इसलिए था कि दो ही साल पहले कांग्रेस ने लोकसभा में 415 सीटें जीतें थी. 1985 और 1986 में राजीव गांधी की छवि ठीक वैसी ही थी, जैसी मोदीजी की अब है. दोनों काफी पॉपुलर थे.

पर 1987 में दो घटनाएं घटी. मार्च में राष्ट्रपति जैल सिंह ने इशारा करना शुरू किया कि अगर वो चाहें, तो राजीव की सरकार को डिसमिस कर सकते हैं. वो बहुत ही खफा थे कि राजीव राष्ट्रपति के पद को उचित इज्जत नहीं दे रहे थे. फिर अप्रैल में स्वीडन से बोफोर्स घोटाले की खबर आई. कुछ ही दिनों में राजीव पर उंगलियां उठने लगीं.

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उस समय, चंद हफ्तों में राजीव गांधी की सरकरा बुरी तरह से डगमगा गई. जब जून में हरियाणा में चुनाव हुए, कांग्रेस 36 में से सिर्फ 5 सीटें ही बचा पाई. देवीलाल का लोक दल 58 और बीजेपी 15 सीटें जीत गई. कांग्रेस का खात्मा तो हुआ ही, पर साथ-साथ राजीव का भी.
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कितना गुस्सा है?

मई 1987 तक किसी ने डंके की चोट पर ये नहीं कहा कि कांग्रेस इतनी बुरी तरह से हारेगी. सब विशेषज्ञ यही कह रहे थे, जो अब सब बीजेपी और गुजरात के बारे में कह रहे हैं: जीत तो पक्की है. शायद सीटें और वोट शेयर कुछ कम हो जाएं, पर तब हवा ऐसे बदली कि उस पराजय के बाद कांग्रेस अभी तक पूरी तरह से संभल नहीं पाई है.

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1989 के आम चुनाव में कांग्रेस केवल 197 सीटें जीत पाई, 207 हार कर. कहां 1984 के 415, कहां 1989 के 197? उसके बाद कांग्रेस का मैक्सिमम अब तक सिर्फ 206 है, जो वो 2009 में जीत पाई. 1991 में 193 और 2009 में 206 के बीच ही घूम रही थी, फिर 2014 में 44 पर आ गई.
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इन चीजों का गुजरात से क्या लेना-देना? बस सिर्फ यही की चुनावों में न तो विशेषज्ञ सही अनुमान लगा पाते हैं, न पॉलिटिकल पार्टियां कि वोटर कितना खफा है. इसकी वजह शायद ये है कि वोटर्स जब गुस्से में होते हैं, तब सच नहीं बोलते. सब ये तो कहते हैं कि वोटर गुस्से में हैं, पर कोई ये नहीं बता पाता कि कितने गुस्से में.

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हूं कौन छूं?

ये बात गुजरात के बारे में भी सच हो सकती है. किसान और बिजनेसमैन, दोनों कितने गुस्से में हैं, इसका अभी किसी को अनुमान नहीं है. गुजरात में बूढ़ी भैंसों का ठीक दाम मिल रहा है, क्योंकि गुजरात की रूरल इकोनॉमी एक मिल्क बेस्ड इकोनॉमी है. इसका किसानों की आमदनी पर नकारात्मक असर पड़ा है.

एक तरफ वाजिब दाम नहीं और दूसरी तरफ बूढ़ी भैंसों की देखभाल का खर्चा. और जहां बिजनेस का सवाल है, वह नोटबंदी और जीएसटी के बीच में पिस गई है. बहुतों ने धंधा बंद करके स्टॉक मार्केट में पैसा लगा दिया है. ये एक इम्पॉर्टेंट वजह है मार्केट के चढ़ने में.

अब इन सबमें नाराजगी तो है ही. इसका असर ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम’ में काफी खतरनाक साबित हो सकता है इनकंबेंट को.

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ये भी जरूरी नहीं है कि सब वोटर एक ही हाई लेवल के गुस्से में हो. जब टक्कर बहुत इंटेंस होती है तब कुछ ही लोगों का वोट, जो बहुत गुस्से में हैं, जिता या हरा सकता है. तमिलनाडु में ये बात बार-बार देखी गई है. वहां वोट शेयर उतना चढ़ता या गिरता, नहीं पर सीटों में बहुत स्विंग होता है.  
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अब ये देखना है कि गुजराती अस्मिता कितनी प्रभावशाली साबित होगी और गुस्सा कितना. या फिर क्या वो पुराना आईएस जौहर वाले गाने पर बात उतर आएगी? उस गाने में जौहर, मुकरी और धूमल ये गाते हैः हूं कौन छूं माने खबर नाथी.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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